Thursday 14 December 2017

                                 आज सभी यह मान रहे हैं कि सारा विश्व एक ग्राम बन चुका है | वैश्विक चिन्तना का विकास अधुनातन मानव सभ्यता का एक अनिवार्य अंग बन चुका है | ऐसा चिन्तन उचित भी है और मानव सभ्यता के लिये एक अत्यन्त आवश्यक संजीवनी कवच है | पर एक रूपता के प्रबल प्रवाह में हमें  वैविध्य के आकर्षण और प्राणद सौन्दर्य श्रंखलाओं का भी ध्यान रखना होगा | मानव जाति की आर्थिक प्रगति ,उसकी दीर्घ जीविता और साधनों की विपुलता सारे विश्व के लिये कल्याणकारी है | पर साथ ही उसकी भेष -भूषा ,खान -पान ,आवास प्रक्रिया और परम्परागत उद्दात्त सांस्कृतिक धरोहरों और उत्सवों को भी हमें अक्षुण रखना होगा | विज्ञान की न तो कोई सीमा होती है और न ही यह किसी भौगोलिक परिबन्धन को मानता है | इसलिये विज्ञान और वैज्ञानिक द्रष्टिकोण सार्वभौम है | पर विज्ञान सम्मत होकर भी भौगोलिक और मौसमी विविधताओं के कारण हमारी जातीय परम्परायें अपना विशिष्ट रूप बनाये रखती हैं | भाषा सामाजिक सम्बन्ध और जन्म मरण से सम्बन्धित रीति रिवाज भिन्न- भिन्न क्षेत्रीय परम्पराओं की मर्यादा से बंधे रहते हैं | इनका परिष्करण तो किया जा सकता है पर इन्हें समूल विनिष्ट करनें की प्रक्रिया एक ऐसी एक रूपता को जन्म देगी जी कि न केवल अशोभन होगी बल्कि सृजन की नैसर्गिक प्रवृत्ति पर भी कुठाराघात करेगी | इसलिये आवश्यक है कि बहुरूपता में समन्वय का संगीतमय साज रचा जाय | भारत कभी भी किसी काल में न तो अमरीका बन सकता है और न योरोप | ठीक इसी अमरीका और योरोप भी कभी किसी काल में भारत नहीं बन सकते | ठीक यही बात चीन ,ब्राजील जैसे बड़े देशों और मालद्वीप और लंका जैसे छोटे देशों पर भी लागू होती है | विज्ञान की सुविधायें और उसके द्वारा पायी गयीं विपुलता और सम्पन्नता सभी देशों में प्रभावी होती है पर सांस्कृतिक विरासत का सौन्दर्य तो उसके निरालेपन और उसके बहुल वादी स्वरूप में ही होता है | इसलिये भारत की वैश्विक चिन्तना  को भारत की सांस्कृतिक जड़ों से अपनें संवर्धन और पोषण के लिये पोषक तत्वों की तलाश करनी होगी | यह एक ऐसी राष्ट्रीय द्रष्टि है जो किन्हीं भी आंतरराष्ट्रीय मानवीय कल्याण भावना से ठुकरानें का आग्रह नहीं करती | देखना सिर्फ यह है कि सांस्कृतिक चेतना का जीवन्त और अविनश्वर तत्व ही आधुनिक सन्दर्भों में नया निखार लेकर पनप सके | अधिकतर यह देखा गया है कि बाढ़ के प्रभाव में सेतुबन्ध टूट जाते हैं और जल की जीवनदायी शक्ति विनाश का ताण्डव रच देती है | हमें विनाश से बचनें के लिये सेतुबन्धों को न केवल सुरक्षित रखना होगा बल्कि उन्हें और अधिक सुद्रढ़ बनाना होगा | हाँ यदि सेतुबन्धों से घिरकर सड़ांध आनें लगे तो उसे प्रवाहमान करनें का मार्ग भी खोजना होगा | भारतीय मनीषा के आगे आज सबसे बड़ी चुनौती यही है कि किस प्रकार भारतीय संस्कृति की मानवीय मूल्यों से मण्डित परम्पराओं को सुरक्षित रखते हुये वैज्ञानिक विचारधारा और वैश्विक भाई चारे का ताल मेल किया जाय | स्वतन्त्रता संग्राम में जिस नेतृत्व नें भारत  का मार्गदर्शन किया था वह नेतृत्व भारत की सांस्कृतिक विरासत का पारखी और प्रहरी भी था | राजनैतिक चेतना साथ- साथ भारत के सांस्कृतिक पुनर्जागरण और अभ्युदयीकरण में उसका सशक्त योगदान था |
                               महात्मा गांधी ,रवीन्द्र नाथ टैगोर ,लोकमान्य तिलक ,मदन मोहन मालवीय ,और मौलाना अबुल कलाम आजाद भारत की मध्य युगीन संस्कृति के आदर्श रूप थे | आज की राजनैतिक पौध इस परम्परा से कटकर अधकचरी जीवन पद्धति की पैरोकार बन चुकी है | न तो उनमें पश्चिम की शक्ति और न अन्वेषक द्रष्टि है और न ही उनमें पूरब की उद्दात्त दार्शनिकता | भारत का बहुसंख्यक राजनीतिक नेतृत्व सांस्कृतिक द्रष्टि से बौना तो है ही साथ ही आडम्बरों की दम घोंटू बन्दिशों से जकड़ा है | हम 'माटी ' के प्रबुद्ध पाठकों से अपेक्षा रखते हैं कि वे अपनें आस -पास किशोरों और तरुणों बीच उन सम्भावनाओं की तलाश करें जो  हमें सच्ची भारतीयता को सच्ची वैश्विक विचारधारा से जोड़ने की क्षमता रखती हो | हम जानते हैं कि सारे प्रयास सार्थक नहीं होते पर जहां माटी है वहां कोई न कोई अंकुर तो जमेगा ही | इसी विश्वास साथ |

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