Saturday 16 December 2017

मेरे विनाश पर क्या रोना ?
---------------------------------

मेरे विनाश पर क्या रोना ?
जब टूट रहे गिरि  श्रंग सदा से धरती पर
जब खण्ड खण्ड हो शिला रेत बन जाती है
जब कठिन तपस्या से रक्षित मन -रन्ध्रों में
ऐन्द्रिक -ऐष्णा की मादकता छन जाती है
जब बज्र मुष्ठि बजरंग आद्र हो उठते हैं
जब श्रंगी की साधना केश सहलाती है
जब चरम -प्रतिष्ठा पर पहुँचे कवि की कविता
जन श्री से कटकर पद्म श्री बन जाती है
फिर मैं भी कुछ क्षण कहीं अगर सुस्तानें को
सौरभ -बगिया में जा बैठूं तो इसमें क्या विस्मित होना
मेरे विनाश पर क्या रोना ?

जब जननायक  धननायक बन कर भरमाये
जब सेवा का सत्ता से मेल -मिलाप हुआ
जब राह दीप ही घिरे अमा की बाँहों में
वरदान उलट कर मानवता का श्राप हुआ
जब विद्रोही -स्वरगीत -प्रशस्ति लगे रचनें
जब प्रतिभा ठेकेदारों के घर पलती है
जब मन -त्रजुता का अर्थ अनाड़ी से बदला
जब कविता कुछ प्रचलित सांचों में ढलती है
फिर मेरा मन भी भटक जाय यदि कभी
प्रिया के द्वारे तक -तो इसमें क्या विस्मित होना
मेरे विनाश पर क्या रोना ?

जब रूप देह की कान्ति न हो श्रृंगार बना
जब प्यार सिर्फ सुविधाओं के बल पलता है
जब मन की धड़कन नाम नजाकत का पाती
जब हर सीता को सोनें का मृग छलता है
जब मूक हो गये भीष्म पेट की मांगों से
जब सती द्रोपदी पंच -प्रिया बन जाती है
दो बूँद -बूँद सुरा के ले यदि मैं भी बैठा
तन मन की थकन मिटानें को -तो इसमें क्या -विस्मित होना
मेरे विनाश पर क्या रोना ?






No comments:

Post a Comment