Wednesday, 29 November 2017

गौरैय्या स्मृति

उस दिन छत पर लेटे संध्या की द्वाभा में
मैं सोच रहा था कुछ सुख दुख की बात लिखूं
स्वर दे दूँ किसी विरहनी की मन पीड़ा को
उसके जलते दिन और तड़फती रात लिखूं
काजल कोरों से छलक रही जलकणिका का
मैं दर्द भरा इतिहास लिखूं
या पलक बिछाये प्रियतम के पथ पर आतुर
मैं दो नयनों की आश लिखूं
या मिलन गीत लिख डालूं किसी माननी के
जो रूठ रूठ कर अपना मान बढ़ाती है
यौवन के कुसुमित सुमन प्यार की प्रतिमा पर
जो मुक्त भाव से दोनों हाँथ चढाती है
हिमधारा सी कल कल छल छल
तरुणीं का मादक हास लिखूं
जो रन्ध्र रन्ध्र में व्याप्त सहज
प्राणों की अविचल प्यास लिखूं
अंकित कर दूँ मैं खिली कली से अधर लाल
प्रिय के चुम्बन की आतुर व्यग्र पुकार लिये
या लिखूं जवानी की उद्धत अंगड़ाई पर
जो लहर लहर में जीवन की ललकार लिये
संध्या की लम्बी छाहों में यों सोच -सोच
मैं मन में अपना सोया अलख जगाता था
कल्पना -वारि से सींच पौद नव भावों की
मन के आँगन में चुन चुन पड़ा लगाता था |
पर तभी एक कोनें उठ आयी बदली
छा गयी गगन के शून्य नील विस्तारों पर
झुक उमड़ -घुमड़ नीचे को पंख पसार चली
जैसे माटी से प्यार नहीं हो तारों पर
मैं खाट खींचकर छज्जे के नीचे लाया
इसलिये कि नन्हीं बूंदों का काफिला उतर कर आया था
जो रिक्त नहीं होते नीचे ही चलते हैं
जाना माना यह स्वर मुझसे टकराया था
थी कितनी भारवान बदली
इसका मुझको तब भान हुआ
फट चलीं नालियां पानी से
शीता तिरेक का भान हुआ
रुक गया काम ,थम गया नगर
वर्षा संगीत लगा बजनें
श्यामल बदली के आँचल पर
विद्युत् की रेख लगी सजनें
फिर हहर घहर तड़ तड़र तड़र
मघवा का वज्राघात हुआ
सिय के वियोग में निबल राम का
फिर से कम्पित गात हुआ
तब त्वरित चीरते बूंदों को (भीगे पर से )
गौरैया उड़कर एक कहीं से आयी थी
पैरों की पाटी पर निशंक होकर बैठी
फड़फड़ा पंख तन में भर ली गरमाई थी
रोमांचित से नन्हें तन का निचला हिस्सा
भूरी चादर से ढका ढका सा लगता था
उसके पैरों की फुदक बताती थी अब तक
दिल में कोई भारी सा खटका जगता था
भोली आँखें भी घूम घूम
अन्दाज ले रही थीं सारा
कोई बन्धन तो नहीं कहीं
हो पड़ा न कोई हत्यारा |
मैं निश्चल होकर पड़ा रहा
मन में करुणा का भाव लिये
विश्वास खो चुके मानव का
अभिशाप लिये उर -घाव लिये
मन में वात्सल्य उमड़ आया
नन्हें प्राणों पर छाँह करूं
भोले निरीह लघु जीवन पर
अपनी रक्षा की बांह धरूँ
अपनी गुड़िया सा उठा गोद में ले बैठूं
मन में विश्वास जगानें को
फिर ढकूँ शाल से बेटी मैं
जाड़े की लहर भगानें को
निः सीम प्राण भेदी करुणां
थी रोम रोम में व्याप्त हुयी
हलकी सी झलक आदि कवि के
अनुभव की मुझको प्राप्त हुयी |
क्षण के शतांश में भेद गया
स्थावर जंगम का अन्तर
खुल गया पृष्ठ पर लिखित लेख सा
मानव मन का अभ्यन्तर
हम सभी प्रकृति के पुत्र
तीन चौथाई धरती पानी है
फिर क्या मानव को सदा
रक्त से अपनी प्यास बुझानी है
अम्बर से झरते झरनें सा
जलधर झरता ही जाता था
नन्हें पक्षी का नन्हा दिल
भय से भरता ही जाता था
पैरों का हल्का सा कम्पन (था मुझे पता )
पक्षी को दूर भगायेगा
बूंदों की बौछारों से विंध
किस ओर कहाँ वह जायेगा
इसलिये पड़ा था मैं निश्चळ
जीवन का भान न हो पाये
निर्जीव काठ सा पड़ा रहूँ
मानव का -भान न हो पाये
जो अनाहूत लघु अतिथि
आज मेरी पाटी पर आया है
भारत के उस स्वर्णिम अतीत का
मूक सन्देशा लाया है
ओ नभचरी उपगुप्त
तुम्हारे लिये हृदय में उठा प्यार
निस्पन्द मौन मैं पड़ा रहा
मन ही मन करता नमस्कार
हँसनें दो जो भावना -शून्य जड़ आलोचक
जो बहती नदी सूखा कर रेत बनाते हैं
जो जीवांकुर को देख उभरता माटी से
विष बुझी कुदालें ले जड़ से खुदवाते हैं
हंसने दो उन पाषाण हृदय इन्सानों को
जिनकी छाती नें प्यार नहीं जाना साथी
जो लाशों की दीवारों पर घर पाट रहे
जिनकों न प्रेम की राह कभी आना साथी
लो नील गगन का वह कोना
धुल पुंछ कर साफ़ निखर आया
बदली का सरस कलेवर भी
रिस रिस कर तनिक निखर आया
हो गयीं फुहारें भी धीमीं
पंखों पर तोल लगा तुलनें
आशा की दीप्ति -दिवाली में
भय का तम -तोम लगा घुलनें
जा अतिथि ,पवन का देश
कहीं तेरा प्रिय तुझे बुलाता है
कुसमय की बेला चली टली
गा गा कर विगत भुलाता है
यह एक घड़ी का साथ
बड़े साथों में माना जायेगा
मेरे जीवन के महत क्षणों में
यह क्षण जाना जायेगा
ओ देव दूत , बनकर उतरा
तू मेरे लिये सितारा है
निश्चळ क्षण भर का साथ
मुझे सारे साथों से प्यारा है
उस घड़ी जिया मैं जो जीवन
उसमें मानव की आशा थी
उस मूक क्षणों में मुखर
गान्धी की ईसा की भाषा थी
जब कभी सबल का निर्बल पर
नंगा भाला उठ जायेगा
दो क्षण का दैवी साथ , मित्र
मेरी स्मृति पर छायेगा |





No comments:

Post a Comment