Thursday, 30 November 2017

                      मोक्ष ,निर्वाण ,कैवल्य या दिव्य समाधि की धार्मिक -दार्शनिक धारणायें जीवन सम्पूर्णतः को पानें का श्रेष्ठतम मानव प्रयास ही है | पूर्णत्व की संकल्पना विभिन्न सन्दर्भों में परिवर्तन के माध्यम से गुजरती रहती है | श्रष्टि संचालन के पीछे छिपी किसी दिव्य और रहस्यात्मक शक्ति की अवधारणां नें मनुष्य को उत्कर्ष के ऊर्ध्वगामी पथ पर संचालित कर पूर्णत्व प्राप्ति के लिये प्रेरित किया है | ऊंचाई की ओर ले जानें वाला यह मार्ग सराहनीय और चुनौती भरा तो है पर इसमें मानव अन्तर्मन में रमण कर अद्भभुत  आनन्द पानें के सुअवसर भी प्राप्त होते हैं | शब्द को ब्रम्ह इसीलिये कहा गया है क्योंकि सार्थक पुकार पर ही परम प्रकृति अपना आश्रय देनें के लिये प्रेरित होती है | इसीलिये प्राणवान शब्दशिल्पी स्वयं में किसी दिव्य रहस्य की सम्भावना छिपाये रहता है | वेद मन्त्र ,ऋषियों की ऋचायें और मुनियों के मन्त्र शब्द साधना के वे उच्चतर सोपान हैं जिनपर चढ़कर मानव मन प्रकृति नियमन के पीछे छिपे गूढ़ रहस्यों का आभाष पा जाता है | हम सभी जानते हैं कि जो जन्मा है वह जायेगा ही पर जानें का भय यदि निरन्तर मानव को ग्रसता रहे तो वह अकर्मण्यता की गोद में जा बैठता है | इसलिये मृत से अमृत की ओर जानें की प्रार्थना करते हैं | मृत्यु के भय को भूलजाना मृत्यु पर विजय पाना है | भय जब पैनिक विचार बन जाता है तो हाँथ पाँव फुला देता है और बुद्धि बौनी हो जाती है | इसीलिये मृत्यु का भय शब्द ब्रम्ह की अमृत साधना के द्वारा सकारात्मक रूप ले लेता है और अपनें जीवन काल में कुछ ऐसा करनें के लिये प्रेरित करता है जो म्रत्युन्जय हो | काल के कपाल पर अकाल लेख लिखनें की शक्ति जिन महापुरुषों में होती है वे ही मृत्यु की सर्वजयी विजय यात्रा को चुनौती दे पाते हैं | 'माटी ' इसी अमृत्व की भावना का प्रतीक है | वह सनातन है ,शाश्वत है ,कालजयी है और निरन्तरता का अमिट सूत्र है | कुम्भकार आते हैं ,माटी को रचते , संवारते हैं और पात्रों ,घटों तथा श्रृंगारिकाओं का संयोजन करते हैं | पर घट ,पात्र ,खिलौनें और प्रतिकृतियां विनिष्ट हो जाती हैं पर 'माटी ' तो केवल रूप बदलती है | और इस द्रष्टि से आत्मा के अमरत्व का प्रतीक है | सम्भवतः कबीर के इस दोहे में सामान्य अर्थ के अतिरिक्त एक रहस्य पूर्ण अर्थ भी निहित है | " माटी कहै कुम्हार से ,तू रौंदत है मोहि ,इक दिन ऐसा आयेगा ,मैं रौंदूँगी तोहि | "
पर इन असंख्य कुम्भकारों में कुछ ऐसे शिल्पी भी हैं जिनके हांथों में पड़कर 'माटी ' फूली नहीं समाती | उन्हें वह रौंदती नहीं बल्कि चन्दन बनकर उन्हें सुशोभित करती है और मानव इतिहास में उनकी विरासत को युगों -युगों तक पूज्य बना देती है | कब और कहाँ ,कैसे और किस प्रक्रिया से ज्ञान -विज्ञान के क्षेत्र में कोई युगान्तरकारी प्रतिभा उभर आयेगी इसका उत्तर न तो अभी ज्योतिष दे पायी है और न ही विश्व की कोई दार्शनिक व्याख्या | यह अदभुत रहस्य ही तो मानव जाति को और सम्भवतः प्रत्येक संकल्पित परिवार को उत्कर्षता की ओर प्रेरित कर संघर्षरत रखता है | कौन जानें कब कुल परम्परा में कोई भगीरथ आ जाय |
                                          ये सच है कि जन्मजात प्रतिभा पर रहस्यमय आवरण पड़ा रहता है पर यह भी सच है कि यदि जन्मजात प्रतिभा को परिमार्जित कर निखारनें का प्रयास न किया जाय तो उसे उन ऊंचाइयों तक नहीं पहुंचाया जा सकता जिसकी सम्भावनायें उसमें छिपी होती हैं | साहित्य के क्षेत्र में या यों कह लें कि ललित कलाओं के क्षेत्र में शिक्षण और परिमार्जन एक प्रासंगिक आवश्यकता ही बन पाते हैं पर विज्ञान और  तकनीक के क्षेत्र में उनकी सार्वभौम सार्थकता से इन्कार नहीं किया जा सकता | और हमें यह भूलना नहीं चाहिये कि विज्ञान , नाभिकीय ,गणित और रहस्य भेदक तकनीक भी परम सत्य को पानें का प्रयास ही है | यही कारण है कि विश्व के सभी सभ्य देश शिक्षा की गुणवत्ता के प्रति अत्यन्त सचेत रहते हैं | प्राचीन भारत में उपनिषद् काल में हम इस विशेषता का आश्चर्यजनक प्रसार और परिणाम देख पाते हैं | यही कारण है कि उस काल में उस समय के जानें गये ज्ञान -विज्ञान आयामों में भारत नें अपना अद्वितीय स्थान बनाया था फिर दिव्य ऊंचाइयों से फिसलन की प्रक्रिया प्रारम्भ हुयी और कुछ छोटे मोटे काल के लिये किसी असाधारण व्यक्तित्व के आ जानें के कारण कुछ ठहराव भले ही दिखायी पड़ा हो पर आखिरकार यह फिसलन हमें तलहटी तक ले आयी | पुनर्निर्माण और पुनर्जागरण की नयी श्रष्टि का आधार श्रेष्ठ शिक्षा का ढांचा ही प्रदान कर सकता है  | स्वतन्त्रता के प्रारम्भिक दिनों में एक दो प्रतिशत उच्च शिक्षा प्राप्त भारतीय अपनें को मात्र पाश्चात्य मूल्यों से ही मापते रहे |महात्मा गांधी के प्रभाव नें उन्हें थोड़ा बहुत देश की माटी के नजदीक खींचकर खड़ा किया पर गांधी जी के महानिर्वाण के बाद हम फिर कृत्रिम सुगन्धों में सांस लेनें के आदी  हो गये | तकनीकी ज्ञान ,प्रद्योगकीय , नाभिकीय ,प्रसारकीय और जैवकीय इन सभी क्षेत्रों में हमें भारत की उर्वरा धरती से जीवन्त तत्वों को लेकर उन्हें भारतीयता से महिमा मण्डित करना है | ज्ञान -विज्ञान की यह बहुमुखी विपुल -रूपा शाखायें हमारी अपनी माटी  में जड़ें जमाकर जीवन रस पायें और हमारी अपनी समस्याओं का निदान करें यह हमारा प्रयास होना चाहिये | यदि भारत का पाश्चात्यीकरण हमें जीवन मूल्यों और संस्कारों से दूर हटाता है तो हमें उस पाश्चात्यीकरण का भारतीयकरण करना होगा | यह एक अत्यन्त दुष्कर कार्य है | हमें इसके लिये गोपाल कृष्ण गोखले ,रवीन्द्र नाथ ,जगदीश चन्द्र बसु ,सी ० वी०  रमन और अब्दुल कलाम जैसे अद्धभुत प्रतिभा और व्यक्तित्व सम्पन्न श्रेष्ट पुरुषों की आवश्यकता है | भारतीय संस्कृति यह मानती है कि प्रभु कृपा के बिना सारे प्रयास प्रत्यासित सफलता तक नहीं पहुंचते इसीलिये माटी प्रकृति के नियन्ता शक्तियों के प्रति नत -मस्तक होकर इस प्रयास में रत  है कि वह श्रेष्ठता के परिवर्धन संशोधन में एक उत्तरदायी भूमिका निभा सके | न तो मानव पूर्ण है और न मानव के प्रयास पर अपनी अपूर्णता  में ही पूर्णता  के प्रति प्रयासरत रहना जीवन्त संस्कृति का लक्ष्य होता है | पाठकों ,रचनाकारों और आलोचकों का त्रिकोणीय सहयोग ही माटी को एक ज्यामितीय आकार प्रदान कर सकेगा ऐसा मेरा विश्वास है |
                                       

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