Friday, 1 December 2017

                               आंग्ल भाषा का यह त्रिशब्दी कथन " Knowledge is Power " आज के युग में जितना सार्थक है उतना शायद मानव इतिहास के किसी काल में नहीं रहा है | ज्ञान -विज्ञान के अभूतपूर्व प्रचार -प्रसार के कारण ज्ञान -विज्ञान का साहित्य अब अध्ययन -अध्यापन की द्रष्टि से प्राथमिकता पा चुका है | ललित साहित्य अब बहुत कुछ फिल्मों ,टी ० वी ० ,शोज ,ग्लैमर ,एडवरटाइजमेंट्स ,और हल्के -फुल्के हास -परिहास की क्षणिकाओं में सिमटता जा रहा है | मेरा मानना है कि ललित साहत्य और ज्ञान -विज्ञान के साहित्य के बीच कोई ऐसी विभाजक रेखा नहीं होनीं चाहिये जो दोनों को एक दूसरे से अलग कर दे | ललित साहित्य का सहारा लेकर ज्ञान -विज्ञान भारत के घर -घर ,गाँव -गाँव में अपनी पहुँच बना सकता है | शुष्क तथ्यों को और जटिल सूत्रों को नीरसता का बोझ दबा देता है और वे सहज स्वीकृति नहीं पाते | आवश्यकता है ज्ञान -विज्ञान के ऐसे समर्थ अधिकारी विद्वानों की जो बोध गम्य भाषा के द्वारा उदाहरणों , किस्सा -कहानियों और भारतीय परम्परागत धार्मिक विचारधाराओं से आज की नयी खोजों और विश्व स्वीकृत मूल्यों को जन मानस तक पहुंचा सकें | मुझे लगता है कि विज्ञान को बालकों और किशोरों में मनोरंजक ढंग से पहुचानें के लिये विज्ञान की धारणाओं पर आधारित ललित साहित्य के सृजन की बहुत अधिक आवश्यकता है | इसे एक राष्ट्रीय चुनौती के रूप में स्वीकार करना होगा | पश्चिम के देशों में तथा जापान और चीन में भी विज्ञान पर आधारित प्रचुर ललित सामग्री उपलब्ध है पर हिन्दी भाषा में इस दिशा में समर्थ प्रयास देखनें को नहीं मिल रहे हैं | इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि हिन्दी भाषा -भाषी क्षेत्र में वैज्ञानिक सोच अभी जीवन के सहज धरातल पर उतर कर व्यवहार के रूप में नहीं ढल पायी हैं | कोई भी ज्ञान जब तक हमारी सोच का अविभाज्य अंग नहीं बनता तब तक उसे ललित साहित्य के माध्यम से व्यक्त करना काफी दुष्कर होता है | Robot को लेकर लिखी जानें वाली कहानियां ,वार्तायें और नाटकीय रचनायें प्राणवान नहीं बन पातीं क्योंकि रोबोट का किताबी ज्ञान हमारे सामान्य व्यवहार में कहीं परिलक्षित नहीं होता | ऐसा इसलिये भी है क्योंकि अभी हम अत्याधुनिक वैज्ञानिक सुविधाओं से अपरचित ही हैं | परिचय है भी तो केवल सतही किताबों ,द्रश्य चित्रों और अर्धकचरी चर्चाओं के माध्यम से | रोबोट की कौन कहे अधिकाँश हिन्दी भाषा -भाषी क्षेत्र के समर्थ शब्दकार अभी तक Email ,Internet और Broad Band जैसी आधुनिक संचार प्रणाली के सामान्य ज्ञान से भी वंचित हैं | इस दिशा में घर -घर तक दूर संचार प्रणाली के साधनों को पहुंचाने का भारत सरकार का प्रयास निश्चय ही सराहनीय है | समाजशास्त्र के अध्येता आज एक स्वर में यह कहते सुनें जाते हैं कि मानव की सोच उसके आस -पास के वातावरण और उसकी व्यक्तिगत तथा उसके समाज की साझा परिस्थितियों से बनती बिगड़ती है | मनुष्य की सोच शून्य से गिरने वाला कोई ऐसा फल नहीं है जो उसे एकान्त में मिल जाय | Technocracy के आज के युग में हमें अपनी प्राचीन पूजा पद्धतियों को भी नवीन भेष -भूषा में सजा बजा कर प्रस्तुत करना पड़ रहा है | महेश योगी ,रविशंकर ,स्वामी रामदेव तथा भगवान् अघोरेश्वर सभी अपनी साधना पद्धतियों को वैज्ञानिक आधार देनें में प्रयासरत हैं और इसमें उन्हें काफी सफलता मिली है | पाश्चात्य जगत भी उनकी खोजों के प्रति आश्वस्त दिखायी पड़ रहा है | अब गुफाओं के स्थान पर योग साधना के लिये Air Conditioned हाल चुनें जानें लगे हैं और वन्य प्रान्तरों का एकान्त Hill Resorts में बदल चुका है | शरीर की संचालन प्रक्रिया के नाप -तौल के लिये हमनें आधुनिक मेडिकल इन्स्ट्रूमेंट्स को अपना लिया है और ऐसा करना उचित भी है क्योंकि विकास की गति सत्य प्राप्ति की नवीन खोजों को स्वीकार कर लेनेँ से ही संम्भव होती है | वैज्ञानिक चिन्तन हमारे रहन -सहन ,खान -पान ,रीति -रिवाज ,उत्सव -समारोह और हमारी जीवन -मृत्यु सम्बन्धी धारणाओं पर भी एक कल्याणकारी नजर डालनें में समर्थ है | बिना गहरायी से जांच किये सभी कुछ स्वीकार कर लेना हानिकारक हो सकता है पर बिना गहरायी जांच किये बहकावे में आकर किसी अच्छी प्रथा को छोड़ देना भी हानिकारक हो सकता है | इसलिये प्रज्ञा युक्त तर्क और संशोधन के लिये सहज मनोवृत्ति बना कर ही हम अपनी परम्पराओं की उपादेयता की पहचान कर सकते हैं | जिस प्रकार सोच आकाश से नहीं गिरती वैसे ही परम्परायें भी किसी ईश्वरीय विधि -विधान से बनकर नहीं आती हैं | विश्व के सभी श्रेष्ठ समाजशास्त्री आज इस बात पर सहमत हैं कि बीते कल में किसी मानव समाज के लिये जो उपयोगी था वह आज हानिकारक भी हो सकता है | प्रथायें ,मान्यतायें ,परम्परायें और यहां तक कि नैतिक अवधारणायें भी बहुत कुछ समय की देन होती हैं | सहस्त्रों वर्षों की विकास प्रक्रिया में मानव सभ्यता न जानें कितनें टेढ़े -मेढ़े मार्गों से गुजर कर आयी है | हजारों लाखों मनुष्यों की नर -वलियां , हजारों लाखों नारियों का शरीर शोषण और हजारों लाखों धर्म मन्दिरों और संस्कृति स्मारकों का तहश -नहश मानव इतिहास का एक दुखद पहलू रहा है | इतिहास के अध्येता जानते हैं कि उजले पखवारे अधिक समय तक नहीं टिक पाये जब कि अन्धेरे का राज्य अटूट -रूप से चलता रहा है | इस प्रकार की व्यवस्था में विशिष्ट भौगोलिक परिस्थितियों में और अपनें समय के ऐतिहासिक सन्दर्भों में जीवन ,सम्पत्ति और मर्यादा की रक्षा के लिये नये -नये नीति विधान बनाये गये | अनेक आचरण पद्धतियाँ विकसित की गयीं और नर -नारी संम्बन्धों को नयी -नयी व्याख्याओं में प्रस्तुत किया गया | यह ठीक है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद अभी तक युद्ध की विश्व व्यापी विभीषका से हम बचे हुये हैं पर छोटे -मोटे पचासों युद्ध तो दुनिया में होते ही रहे हैं और होते ही रहेंगें | भारत विभाजन की विभीषका नें लाखों पंजाबी घरों में नयी सोच का संचार किया क्योंकि अपनी प्रगति और स्थापना के लिये उन्हें नये सामाजिक बन्धनों की आवश्यकता थी | लाखों भारतीय आज योरोप ,अमरीका और विश्व के अन्य देशों में जाकर और बस कर अपनी सोच में परिवर्तन लानें की आवश्यकता को माननें पर विवश हो रहे हैं | जैसे -जैसे हिन्दी भाषा -भाषी समाज में आर्थिक प्रगति का विस्तार होगा और जैसे -जैसे टेक्नालाजी पर आधारित उनकी जीवन शैली विकसित होगी उनकी रचनाधर्मिता में परिवर्तन आना प्रारम्भ हो जायेगा | हम अपनें पुरानें  और श्रेष्ठ रचनाकारों का आदर करेंगें और अपनें समय के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में लिखे गये उनके साहित्य के मूल्यों का सही आंकलन करेंगें पर हमें अपनी पीढ़ी और अपनें युग के लिये नये मूल्यों की तलाश भी करनी होगी | किसी युग में बहु पत्नी प्रथा शायद समाज के लिये कल्याणकारी रही हो पर आज तो निश्चय ही यह विनाशकारी है | किसी युग में अबाध वंश वृद्धि शायद कल्याणकारी रही हो पर आज तो यह निश्चय ही वांछनीय नहीं है | किसी युग में छुआ -छूत की प्रथा शायद सामाजिक सन्दर्भों में सार्थक रही हो पर आज तो वह निरर्थक बोझ ही है | किसी युग में अंग्रेजी का ज्ञान पश्चिमी दासता का सूचक रहा हो पर आज तो वह निश्चय ही ज्ञान -विज्ञान की प्रगति के लिये आवश्यक है | ऐसी ही अनेक धारणायें और मान्यतायें परिवर्तन की मांग करती हैं | अनावश्यक पशु बलि ,अपढ़ ओझाओं और तान्त्रिकों में अंध विश्वास ,प्रकृति के स्वाभाविक कार्यक्रम से होनें वाले परिवर्तनों को किसी विशिष्ट मानव समूह के कर्मों का फल बताना यह सभी बातें वैज्ञानिक चिन्तन पर ही अपना खरा खोटापन साबित कर सकती हैं | पुरातन संस्कृति को भी नयी शक्ति पानें के लिये नये आसवों की आवश्यकता है | 'माटी ' नूतन और पुरातन का आदर्श समन्वय चाहती है | घर के बड़े -बूढ़े विवेक पूर्ण मार्ग दर्शन करते रहें और उनके बताये राह पर ओज भरी तरुणाई चलती रहे तभी किसी गृह का संचालन सफल माना जाता है | हिन्दी भाषा -भाषी क्षेत्रों के लिये भी अपनें प्राचीन और कालजयी मूल्यों की अगुवाई में नवीन नैतिक अवधारणाओं को शामिल करना होगा तभी निकट भविष्य में प्रगति की गाथा लिखी जानें लायक सफलता मिल सकेगी | हजारों वर्षों के लम्बे इतिहास में लाखों वर्ग मील फैले भारतीय महाद्वीप में बहुत कुछ ऐसा भी है जो शायद अब निरर्थक हो गया है | हम उसे बटोर कर एक कोनें में रख देंगें | जो नयी विचार सामग्री हमें आज जीवन यापन के लिये आवश्यक लग रही है उसे हम स्वीकार कर एकत्रित करेंगें | पर समय परिवर्तनशील  है | कोनें में बटोर कर रखे हुये साज -सामान में से कौन सी चीज कल हमारे काम आ जाये ऐसा ध्यान भी हमें रखना होगा | इसी प्रकार आज के सहेजे मूल्यों में आने वाले दिनों में कौन सा मूल्य निरर्थक हो जाय ऐसा माननें के लिये भी हमें तैय्यार रहना होगा |
                                           यूनानी साहित्य की बहुचर्चित गाथाओं में सिसीफस की कहानी से आप परिचित ही होंगें | सिसीफस पहाड़ की चोटी पर बार -बार पत्थर के एक विशाल टुकड़े को गोलाकार बनाकर टिकाना चाहता था | आकार देनें में तो उसे सफलता मिल जाती थी पर ज्यों ही वह गोलाकार विशाल प्रस्तर की निर्मित चोटी पर टिकाता वह वर्तुल आकार लुढ़क कर नीचे पहुँच जाता | जीवन भर सिसीफस इस कठिन कार्य में लगा रहा पर हर बार उसका यह प्रयास लुढ़कन की राहों से चलकर तलहटी में पहुँच गया | आज के युग में सिसीफस को विशालकाय वर्तुल प्रस्तर खण्ड को टेक्नोलाजी की मदद से उत्तुंग शिखर पर टिका देनें की सफलता मिल जाती | बीते कल की कल्पना उड़ानें आज का ठोस सत्य बन रही हैं | ' माटी 'ईश्वर की अपार कृपा में विश्वास रखती है और' माटी' परिवार प्रभु से माँगता है कि उसके द्वारा तराशी गयी शब्द आकृतियां आदर्श की ऊंचाइयों पर स्थायी रूप से टिकी रहें | ' माटी  ' परिवार सम्पूर्ण हिन्दी भाषा -भाषी क्षेत्र को अपनी बाँहों में समेट ले |

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