कौन जानें ?
तुम उभर कर शीर्ष पर आ गये
कह रहे हो
दाल ,घी ,चीनी ,मसाला
खिसक कर नीचे गिरेंगे
चून ,चावल ,तेल, नुनिया
मुक्त होंगें गिद्ध पंजी
पकड़ से |
नीतियां आर्थिक तुम्हारी तोड़ देंगीं
कोटि पर कोटे
जहां कालुष लपेटे
पाप की संचित कमाई
पनपती है |
पर अभी कुछ वर्ष पहले
शीर्ष पर ही थे खड़े तुम
उस समय कैसी छरहरी
छवि तुम्हारी लग रही थी |
कुछ बरस के बाद
तुम कैसे वृकोदर बन गये ?
समझ में आती नहीं यह गहन गुत्थी |
आज बैठे शीर्ष पर जो
कल हमारे साथ ही
नीचे खड़े थे
ठीक जैसा कह रहे हो तुम
वही दोहरा रहे थे
हर गली ,कूचे ,सभा ,उद्यान में
उस समय उनका उदर
वक्ष से कुछ इन्च
नीचे लग रहा था
आज पर वे ही वृकोदर हो गये हैं |
क्या करें हम सब
कमेरे कर्मचारी
कृषक ,कारीगर
सुबह अखबार के हाकर हजारों
बस हमें तो घास की ही भांति
केवल रौंद जानें की
नियति ही मिल सकी है |
बस हंसी के गुजरते कुछ क्षण
हमें जनतन्त्र की यह व्यवस्था
देती रही है
और ऐसा लग रहा है अब
कि शायद मुस्करानें पर
मुसक्कों की नयी तरकीब
सोची जा रही है |
चिरन्तन फाग
लड़खड़ाते हैं कदम जब ,बांह देते हो ,
मगर मैं बांह लेकर क्या करूँगां ?
बांह है करुणां मगर सहमति नहीं है
बांह मानवता मगर सहगति नहीं है
यदि संभल जाऊं अकेला छोड़ दोगे
राह का सम्बन्ध भी तो तोड़ दोगे
तड़फड़ाते प्राण हैं जब ,छाँह देते हो
मगर मैं छाँह लेकर क्या करूँगा ?
छाँह संगम तो नहीं भ्रम मात्र है
छाँह ढलती धूप का क्रम मात्र है
यदि तड़प टूटी ,न शीतल छाँह दोगे
यदि कदम संभले ,न गोरी बांह दोगे
घेरता वैराग्य है जब ,चाह देते हो ,
मगर मैं चाह लेकर क्या करूंगा ?
चाह तो मन की धधकती आग है
रास का सुख तो चिरन्तन फाग है
तुम बुलाकर दूर हट जाते मगर
कौन चलता प्यार की सूनी डगर ?
टेरता है प्राण -पिक जब ,राह देते हो ,
मगर मैं राह लेकर क्या करूंगा ?
राह भटकन जो न तुम तक जा सके
राह निष्फल जो न तुमको पा सके
पर झलक देकर न मिलते तुम कभी
निठुर ,होते क्या तुम्हीं से प्रिय सभी ?
टेरनें दो प्राण पिक ,लड़खड़ाने दो कदम
पर न प्रिय तुम बांह देना
पर न प्रिय तुम छाँह देना
हाँ तनिक ,केवल तनिक सी चाह देना |
तुम उभर कर शीर्ष पर आ गये
कह रहे हो
दाल ,घी ,चीनी ,मसाला
खिसक कर नीचे गिरेंगे
चून ,चावल ,तेल, नुनिया
मुक्त होंगें गिद्ध पंजी
पकड़ से |
नीतियां आर्थिक तुम्हारी तोड़ देंगीं
कोटि पर कोटे
जहां कालुष लपेटे
पाप की संचित कमाई
पनपती है |
पर अभी कुछ वर्ष पहले
शीर्ष पर ही थे खड़े तुम
उस समय कैसी छरहरी
छवि तुम्हारी लग रही थी |
कुछ बरस के बाद
तुम कैसे वृकोदर बन गये ?
समझ में आती नहीं यह गहन गुत्थी |
आज बैठे शीर्ष पर जो
कल हमारे साथ ही
नीचे खड़े थे
ठीक जैसा कह रहे हो तुम
वही दोहरा रहे थे
हर गली ,कूचे ,सभा ,उद्यान में
उस समय उनका उदर
वक्ष से कुछ इन्च
नीचे लग रहा था
आज पर वे ही वृकोदर हो गये हैं |
क्या करें हम सब
कमेरे कर्मचारी
कृषक ,कारीगर
सुबह अखबार के हाकर हजारों
बस हमें तो घास की ही भांति
केवल रौंद जानें की
नियति ही मिल सकी है |
बस हंसी के गुजरते कुछ क्षण
हमें जनतन्त्र की यह व्यवस्था
देती रही है
और ऐसा लग रहा है अब
कि शायद मुस्करानें पर
मुसक्कों की नयी तरकीब
सोची जा रही है |
चिरन्तन फाग
लड़खड़ाते हैं कदम जब ,बांह देते हो ,
मगर मैं बांह लेकर क्या करूँगां ?
बांह है करुणां मगर सहमति नहीं है
बांह मानवता मगर सहगति नहीं है
यदि संभल जाऊं अकेला छोड़ दोगे
राह का सम्बन्ध भी तो तोड़ दोगे
तड़फड़ाते प्राण हैं जब ,छाँह देते हो
मगर मैं छाँह लेकर क्या करूँगा ?
छाँह संगम तो नहीं भ्रम मात्र है
छाँह ढलती धूप का क्रम मात्र है
यदि तड़प टूटी ,न शीतल छाँह दोगे
यदि कदम संभले ,न गोरी बांह दोगे
घेरता वैराग्य है जब ,चाह देते हो ,
मगर मैं चाह लेकर क्या करूंगा ?
चाह तो मन की धधकती आग है
रास का सुख तो चिरन्तन फाग है
तुम बुलाकर दूर हट जाते मगर
कौन चलता प्यार की सूनी डगर ?
टेरता है प्राण -पिक जब ,राह देते हो ,
मगर मैं राह लेकर क्या करूंगा ?
राह भटकन जो न तुम तक जा सके
राह निष्फल जो न तुमको पा सके
पर झलक देकर न मिलते तुम कभी
निठुर ,होते क्या तुम्हीं से प्रिय सभी ?
टेरनें दो प्राण पिक ,लड़खड़ाने दो कदम
पर न प्रिय तुम बांह देना
पर न प्रिय तुम छाँह देना
हाँ तनिक ,केवल तनिक सी चाह देना |
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