Tuesday, 28 November 2017

                                  अर्नाल्ड ट्वायनवी ,नोबेल विजेता इतिहासकार की मान्यता है कि कोई देश विदेशी तकनीक ,विदेशी भेष -भूषा ,विदेशी खान -पान और जीवन निर्वाह की विदेशी शैली स्वीकार कर लेता है तो उस देश में रहनें वाले मानव समाज के मूल्य बोधों में भी परिवर्तन हो जाता है | इस परिवर्तन में एक लम्बा समय लग सकता है क्योंकि किसी भी देश का सम्पूर्ण समाज एक साथ विदेशी विचारधारा की समग्र पकड़ में नहीं आता | कई स्तरों पर और कई खण्डों में यह परिवर्तन चलता रहता है | यही कारण है कि कई बार शताब्दियों तक संविधान में लक्षित जीवन मूल्य जन समुदाय के एक विशाल हिस्से के भाग नहीं बन पाते | ट्वायनवी नें मानव सभ्यता के भिन्न -भिन्न कालखण्डों से उदाहरण प्रस्तुत कर अपनी बात को वैज्ञानिक तर्क पर आधारित करनें का प्रयत्न किया है | बीसवीं शताब्दी के मध्य तक मानव विकास के दिग्गज विद्वान यह मान कर चलते थे कि संस्कृति का सम्बन्ध मानव जाति की भिन्न नस्लों के साथ जुड़ा रहा है | मानव जाति को पांच छह नस्लों में बांटकर उनके साथ संस्कृतियों की भिन्नता को व्याख्यायित करनें का प्रयास होता रहता था | फिर आये वे विद्वान नृतत्वशास्त्री जिन्होनें प्रागैतिहासिक और ऐतिहासिक काल की मिथकों , कल्पनाओं और मृत्यु तथा जीवन से सम्बन्धित अनुमानों को एक दूसरे का पूरक बताया | उनका कहना था कि नस्लवादी सांस्कृतिक व्याख्यायें अवैज्ञानिक हैं | प्रागैतिहासिक काल की बचकानी ,अधपकी पशु मानव चिन्तन पर आधारित अनुमान और कल्पनायें ही मिथकीय रूप लेकर ऐतिहासिक काल में दार्शनिक अवधारणाओं को जन्म दे सकी थीं | इस प्रकार संस्कृति का सम्बन्ध विशिष्ट ,सामान्य या निम्न नस्लों के आधार पर व्याख्यायित करनें का अर्थ सभ्यता की विकास वाली धारणा को जड़ मूल से नकारना होगा | संस्कृतियों की विभिन्नतायें वस्तुतः भौगोलिक , जलवायुकि ,ब्रम्हाण्डीय और जीवन संरक्षणीय कारणों की अपार विभिन्नताओं के कारण अपनें प्रारम्भिक रूप से उदभुत हुयी थीं | सहस्त्रों वर्षों के लम्बे काल में वे एक दूसरे से घुलती -मिलती और टूटती -जुड़ती रहीं | कहीं प्रस्तरण हुआ कहीं संकुचन | कहीं विस्फोटन हुआ कहीं अवगुंठन | इस प्रकार विश्व की कोई भी संस्कृति अपनें में इतनी विशिष्ट नहीं है कि उसे अन्य संस्कृतियों से सर्वथा अलग एक नयी मानव जीवन शैली के रूप में स्वीकार कर लिया जाय | बहुत गहरायी से झांकनें पर हम पायेंगें कि अपनें प्रारम्भिक काल में संस्कृति सभ्यता के साथ अभिन्न रूप से जुड़ी हुयी थी | उदाहरण के लिये मानव द्वारा नग्न शरीर को आच्छादन देनें की क्रिया को ले लीजिये | प्रजनन से जुड़े शरीर के कुछ अंगों को विकास के जिस दौर में मनुष्य नें ढककर सभ्य बननें का प्रयास किया वह प्रागैतिहासिक काल के उस दौर में पहुंचता है जहां मनुष्य वन मानुष से अलग होकर अगले दो पैरों को हाँथ बनानें की आदिम चेष्टा में रत था | सभ्यता की यह प्रक्रिया गोरे ,पीले , काले ,गेहुँए आदि किसी भी रंग या नाक ,आँख  के किसी भी डिजाइन से बिल्कुल मुक्त वनमानुषों की शाखा में से निकल कर आनें वाली आज की मानव जाति की सबसे आदिम पीढ़ी से था | व्यक्तिगत रूप से वहां भी अपार विभिन्नता रही होगी पर सामूहिक रूप से नग्न द्विपद वनचारियों का एक ऐसा समूह अस्तित्व में आ गया था जो सीधे खड़े होकर प्रजनन के लिये प्रयुक्त होनें वाले अपनें शारीरिक अंगों को देख सकता था | धीरे -धीरे शताब्दियों तक चलते हुये प्रजनन व्यापार में उसे यह लगा होगा कि मिथुन की प्रक्रिया अकेले एकान्त में अधिक आनन्ददायक और बाधारहित होती है | प्रजनन के लिये प्रकृति द्वारा बनाये गये इन शारीरिक अंगों को आच्छादन से ढक लेनें में उसे पशुओं से अलग अपनी विशिष्ट पहचान बनानें का एक मार्ग मिल गया | सामूहिक रूप से स्वीकृति हो जानें पर वस्त्र धारण मानव सभ्यता की सबसे सबल आधारभूमि बननें लगा | प्रागैतिहासिक काल में आच्छादन की भिन्नता क्षेत्र विशेष की वानस्पतिक भिन्नता पर आधारित रही होगी | सहस्त्रों वर्षों के विकास क्रम में शरीर का यह आच्छादन सहस्त्रों रूप में अपना रूप रंग बदलता रहा है | इस शारीरिक आच्छादन को हमें किसी संस्कृति विशेष से जोड़कर देखना न तो वैज्ञानिक लगता है और न ही तर्कसंगत | यह समझ में आनें वाली बात है कि प्रारम्भिक अवस्था में शरीर को किसी प्रकार ढक लेना ही आवश्यक होता होगा | और फिर सैकड़ों पीढ़ियों तक मष्तिष्क की तंत्रिकायें विकसित होकर परिधान के नये -नये आकार खोजती रहीं | हाँथ ,पैर ,ग्रीवा ,कटि और वक्ष की बनावट नें विकसित मष्तिष्क से नये परिधान रूपा कटियों की मांग की और इस प्रकार आज संसार के फैशन बाजारों में परिधान का निरालापन सभ्यता और विशिष्टता का प्रतीक बन गया | जो बात वस्त्रों पर लागू होती है वही भोजन की अपार विभिन्नताओं पर भी | बाधारहित प्रजनन नें विपुल श्रष्टि की योजना बनायी और समूहों में बटकर आदिम मानव जाति जीवन का जोखिम उठाती हुयी घनें जंगलों ,गहरे दलदलों ,जलते रेगिस्तानों और ऊँचें पहाड़ों में घूम फिर कर भोजन की सहज उपलब्धता की तलाश करती रही | यद्यपि आज धरती पर आहार की अपार विभिन्नता और चक्राकार विपुलता है पर फिर भी अभी तक सम्पूर्ण मानव जाति को भोजन उपलब्ध करनें की योजनायें फलीभूत नहीं हो पायी हैं | खान -पान की इस विभिन्नता को भी किसी विशेष प्रजाति से जोड़ने का अर्थ आधारभूत कारणों की नासमझी से ही सम्भव है | जो बात भोजन और आच्छादन की विभिन्नता पर लागू होती है वही बात शीत  , आतप और बरसात से बचनें के लिये घरौंदें बनानें पर भी लागू होती है | गुफाओं से निकलकर गुफा नुमां घरौंदें और फिर द्विपदी होनें के कारण ऊंचाई पर पड़ा कोई आवरण जो शरीर को ढक कर भी सिर को सुरक्षित रखे | यह बहुत छोटी -छोटी आदिम क्रियायें मानव सभ्यता का आधार रही हैं | आज आसमान छूती अट्टालिकाओं की बगल में बनें छोटे -छोटे पोलीथीन से ढके घरौंदें जिन्हें हम झुग्गी -झोपड़ी कहते हैं दरअसल मष्तिष्क की एक ही चिन्तन प्रक्रिया से जन्में हैं | यह सोचना कि अट्टालिकायें गोरी संस्कृति का प्रतीक हैं और घरौंदें काली संस्कृति का महज एक बचकानी समझ ही मानी जायेगी | हम अर्नाल्ड ट्वायनवी को सम्पूर्ण रूप से स्वीकार न करते हुये केवल इतना मान सकते हैं कि सभ्यता और संस्कृति निरन्तर एक परिवर्तन शील प्रक्रिया है | पश्चिमी और पूर्वी संस्कृतियां कल तक  बहुत अलग -अलग दिखायी पड़ रही थीं पर आज एक मिली जुली विश्व संस्कृति समाज में उभरकर आती दिखायी पड़ती है | बंगाल के पूर्व मुख्यमन्त्री जब यह कहते हैं कि बाबरी मस्जिद का गिराना एक Barbaric घटना है तो वह सिर्फ यह कहना चाहते हैं कि सभ्य मनुष्य मजहब के नाम पर हिंसा या विध्वंस नहीं करता | आदिम या जंगली जातियां ही ऐसा काम कर सकती हैं | इस सबका अर्थ यह है कि विध्वंस और हिंसा से दूर रहना मानव सभ्यता का एक अनिवार्य गुण होना चाहिये | अहिंसक बुद्ध और अहिंसक गांधी इसीलिये बड़े हैं कि उन्होंने पशु बल को आत्म बल से नियन्त्रित करनें की बात कही है | इसी प्रकार विश्व की किसी भी सभ्यता में चोरी ,परस्त्रीगमन ,और बलात सम्पत्ति हरण निन्दनीय कार्य मानें जाते हैं | स्पष्ट है कि मानव संस्कृति में इनका बहुत महत्वपूर्ण योगदान है और एक सभ्य मनुष्य तभी संस्कृत बनता है जब वह इन निन्दनीय कार्यों से ऊपर उठ जाता है | दरअसल तानाशाही और साम्राज्यवाद के युगों में चिन्तन भी अहंकार की सीढ़ी पर चढ़कर अपना सिर ऊंचा करनें लगता है | | एक युग था जब यूनान की सभ्यता दुनिया में सर्वश्रेठ मानी जाती थी | फिर रोम विश्व सभ्यता का केन्द्र बन गया | साम्राज़्यवादी ब्रिटेन सैकड़ों वर्षों तक यह सोचता रहा कि उसकी सभ्यता ही संसार को सर्वश्रेष्ठ संस्कृति को जन्म दे सकती है | आज सारी दुनिया के आगे उसके अहंकार का खोखलापन साबित हो चुका है | अमरीका का एक वर्ग भी इस गलतफहमी में पड़ गया है कि अमेरिकन सभ्यता ही विश्व संस्कृति का आधार बनेगी | सौभाग्यवश अमरीका में विचारकों का एक शक्तिशाली वर्ग अभी भी स्वस्थ्य चिन्तन में लगा हुआ है | उसे इस बात का अभिमान नहीं है कि दुनिया अमरीका की राह पर चले पर इस बात का आग्रह जरूर है कि दुनिया जनतन्त्र की राह पर चले | अब जनतन्त्र की धारणा पर भी चीन की अपनी दार्शनिक व्याख्या है और ईरान की अपनी | इन विवादों में पड़कर हमें मानव संस्कृति को खण्ड रूपों में नहीं देखना होगा | विश्व संस्कृति का विकास आदिम मानव के अन्तरिक्ष मानव तक विकसित होनें की अमर गाथा है | राष्ट्रीय सभ्यताओं के अपनें अपनें चेहरे हैं | उन चेहरों पर अपनें अपनें टोप , मुकुट , पगड़ियां , टोपियां और केश अलंकृतियाँ हैं पर विश्व संस्कृति का आधार बननें के लिये जो मूलभूत उपादान आवश्यक हैं वे भारत की पावन मिट्टी में जन्में पले हैं और सदैव जन्मते -पनपते रहेंगें | बुद्ध का अष्टमार्ग, गान्धी का अहिंसा दर्शन , नानक का मानव समानता का मूल मन्त्र यही तो है मानव संस्कृति का मूल आधार | यदि पश्चिम इन्हें यह कहकर स्वीकार  करता है  कि ये सब भारत में जन्में हैं तो हम भारतवासी अहिंसा , क्षमा ,और दया के देवता ईसा मसीह को भी भारतीय बना लेनें के लिये सहर्ष प्रस्तुत हैं | सूफी पैगम्बर  शेख सलीम चिस्ती तो हमारे पास हैं ही और यदि जिहादी अपना जनून छोड़ दें तो हम मुहम्मद साहब को भी अपनें गले का हार बना सकते हैं | भारत ही है जिसनें सेकुलरिजम की नास्तिक वादी व्याख्या को नकारा है और उसे सर्व धर्म समभाव में ढाला है | यदि धर्म को हिंसा के द्वार से हटाना है तो भारत की सर्वधर्म समभाव की धारणा ही विश्व को स्वीकार करनी पड़ेगी | कब ऐसा होगा ' माटी  ' नहीं जानती पर ऐसा हुये बिना विश्व संस्कृति का मूल आधार द्रढ़ नहीं किया जा सकता यह बात ' माटी  ' को भलीभांति विदित है | 'माटी ' का हर अंक इस दिशा में एक नयी ईंट जोड़ रहा है | जोड़ने के इस पावन कार्य में आप सबका सहयोग अत्यन्त मूल्यवान है | व्यक्ति कितना भी महान क्यों न हो उसे किसी श्रेष्ठ उपलब्धि के लिये विचारशील समुदाय से सहयोग पानें की आवश्यकता होती है | इस देशी कहावत में एक बहुत बड़ा सत्य छुपा हुआ है , " अकेला चना भाड़ नहीं फाड़ सकता | "यह ठीक है कि कवि गुरू रवीन्द्रनाथ नें एकला चलो ,एकला चलो की आवाज लगायी थी पर उनकी यह आवाज किसी पवित्र लक्ष्य की ओर सम्पूर्ण निष्ठा से समर्पित होनें के लिये ही थी | यदि कोई अकेला भी महान लक्ष्य की ओर अविचल कदमों से बढ़ता है तो उसके पीछे कारवाँ बनता चला जाता है | उर्दू शायर की इस पंक्ति में आत्मविश्वास के साथ गहरी सूझबूझ भी झलकती है , "हम अकेले ही चले थे जानिबे मंजिल मगर ,हमसफ़र मिलते गये और कारवाँ बनता गया | " ' माटी ' परिवार भी अपनें विस्तार की ओर है | हम चाहेंगें कि यह विस्तार एक जनपद से दूसरे जनपद से घेरता हुआ राज्य की सीमाओं तक पहुंचे और फिर राज्य की सीमाओं के आर -पार राष्ट्रीय व्याप्ति का उल्लेखनीय मापांक प्राप्त करे | अब्दुल रहीम खानखाना के दोहे कभी -कभी बड़ी गहरी मार करते हैं क्योंकि उनमें सहयोगी जीवन की अचूक अभिव्यक्ति पायी जाती है | ' माटी  ' में जन्म पाते प्रसून पादप पल्लवित होकर पुष्पित होते जा रहे हैं ,इसकी हमें अपार खुशी है | साहित्यकारों का गोत्र बढ़ते देखकर हम कविवर रहीम के निम्न दोहे से निश्च्छल प्रसन्नता का भाव ग्रहण कर सकते हैं |
                  " रहिमन यों सुख होत है ,बढ़त देखि निज गोत
                     ज्यों बड़ी अँखियाँ निरख ,आँखिन को सुख होत | "

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