Monday, 27 November 2017

               पूँछे गये प्रश्नों के कुछ उत्तर उभरकर मेरी स्मृति पर आ जाते हैं | एक ऐसा ही प्रश्न मैनें अपनी आदरणीयां नानी जी से पूंछा था | वे जब नौ दशक पार कर जीवन यात्रा में आगे बढ़ीं तो कुछ सीखनें के लिये मैनें उनसे प्रश्न किया , ' नानी जी ,बचपन ,तरुणायी ,प्रौढ़ि और वार्धक्य या बुढ़ापा शरीर की इन चार अवस्थाओं का जिक्र तो बार -बार सुननें को मिलता है और देखनें को भी ,पर क्या बुढ़ापे के लम्बे दौर में किसी अन्तिम लक्ष्य की  ओर इंगित करती हुयी शारीरिक अवस्था का आभाष होनें लगता है ? हँसते हुये उन्होंने बताया था कि बुढ़ापे के बाद झुरझुरी आती है | मैं हंस पड़ा था पर अब बढ़ती हुयी उमर के साथ मुझे लगनें लगा है कि बुढ़ापे की शुरुआत से लेकर महा निष्क्रमण तक शरीर की कई अवस्थाओं से गुजरना होता है | प्रत्येक शारीरिक अवस्था मानसिक चिन्तन को अपनें ढंग से गतिमान और रूपायित करती है | बहुत से जीवन मूल्य जो पहले सच लगते थे अब अर्ध सत्य की श्रेणीं में आ जाते हैं | और बहुत से अर्ध सत्य अपनी चमक खोकर पीतल से अधिक मूल्यवान नहीं लगते | ' माटी ' के तरुण -युवा पाठकों को यह जान लेना चाहिये कि जोखिम झेलकर किसी महान उपलब्धि की ओर बढ़ने का सुअवसर तरुणायी के बाद बहुत कम मिल पाता है | मौज और मस्ती तो तरुणायी लाती ही है पर बलिदानी जोश और अमिट आदर्शों की ओर बढ़ने की अटूट निष्ठा भी तरूणायी के साथ हाँथ से हाँथ मिलाकर चलती रहती है | कुछ असाधारण व्यक्ति जीवन के तीसरे और चौथे काल में भी कुछ कर दिखाते हैं | पर उन्हें अपवाद के रूप में लेना चाहिये | मानव जीवन का सामान्य नियम तो यही है कि तरुणायी में ही अभीष्ट लक्ष्य की प्राप्ति के लिये संकल्पित होना चाहिये | दशरथेय राघव की भांति , 'निशिचर हीन करहुँ महि ,भुज उठाय प्रण कीन | '
                                              राघव की याद आयी तो जगत -जननी सीता की याद आये बिना कैसे रह सकती है | मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम नें जगत -जननी को जयमाल तो पहनायी ही थी पर आर्य परम्परा के अनुसार सुहाग सिन्दूर से भी उनकी मोहक केश राशि का स्पर्श करवाया होगा | बचपन में पांचवीं -छठी के क्लास में हिन्दी के किसी कवि की कविता पाठ्य बुक में पढ़ी थी | उसकी पहली दो पंक्तियाँ अभी तक स्मृति में शेष हैं | " खिल गया एक पुष्प पादप डाल पर
लग गया सिन्दूर मानव भाल पर |"
                                                                मांग में सिन्दूर भरकर नारी अजेय बन जाती है वह प्रत्येक पुरुष से आदर की अधिकारिणीं हो उठती है | वह भोग्या न होकर पूज्या बन जाती है | भारतीय संस्कृति में मांग में लगे हुये सिन्दूर को तो उसी पवित्रता के साथ लिया जाता है जिस पवित्रता से देव पूजन का विधान होता है | इस सन्दर्भ में मुझे अखिल भारतीय कांग्रेस पार्टी की प्रधान श्रीमती सोनिया गान्धी का स्मरण हो आता है | आज तो वे सत्ता के शिखर पर हैं , पर बीते कल में अपनें पति महानायक राजीव गान्धी के बलिदान के बाद उन्हें बहुत सी आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा था | उन पर सबसे बड़ा आरोप यह था कि वह विदेश में जन्मी हैं और इसलिये वे भारत की संस्कृति और परम्पराओं से अपरचित हैं | उन्हें देश का प्रधान मन्त्री नहीं बनाया जा सकता | उस समय जिस निर्भीकता और अटल विश्वास के साथ श्रीमती गांधी नें अपनें को भारत की माटी  से जुड़ा हुआ बताया वैसी तेजस्विता अन्यत्र कहीं खोजनें पर भी नहीं मिलती | उन्होंने कहा , " कि उनका सिन्दूर भारत की माटी से जुड़ा है और वे अनन्त काल तक इस माटी के लिये प्राणोंत्सर्ग करनें के लिये प्रस्तुत रहेंगीं | महानायक राजीव का अनुगमन ही उनके जीवन का लक्ष्य है | " उनकी सिन्दूर की बात नें भारत की कोटि -कोटि नारियों को प्रभावित किया | सिन्दूर लगनें के बाद नारी पति के साथ अभिन्न हो जाती है | जो पुरुष है वही नारी है | भारत की आध्यात्मिक संकल्पनायें हमें पहले ही अर्धनारीश्वर के रूप में प्रेरित करती रही हैं |
                              बहुत कुछ ऐसा है जो हमारे वश में नहीं होता | शारीरिक -आकृति। लम्बाई ,रंग ,नख -शिख ,और गठन आदि पर हम थोड़ा बहुत प्रभाव ही डाल सकते हैं | विलक्षण प्रतिभा भी कुछ भाग्यवानों के पलड़े में ही आती है | पर हमें यह हमेशा ध्यान रखना चाहिये कि प्रकृति हर व्यक्ति को एक निरालापन प्रदान करती है | जो हम हैं वे दूसरे नहीं हैं | हमारी अपनी निजी विशिष्टतः हमें भी कुछ ऐसा करनें की शक्ति दे सकती है जो हमें समाज में एक विशिष्ट स्थान का अधिकार दे दे | पढ़ाई -लिखाई में सामान्य व्यक्ति क्रीड़ा क्षेत्र में गगन चुम्बी बुलन्दियाँ छू लेते हैं | फिर न जानें कितनें हैं जो पढ़ाई -लिखाई और क्रीड़ा क्षेत्र से अलग अपनी नयी मंजिलें तय करते हैं | व्यापार ,उद्योग ,प्रबन्धन , दस्तकारी , यान्त्रिक कौशल , आदि न जानें कितनें ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें नयी -नयी यशोगाथायें रची जा रही हैं | और फिर लेखन ,चित्रांकन ,पत्रकारिता ,जनसम्पर्क और सकारात्मक राजनीति के क्षेत्र तो साहसी प्रतिभा के लिये तो खुले ही हैं | विकास के क्षेत्रों के प्रति नाम गिनानें लगूँ तो शायद हमारे प्रबुद्ध पाठक पढ़ते -पढ़ते ऊब जायें | मैं कहना यह चाहता हूँ क्या हुआ यदि आप गुलाब के फूल नहीं हैं ,गेंदें के तो हैं और गेंदें का भी कोई कम महत्व नहीं होता | गेंदें के फूलों की माला गले में डालकर कितनें ही विजयी नेता अपनें को सौभाग्यशाली मानते हैं | हाँ हमारे प्रथम प्रधानमन्त्री की तरह शेरवानी में लगा गुलाब का फूल तो अपनी अदभुत छटा बिखेरता ही है और फिर हिन्दी के सौभाग्य से हमारे बीच कवि निराला जी भी हैं ,जो कुकुरमुत्ते से गुलाब को ललकार लगवा देते हैं :- "अबे सुन गुलाब ,तूनें जो पायी रंगों आब | "
                            तो 'माटी 'के प्रत्येक तरुण पाठक में आनें वाले कल में भारत के बहुमुखी विकास क्षेत्रों में कुछ कर दिखानें की अपार सम्भावनायें छिपी हैं | हम बीते हुए कल के झरे हुये पुष्प हैं | सूखती पंखड़ियों में थोड़ी -बहुत सुगन्ध ही बाकी है | हमारे तरुण पाठक -पाठिकायें आनें वाले कल के विकसित होनें वाले पुष्प हैं जिनकी सुगन्ध दिग -दिगन्त तक फैलेगी | प्रगति के दौर में ,प्रतिभा के चमत्कारिक प्रस्तार में और राष्ट्र के बहुमुखी उत्थान में ' माटी  'से जुड़ी तरुणायी ध्वज वाहक बनकर अगुवाई कर सके यही  ' माटी  ' की मूल शक्ति है |

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