Sunday 19 November 2017

प्रश्न उत्तर मांगते हैं 

हजारों साल से फसलें उगाता जा रहा हूँ
भूख की डाईन निरन्तर बलि अभी तक पा रही है |
काहिरा से सोन तट सब भर दिये वस्त्रा भरण से
श्रम रता धनिया चिता पर अर्ध नग्ना जा रही है |
प्रश्न उत्तर मांगते हैं |
जूझते अंगार प्रश्नों से रहे हैं ऋषि मनीषी
एक उत्तर था 'प्रवाहण ' नें सुझाया |
एक उत्तर बुद्ध की वाणीं बना था
एक उत्तर अरब से उठकर हमारे द्वार आया |
किन्तु सब  उत्तर निरुत्तर बन खड़े हैं
गली खेतों में पड़ी लाशें उन्हें ललकारती हैं |
यीशु ,प्रभु ,गांधी ,गुरूनानक सभी की स्वर लहरियां
गोलियों से विंध तड़प इतिहास पर सिर मारती हैं
 प्रश्न उत्तर मांगते हैं |
गगन गंगा द्वार जय -रथ मनुज का आकर खड़ा है
ज्योति वस्त्रों से सजे नभ के पड़ोसी जुड़ रहे हैं |
सौर मंडल पार धरती से नियन्त्रित मनुज यान्त्रित
इन्द्र धनुषी केतु ऊर्जा सेतु से नित उड़ रहे हैं ||
एक बाली  से सहस्त्रों बालियां हैं फूट निकलीं
रेत के उर से निकल लहरा रही पाताल धारा |
तरल सोनें से भरा है वक्ष मां का धन्य पावन
 अब हमारे हाँथ जल थल ही नहीं आकाश सारा ||
भोज से फेंकें गये पत्तल उठा कर चाटनें
मनु -पुत्र भी क्यों आज भी टकरा रहे हैं ||
पूज्य मानव -देह की ऐसी उपेक्षा ,आह बापू !
सद्य- जाता शिशु पड़ा है गिद्ध कौवे खा रहे हैं | |
प्रश्न उत्तर मांगते हैं |
आज संभ्भव है धरा का हर मनुज
पा सके घर ,वस्त्र ,वाहन स्वास्थ्य ,सुख
आज संभ्भव है गरीबी भुखमरी
व्यर्थता ,बेरोजगारी को दबा दे मृत्यु -मुख
किन्तु यह संभावना कविता बनीं क्यों जी रही है |
अंतरिक्षी आणविक विस्फोट का विष पी रही है |
प्रश्न उत्तर मांगते हैं |
परत पर परतें चढ़ी हैं यह मुखौटों का छलावा
है हमीं में खोट हम दो जीभ बनकर जी रहे हैं |
सत्य कुछ है ,कथ्य कुछ है फिर कबीरा रो रहा है |
जान कर भी जान डर से होंठ अपनें सी रहे हैं | |
वर्ष में छह बार केंचुल छोड़ता फ़णिधर कटीला
हर दिवस चोला बदलनें की लगी है होड़ नर में |
ज्योति -सीढ़ी अनुछुयी अब तक उपेक्षित ही खड़ी है
समझ कर थाती सहेजे है मनुज कंकाल कर में ||
तोड़ दो वे मौन जो दीवार बन कर आ खड़े हैं
तोड़ दो हर घेर जो इंसानियत को बांधता है
सींच दो अंकुर मरुस्थल चीर कर जो उग रहे हैं
नाच कर तलवार पर साधक कला को साधता है ||
प्रश्न छाती खोलकर सम्मुख खड़े हैं
हो अगर सामर्थ्य उनका भार झेलो |
देह माटी की न जोड़ो मोह उससे
गांधी का ,बुद्ध का कुछ प्यार ले लो ||
सो चुके लम्बी अवधि तक
अब तनिक फिर जागते हैं | प्रश्न उत्तर मांगते हैं ||


" सीटी दे रहा घास का टिड्डा  " 

नयी तकनीक से निर्मित धमन भट्टी
स्वतः चलित जड़न पट्टा नये तकुये
नयी -धुरियां नयी ज्यामिति , कसीदे की मिया गीरी
जगरमग चौंध देती है कला की कर्मशाला
मगर भयभीत स्वर में है निदेशक कक्ष में चर्चा
कि कच्चा माल चुकता जा रहा है |
धरा की गोद  में खोजो खनिज फिर कवि
तलाशो फिर नयी माटी ,
कि केवल चाक का बदलाव ही काफी नहीं है |
कि बन्धन मुक्त छोड़ो मन विहग को
आत्म रति के मिथक माया जाल से
उठाओ माल फिर कच्चा ,खरा सच्चा
गली के छोर से ,चौपाल से |
कला बस चाक -चिक्कण ही नहीं है ,
सांस का सरगम उसे मानों
कि हर जन में कहीं
जन से बड़ा जो जन उसे जानों |
सुनों जो गीत गाती ग्राम्य- बालायें समूहों में
पढ़ो , इतिहास जो अन्तर्निहित है ग्राम्य ढूहों में
चलो खुरपी उठा काढ़ें कि खर -पतवार खेतों का
लगायें अंकुरित नव -पौध में पानी ,
ठिठक कर मत खड़े हो मित्र ,
आओ साथ दें
पलवा उठानें में तनिक तो हाँथ दे
इस रेत  में ही नहर है लानी
चलो इस पंडुरी का गीत तो सुन लें
कि सुग्गे की सजीली चोंच से
क्षत -विक्षत
कांपता बेर का यह फल
कला की दीर्घा में कल सजानें को
नयी तस्वीर तो चुन लें |
पुलकती पीडकी के फुरफुराते पंख तो देखो
चहकती झूम गौरैय्या सखा का प्यार पाने को
कि पीले पंख खोले घूमती है बर्र की माला
कि सीटी दे रहा है घास का टिड्डा मंगेतर के बुलानें को |
कि नाते यह नये सिर से जगानें हैं
चकित हो नित्य नवला प्रकृति के फिर गीत गानें हैं
कि गोबर से ,धुयें से ,धूल से भगना नहीं अच्छा
कि सागर नीर से ही क्षीर ले अंकुए उगानें हैं
सितारों से भरा  नभ
अब धरा का ही पड़ोसी है
कि कलंगी बाजरे से ही
कला की ताजपोशी है |
गगन भर गोद में बादल
कि झुकता जा रहा है
करो अब बन्द यह फुसफुस
'कि कच्चा माल चुकता जा रहा है '
सहज विश्वास पालो
फिर सृजन का युग
धरा पर आ रहा है |


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