Saturday, 25 November 2017

मातृ आँचल 

स्नेहमयी माँ के आँचल का है पुनीत हर छोर
खण्ड द्रष्टि से बचकर रहना मेरे तरुण किशोर
उत्तर के रजत कंगूरों के निः सृत पय से
मुस्करा उठी मरुथल की धरती भूखी
पूरब के पुरवैय्या झोंकों से मिलकर
लहलहा उठी जो फसल धान की सूखी
दक्षिण की नील हिलोरों पर सन्देश भेज  
भारत युग -युग तक जगत गुरू कहलाया
पश्चिम के द्वारों पर कल ही तो साथी
भारती खड्ग पूरी लय पर लहराया
उत्तर, दक्षिण , पूरब ,पश्चिम बिखरी सोनें की माटी
है कहाँ सांवली सांझ कहाँ ऐसा सिंदूरी भोर
स्नेहमयी मां के आँचल का है पुनीत हर छोर
खण्ड द्रष्टि से बचकर रहना मेरे तरुण किशोर
मोर ,कपोत ,सारिका ,शुक, वक् पुलक पंख फैलाते
बदल -बदल कर ऋतुयें आतीं पहन वेष अलबेला
वन चादर सावन में ढकती तारों की फुलवारी
दूध बहाती पावन धरती पा कार्तिक की बेला
डर से ठिठुर वारि हिम बनता पौष दण्ड का स्वामी
सौरभ का भण्डार लुटाता है ऋतुराज सुहाना
गरम उसासें भरता रहता ज्येष्ठ सदा का प्यासा
भग्न हृदय नद ताल बता देते हैं उसका आना
तप्त धरित्री की छाती पर शीतल लेप लगानें
उमड़ -घुमड़ कर तब अषाढ़ के मेघ मचाते शोर
स्नेहमयी मां के आँचल का है पुनीत हर छोर
खण्ड द्रष्टि से बच कर रहना मेरे तरुण किशोर
देवलोक से जलधितीर तक मां विराट बहुरूपा
रावी ,व्यास ,सिन्धु  सुर सरिता धन्य नर्मदा धारा
अंग ,बंग ,पांचाल चेदि कुरु हैं माला के दानें
परशुनोक से निकला केरल तमिल देश अति प्यारा
तीन समुद्रों के संगम पर टिकी शिला से योगी
देख सका था कंचन जंगा का हिम मुकुट सुहाना
कामरूप से कच्छतीर तक चित्र उभर कर आया
महारूप को  पावन मां के  तब उसनें पहचाना
वह समग्र युग श्रष्टि जगानें तोड़ो तुच्छ घरौंदें
मातृ -भक्ति की हृद समुद्र में लहरें मह -हिलोरें
स्नेह मयी मां के आँचल का है पुनीत हर छोर
खण्ड द्रष्टि से बचकर रहना मेरे तरुण किशोर

एकसठवीं वर्षगांठ 

साठ और एक
एक -साठ वर्ष जिया हूँ
हंसा हूँ खेला हूँ
खाया हूँ पिया हूँ
खोखला मन है
भरा पुरा तन है
भीतर से रिक्त हूँ
बाहर से भरा हूँ
जोर से जीता हूँ
चुपके से पीता हूँ
मिट्टी का चीता हूँ
जी जी कर मर रहा हूँ |
द्वैत का पुजारी हूँ
रूप का हजारी हूँ
घर में हूँ भोक्ता
पर बाहर -विधाता हूँ
खोला है देशी
पर चोला विदेशी
यों सर्वजन भक्षी
पर जन जन का त्राता हूँ
वैभव में लिप्त  हूँ
आत्म -निर्लिप्त हूँ
गीता जीव्हाग्र है
मन दुरंत व्याघ्र है
देश का अतीत हूँ
काल का व्यतीत हूँ
आधुनिक विदेह हूँ
कामना सदेह हूँ |
कच्छप सी खाल
मृषराज सा विशाल
हूँ मृत्यु -अधिष्ठाता
मैं न्याय का प्रदाता
धरती से लेता हूँ
सर्वजयी जेता हूँ
द्वापर हूँ कलयुग हूँ
त्रेता हूँ सतयुग हूँ
शोषण का आदि हूँ
लाइलाज व्याधि हूँ
छोटा हूँ मोटा हूँ
स्वर्ण -धूलि लोटा हूँ
गोरा हूँ दुबला हूँ
चांदी में उबला हूँ
राष्ट्र की आशा हूँ
जल रही प्यासा हूँ
मंच पर सजता हूँ
नाक से बजता हूँ
आज जन्मगांठ है
अभी तन लाल है
रक्त का थाल है
सौ वर्ष जीऊँगा
यों ही खून पीऊँगा |

नवागत का स्वागत 

आओ अनजानें
इस धरती की छाया में स्वागत तुम्हारा है
आये हो उषाकाल
कहकर पुकारा जिसे
 ऋषियों नें ब्रम्ह-बेला
किन्तु जिस गृह में तुम आये निर्देशित हो
संचारित वहां है धुंआ
सुलगती अंगीठी का
मन की घुटन सा
तिक्त ,मारक ,कसैला |
सूरज उगेगा अभी
कलरव जागेगा अभी
एक स्वर तुम्हारा और
उसमें घुल जायेगा
किसी अर्थशास्त्री की
सांख्यकी का योग बन
नयी लोकसभा के भीषण शब्द -युद्ध में
चावल के पानी पर जीते
शिशु- आंकड़ों का
एक नया पृष्ठ खुल जायेगा |
अनाहूत आये हो
मेरे लिये सृष्टा पद लाये हो
दो बड़े भाई बहिन
प्रस्तुत हैं स्वागत को
ब्रम्ह -सहोदर मैं
विपुल मुख -विपुल बाहु
बकने दो योजना -विधायकों को
रोनें दो फूट -फूट
वन्ध्या बनी कल्पना के गायकों को
आसव -जन्मा तुम अनाहूत
फिर भी अनामत के अतिथि तुम
मेरे अभावों की अर्चना स्वीकार करो |
सृष्टि -विपुलता की क्षमता तो
पुरुष का पुरुषार्थ है
शास्त्र यही कहते हैं
नव शिशु ,आओ
अपनी विरासत स्वीकार करो |
नंगापन -भुखमरी
खण्ड खण्ड स्वप्न सौंध
कुण्ठा दहलीज
मन की परत तले कसमसाता
विप्लव -बीज
सभी तो मिलेगा तुम्हें
मानव -शिशु हो
मानव -विरासत से फिर भगना क्या ?
और यह असम्भव नहीं
बुद्ध की आत्मा
गान्धी की प्राण -शक्ति
तुममें निखर आये
शत सहस्त्र असफल प्रयोगों के बाद ही
कोई सत्य उगता है
संम्भव है तुम वह सत्य हो
नहीं तो प्रयोग
जो अन्तिम सत्य तक पहुंचाने की कड़ी है
और इस अर्थ में तुम
क्षितिज पर  उग रहे रक्तिम -वेश
कल के अग्रज हो
मानव शिशु धरती की छाया में
स्वागत तुम्हारा है |














  

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