Saturday 18 November 2017

सागर माथा से 

कंचन जंगा के शिखर बैठ मैनें देखा
दायें बायें
धूसर विराट
भारत माँ का भुज युग प्रसार
है शिरा जाल सी सींच रही
गिरिषुता जिसे हिम काट -काट |
पग तल घेरे योजन हजार
कीर्तन रत सागर महाकार
माँ के चरणों को चूम -चूम
मंजीर झांझ झंझा झंकार | |
हे विपुल रूप हे महाप्राण
हे कालजयी हे सहस नाम
शतकोटि स्वरों को स्वीकारो
अर्चना- दीप्त सुरभित प्रणाम |
माँ क्षमां करो उन भ्रमित पतित सन्तानों को
पीली माया के बस होकर जो बिके विदेशी टोलों में
निज जननी का करने जो बैठे अंग -भंग
माला के मनके बदल दिये हथगोलों में
माँ क्षमा करो उन क्रूर कुचाली सन्तों को
जो ह्त्या करनें पूजा घर में जाते हैं
जो लाशों की दीवाल बैठ ऊँचें बनते
जो मुंह में राम बगल में छूरी लाते हैं
इतिहास नहीं जाना उन अन्ध मसीहों नें
जो धर्म कौम का अर्थ राष्ट्र बतलाते हैं
वे जान नहीं पाये सावन के श्यामल घन
मणिपुर से लेकर सिन्धु देश तक जाते हैं
 इतिहास नहीं जाना उन दस्यु लुटेरों नें
जो शरण मांगते आज शत्रु की बाँहों में
है यीशु रो रहा फूट -फूट ज्योतिर्मग में
हाँ बाल वृद्ध वनिता की ह्त्या राहों में |
जो भटक गये हैं अन्ध बन्द गलियारों में
लेकर विवेक की किरण वहां पर जाना है
है घृणां नहीं संस्कृति का मूलाधार यहां
नानक , कबीर का प्यार उन्हें पहुंचाना है |
गूंजी रवीन्द्र की बाणीं मेरे कानों में
सामासिक स्वर ले लहर उठी उल्लसित बीन
सब घुले -मिले ' हेथाय आर्य  ' हेथा अनार्य
सब एक हुये  'हे थाय ' द्राविणों चीन |
इकबाल गवाही है , अब तक हस्ती की धाक हमारी है |
सब लुंज -पुंज हो गये मिश्र ,यूनान , रोम ,
अपनें नाम पर जो चमक रहे हैं सरस नखत
उनसे घिर कर द्युतिमान हुआ भारती सोम |
यह धरती विपुला है इसमें हर पत्र पुष्प
हंस ,लहर , सरस निर्विघ्न चिरंजी होता है
माँ गंगा से नभ- गंगा तक हर हिन्दी नित
सोते जगते बस प्यार बीज ही बोता है
विघटन का दर्शन थोथा है ,हिंसा डाइन हत्यारी है |
'माटी ' के पूतो उठो विगत ललकार रहा
देखो कलिंग से बोल रहा है फिर अशोक
बापू का दर्शन फिर से हमें पुकार रहा |
' होकर अनेक भी एक अमर संस्कृति धारा '
है गूँज रही जगजयी जवाहर की वाणीं
यह भगत सिंह मरदाना फांसी झूल रहा
इतिहास नया रच गयी यहां झांसी रानी
यह छुआ छूत यह जाति पाँति यह वर्ग भेद
यह तंग दायरों में उलझा काला जाला
है गुफा -मनुज के चिन्ह छोड़ बासी केंचुल
सबको निसर्ग नें एक मृत्तिका में ढाला
हम हिन्दू मुसलिम पारसीक
हम सिख ,यहूदी , ईसाई
यह भेद भाव में आते हैं
पहले हम सब हिन्दी भाई
जीवन्त राष्ट्र की पुष्ट जड़ें
गहरी मिट्टी में जाती हैं
शाखें ,पल्लव ,कोपल कलगी
हो भिन्न रूप लहराती हैं
हम कल की उपज नहीं साथी
इतिहास हमारा अनुचर है
कांक्षा -विहीन हम कर्म निरत
सदधर्म हमारा सहचर है
गौरी शंकर है भाल , विन्ध्य कटि -तट प्रदेश
हम सहस रूप ,हम लक्ष वेष
 हम आदि सभ्यता के श्रष्टा
हम आगत के द्रष्टा विशेष
हम महाकाव्य ,हम जाति मुक्त
हम सर्व -धर्म समभाव देश
मानव भविष्य के सूत्र -धार
है कालजयी गांधी विचार
सवन्ति ला रही अणु -संध्या
माँ की रज से माथा संवार
कंचन जंगा के शिखर बैठ मैनें देखा
दायें बायें -----------------


निष्फल फुत्कार 

यदि ( रामानुज सा ) मैं भी ब्रम्हाण्ड उठा लेता साथी
तो अग्रज आदेश न मेरा सयंम बनता
युग करतल में दबा तोड़ सौ टुकड़े करता
ताकि न मिलकर एक कभी फिर वे हो पायें
पर निष्फल फुत्कार लिये मैं घूम रहा हूँ
वीर्य हींन  कह मुझे जनक दुत्कार दे रहे
मन वेदी से कुंठा धनुष  न है उठ पाता
जयमाला के पुष्प सूख कर सभी झड़ गये
स्वर्ण -धूल से रंगीं देह वाले विदेह कुछ
नव पीढ़ी को क्षीण -वीर्य का पुरुष बताते
मरे हुये विश्वासों की लाशों पर बैठे
अन्वेषण की भटकन को निस्सार कह रहे
मैं भी अन्धे तहखानें में लिये हथौड़ा
खट खट करके किसी सन्धि खोज कर रहा
हँसते बन्दी देख रोष उठ आता मन में
युग -करतल में दबा तोड़ देता दीवारें
ईंट कहीं से सरक गिरेगी यह निश्चय है
मेरे जैसे और बहुत से जुटे काम में
पर जिनका विश्वास बुझ चुका अन्धकार में
उनको , केवल किरण सहारा दे पायेगी
कभी किन्हीं सन्देह -क्षणों में मन में जन्मा
मेरे यह विश्वास अन्धेरा ही सच्चा है
मुक्ति कामना क्रिया न होकर प्रतिक्रिया है
मुक्त - सृष्टि तो स्वयं न विश्वामित्र रच सके
मुक्त कहाँ धरती होती अपनें बन्धन से
कोटि वर्ष से घूम रही निश्चित राहों में
मुक्त न ज्योति पिण्ड हो पाते बंधी नियति से
फिर मानव की मुक्ति कहाँ से आ पायेगी
तब कुंठा का नाग लोटता मन वेदी पर
शिव -धनु की प्रत्यंचा सा मैं खींच न पाता
जहरीली फुत्कारें मन में आती जातीं
भींच -भींच मुठ्ठी में सिर के बाल नोचता
उस क्षण यदि सौमित्र सरीखा बल पा जाऊँ
तो भूगोल उठा कर मसलूँ मैं मुठ्ठी में
तार -तार कर उसे फेंक दूँ शून्य विजन में
आक -रुई सा बीज समेटे नयी श्रष्टि का |





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