Thursday 16 November 2017

कुंम्भकरण

क्या सचमुच चाह रहे साथी ?
हर भेद -भाव हर ऊँच -नीच
उठ जाय देश की धरती से
सोनें की फसलें उमग उठें
हर बंजर से हर परती से
जो जाति- पांति शोषक -शोषित
की भेद भरी दीवारें हैं
भाई -भाई को मिटा रहीं
जो जहर भरी फुंकारें हैं
इन फुंकारों का मारक विष
जिससे दूषित जल- वायु हुयी -मिट जाय देश की धरती से          
क्या सचमुच चाह रहे साथी ?
राजाओं का यह ताम -झाम ,हांथी हौदे
भिक्षुणियों के हांथों में भिक्षा की प्याली
मजबूर किशोरी की आँखों में दया -भीख
लोलुप हिंसक के आँखों में मद की लाली
बाजार भोग का सात समन्दर पार बसा
स्वीकृत के बन्धन बिना लटकती दोनाली
जनमत की छाती पर होकर बेडर सवार
दे रहे प्रगति की प्रतिगामी मोहरें गाली
यह मुर्दाघर से आनें वाली आवाजें
हर बढ़ता कदम अँधेरे में जो खींच रहीं ,
मिट जाय देश की धरती से
क्या सचमुच चाह रहे साथी ?
ये गली -गली में अस्मत के होते सौदे
चेहरे की कीमत जहां लगायी जाती है
हिन्दू ,मुस्लिम ,ईसाई के सब भेद- छोड़
तन बेच -बेच कर रोटी खाई जाती है
जो रहे नोचते अपनी बहू -बेटियों को
फिर वही दरिन्दे नंगा खेल दिखाते हैं
मजहब खतरे में ' धर्म गया 'चिल्ला -चिल्ला
इतिहासों के काले पन्नें लिखवाते हैं
फिर से न अहमदाबाद जले -शैतानों की यह विष लपटें
बुझ जांय देश की धरती से
क्या सचमुच चाह रहे साथी ?
हर बार फसल कटने पर कीमत का गिरना
सोनें के काले ईंटों की करतूत रही
दो मास बाद छू लेते मूल्य सितारों को
है यही व्यवस्था सदा देश में पूत रही
श्रम से सहेज सम्पदा उठ रहे स्वर्ण सौंध
श्रमिकों के सर पर छत न अभी पड़ पायी है
सीमा पर दो बार उठी तलवार मगर
अब तक न देश की ग़ुरबत से लड़पायी है
मन्त्री के स्वागत में आयोजित महा भोज
पर जुटनें वाली जूठन -भोगी करुण -पंक्ति
मिट जाय देश की धरती से
क्या सचमुच चाह रहे साथी ?
मन प्राणों से फिर शपथ उठाओ अभी आज
तज कर सत्ता का सेज धरा पर सोऊँगा
टोली -बाजी को छोड़ उठूंगा निजता से
जन -जन के मन में प्यार बीज मैं बोऊंगा
जो काले धन पर चमक रहे थूको उन पर
बस खून -पसीनें की ही एक कमाई है
मेहनत की रोटी भली पाप की रबड़ी  से
सन्देश यही तो आजादी ले आयी है
सिर तान न चल पावें व्यभिचारी ,कामचोर
क्षण भर में सब कुछ खानें वाला कुंभ्भकरण
उठ जाय देश की धरती से
क्या सचमुच चाह रहे साथी ?



 


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