Sunday, 29 October 2017

                                              जन्माष्टमी पूजन 

    चारों ओर से घनी वृक्षावलियों से घिरा अभ्यारण्य के मध्य में मानव -श्रम द्वारा स्वच्छ सपाट किया हुआ एक विस्तृत मैदान | मैदान के दाहिनें पार्श्व में छोटे -छोटे कृषि क्षेत्र जिनमें शालियों की क्यारियाँ लगी हुयी हैं | मैदान के बायें पार्श्व में स्वस्थ्य हरे -भरे फलदार वृक्षों की चार पंक्तियां | | आम, जामुन ,विल्व फल और अमरुद के वृक्ष | बीच -बीच में केले की पाँति जिनमें लम्बी गौहरें लटक रही हैं | कुछ खुले में और कुछ पेड़ों के नीचे मिट्टी की सजी -बजी पीठिकायें बनी हैं | मैदान के उत्तरी भाग में एक साफ़ -सुथरी मिट्टी ,लकड़ी और तृण आच्छादित तीन कक्षों की कुटी | कुटी के साथ खुले में तीन चार श्वेत -श्याम धनुयें और उनसे कुछ दूर बंधे धेनु वत्स | कुटी के पीछे मिट्टी की दीवालों के ऊपर बांस की पट्टिकाओं पर लम्बी घास और विशालकाय पेंड़ की पत्तियों से ढका हुआ छप्पर जहाँ रात्रि में विद्यार्थी विश्राम करते हैं | छप्पर को संभ्भालनें वाली दीवालों में बनें आलों में अरंडी तेल भरे दीपक |
                                                आचार्य सन्दीपन की बहुचर्चित पाठशाला जहां हर वर्ण का प्रवेश योग्यता के आधार पर सुनिश्चित | गोधूलि बेला | आचार्य सन्दीपन का कुटी में प्रवेश | आचार्य तरुणायी के दौर में हैं | काले लहराते बाल ,प्रशस्त भाल ,कंचन जैसा पीताभ गौर वर्ण , काष्ठ पादुकाओं पर आचार्य के पद ,अधो वस्त्र और शिरोवस्त्र से विभूषित ,कुटी में प्रवेश करते ही सहचारिणी पत्नी को संम्बोधित करते हुये कहते हैं ," सुभागे अंधेरा होनें वाला है | अन्य सभी छात्र शयनशाला में आ गये हैं पर वसुदेव पुत्र श्रीकृष्ण और तपस्वी प्रभुपद पुत्र सुदामा अभी तक दिखायी नहीं पड़े | तुमनें उन्हें किस काम के लिये भेजा था ,तीसरे पहर से ही वरसात हो रही है ,कहीं भटक भूल तो नहीं गये ,सुदामा का शरीर तो वैसे भी दुर्बल है | अति वृष्टि उसे नहीं झेलनी चाहिये |
सुभागा :- आर्य पुत्र !पाकशाला की लकड़ियां लगभग समाप्तप्राय थीं | श्रीकृष्ण पुष्ट देह का परिश्रमी और आज्ञाकारी आपका प्रिय शिष्य है | मैनें उसे बन में गिरी हुयी सूखी लकड़ियां इकठ्ठा करके लाने को कहा था | उसके आग्रह पर उसके साथ के लिये मैनें तपस्वी प्रभुपद के पुत्र को भी उसके साथ भेज दिया था | आते ही होंगें |
सन्दीपन :- आर्ये ! ,दूर जंगल में भटकते -भटकते उन्हें क्षुधा की अनुभूति भी तो हो रही होगी | तुमनें उन्हें थोड़े भुनें हुये शष्य कण दे दिये हैं न |
सुभागा :- आचार्य ,आप तो जानते ही हैं कि गुरुमाता होनें के नाते मुझे आपके हर शिष्य का ध्यान रखना होता है | कृष्ण तो आगे चला गया था ,सुदामा को इससे पहले कि दौड़ कर कृष्ण के साथ पहुंचें मैनें अपनें पास बुला लिया था और काफी सारे भुनें हुये चनें उसे देकर कह दिया था कि भूख लगनें पर दोनों मिलकर खा लें |
सन्दीपन :- स्वास्ति ,आप निश्चय ही आदर्श गुरुमाता हैं | दो पास -पास खड़े विशाल वृक्षों के तनों में बनें कोटरों में श्रीकृष्ण और सुदामा बैठे हैं | घटाटोप अन्धकार और अविरल वर्षा बूंदों के बीच के तनें की कोटरों में सिकुडे -सहमें बैठे हैं | एक दूसरे को देख नहीं पाते पर बात -चीत के लिये स्वर ऊँचा कर एक दूसरे को साहस बंधा रहे हैं | श्रीकृष्ण जी सुदामा से कहते हैं कि उन्हें गहरी भूख लग आयी है | पेड़ों की पत्तियों की घनी छाँह में सूखी लकड़ियों का एक बड़ा गठ्ठर पड़ा है | उसे आस -पास की घास फूस बटोर कर बड़ी चतुरायी से ढक दिया गया है ताकि वह अधिक गीला न हो सके | भूमि पर एक प्रस्तर रखकर उसके ऊपर उसे रखा गया है | इस सारे श्रम में सुदामा का देन न के बराबर है ,शरीर से दुर्बल होने के कारण श्रीकृष्ण उसे स्वयं कड़े काम से दूर रखते हैं | हाँ उसके साथ बातचीत में उन्हें एक पवित्रता का आभाष होता है | वे जानते हैं कि सुदामा के पिता तपस्वी प्रभुपद के पास आर्थिक साधनों की कमी है | सुदामा गुरु कृपा से ही इस आश्रम में शिक्षा पा रहा है \ वर्षा और तेज हो जाती है | तेज हवा के झोंकें ठंडक की लहर फैलाने लगते हैं | कपकपी लगनें लगती है | श्रीकृष्ण जी फिर आवाज ऊँची कर सुदामा से कहते हैं कि भूल हो गयी साथ में कुछ भुना या उबला शस्य लाना चाहिये था | सुदामा उन्हें नहीं बताते कि उनके पास गुरु पत्नी के दिये हुये भुने हुये चनें हैं | उन्हें भी गहरी भूख लगी है | न जानें कब वर्षा बन्द होगी | उनके अपनें पेंड़ के तनें का कोटर काफी छोटा है | उसमें पुष्ट श्रीकृष्ण नहीं बैठ पायेगा | एक बार उनके मन में आता है कि उठकर श्रीकृष्ण के कोटर में चले जांय ,चनें चबाने की इच्छा तीब्र हो रही है | फिर सोचते हैं कि चलो हम आधा चना चबाये लेते हैं बाकी आधे चनें वर्षा बन्द होने पर श्रीकृष्ण जी को दे देंगें | झोली से चनें निकाल कर मुंह में डालते हैं |  दाँतों से चबाने पर कट -कट की आवाज होती है ,श्रीकृष्ण जी कट -कट की आवाज सुनते हैं | उन्हें कुछ शक होता है |
श्रीकृष्ण :- अरे मित्र यह कट -कट  करके क्या चबा रहे हो ? क्या गुरू माता ने कुछ खानें को दिया था | सुदामा संकोच में पड़ जाते हैं | उन्हें याद आता है कि गुरू माता नें स्पष्ट आदेश दिया था कि दोनों मिलकर साथ -साथ खाना | बड़ी चूक हो गयी | क्षुधा की आतुरता ने उन्हें बेचैन कर दिया फिर सोचा कि मेरे मन में कोई खोट तो थी नहीं मैं तो आधे चनें मित्र कृष्ण को देने की सोचता ही था , पर अब यदि वह जान गया कि मैं चनें खा रहा हूँ और वह भी बिना उसके बताये तो शायद उसका मन खिन्न हो जाय और क्या पता बात ही बात में गुरुमाता को भी बता दे ,अब तो यही ठीक है मैं उसको बताऊँ ही नहीं कि गुरुमाता नें उसको चनें दिये  हैं | अब तो कुछ चनें बचानें भी  नहीं हैं ,सभी को चबा लेना ही अच्छा होगा | फिर सुदामा के मन में एक प्रश्न उठा श्री कृष्ण शरीर और मस्तिष्क दोनों ही द्रष्टियों से सब छात्रों में सर्वोत्तम है कहीं उसनें यह आभाष पा लिया हो कि मेरे पास खानें की कोई सामग्री है | कुछ रूककर सुदामा नें फिर भुनें  चनें मुंह में डाले कोशिश की कि कट -कट का शब्द न हो पर बीच -बीच में कुछ दानें कड़े होते थे और उन्हें तोड़ने के लिये दांतों की चोट लगानी होती थी ,थोड़ी बहुत कट -कट की आवाज तो आनी ही थी |
श्रीकृष्ण :- मित्र सुदामा तू तो कभी झूठ नहीं बोलता | मैनें तो कई बार झूठ भी बोल दिया है | कहीं ऐसा तो नहीं कि तू कुछ खा रहा हो और मुझसे छिपानें की कोशिश कर रहा हो | सुदामा ने आगे अधिक पूछ ताछ न हो इसलिये जो जवाब दिया उस जवाब ने श्रीकृष्ण को चुप कर दिया |
सुदामा :- श्रीकृष्ण तुम सम्पन्न घरानें से हो ,ऐसे घरों में झूठ का इस्तेमाल किया जाता है | मैं गरीब ब्राम्हण पुत्र हूँ झूठ बोलना मेरे कुल का स्वभाव नहीं है | लीलाधर श्रीकृष्ण ने कभी भी गुरु गृह में इस बात को प्रकट नहीं किया कि सुदामा ने चनें खाकर पुरानी झोली पेंड़ के पास ही फेंक दी थी जिसे वह अगले दिन जब सूखी लकड़ी का गठ्ठर उठाने गया था उठा लाया था और गुरुमाता को दे दिया था | गुरुमाता ने उससे पूछा था कि चनें अच्छे भुनें  थे न तो वासुदेव पुत्र ने सिर हिला कर स्वीकृति दी थी  और कहा था ," हाँ मातु आपके हाँथ का छुआ अन्न तो देवताओं को भी धन्य कर देता है | आपके दिये ये चनें भारत के इतिहास के स्वर्ण पृष्ठों पर चर्चित होंगें |"
                  ----- कुछ वर्षों बाद दीक्षान्त समारोह हो जानें पर श्रीकृष्ण सुदामा से विदायी मांगते हुये मथुरा की ओर प्रस्थान करने से पहले कहते हुये सुनें जाते हैं मित्र सुदामा तुम एक चरित्रवान ब्राम्हण के पुत्र हो और मेरे गुरु भाई हो | संकोच मत करना हम क्षत्रिय लोग तो सदैव से ब्राम्हणों का आदर करते हैं और उन्हेंआदर्श मानते हैं | तुम्हीं नें तो उस बरसात की शाम को यह कहा था कि तुम ब्राम्हण हो और कभी झूठ नहीं बोलते | मेरे सबसे प्रिय गुरुभाई तुम्हारी स्मृति मेरे हृदय में सदैव छायी रहेगी ,कौन जानें भविष्य की गर्त में क्या छिपा है | | आवश्यकता पड़े तो अपनें इस मित्र से मिल लेना या बुला लेना |
                लगभग 15 वर्ष का अन्तराल | कंस वध और मथुरा पर कंस के पिता महाराज उग्रसेन  का राज्याभिषेक | उग्रसेन का स्वर्गारोहण |  श्रीकृष्ण द्वारा मथुरा का राज्य संचालन | जरासंध का प्रबल आक्रमण | कृष्ण की कूटनीतिक चतुरता | चक्रधारी कृष्ण से रणछोड़ बन जाना | द्वारिका को नयी राजधानी के रूप में स्थापित करना | वैभवशाली द्वारिका सारे आर्यावर्त में अपनी समृद्धि और ऐश्वर्य के लिये विख्यात |
                          सुदामा के पिता की मृत्यु के बाद पवित्र ,तपस्वी जीवन जीने का व्रत | जीवन की मूलभूत सुविधाओं का अभाव | अपनी पत्नी से आचार्य सन्दीपन के गुरुकुल में अपनें गुरुभाई श्रीकृष्ण से गहरी मित्रता की चर्चा | नगर के वैष्णव गायक ,गायिकाओं द्वारा वासुदेव श्रीकृष्ण की अदभुत नगरी द्वारिकापुरी के ऐश्वर्य का गायन | सुदामा की पत्नी सुमेधा का श्रीकृष्ण के पास पति को जानें के लिये आग्रहशील होना | सुदामा के स्वाभिमान को एक गहरी चोट | अपने ब्राम्हणत्व पर अभिमान | अपने ज्ञान और चरित्र पर अभिमान | अपने द्वारा चलाये गये छोटेसे गुरुकुल से जो भी उपार्जित हो सके उसी के सहारे जीवन नैय्या चलानें की अभिलाषा | पत्नी द्वारा घर की उस गरीबी का जिक्र जो दरिद्रता के स्तर तक जा पहुँची है | घर में शीतकाल में ओढ़ने के लिये सोढ़ नहीं | खाना बनाने  के और खाना सहेजनें के शुद्ध ,स्वच्छ बर्तनों का अभाव | पूरे पेट खानें के लिये मोटे अन्न का भी अभाव | फिर प्रिय मित्र श्रीकृष्ण के पास जानें का अतिरिक्त आग्रह | यहां नरोत्तम दास की हृदय द्रावक आठ पंक्तियाँ बिना उद्धत किये मन नहीं मानता |
                  " कोदौ सवा जुड़तो भरि पेट           
                     तो न चाहती दधि दूध मठौती
                     शीत व्यतीत भयो शिशियात ही
                     हौं हठती पै तुम्हैं न हठौती
                     जो जनतियु न हितु हरि सौं
                     तो मैं काहे को द्वारिका पेल पठौती
                      या घर से कबहूँ न गयो प्रिय
                       टूटो तवा और फूटी कठौती | "
     
                   आज 2017 के सोमवार 14 अगस्त के इस जन्माष्टमी पर्व के दिन नरोत्तमदास की ये  पंक्तियाँ हिन्दुस्तान के करोणों दीन -हीन जनों के घरों की वास्तविक स्थिति चित्रित करती हैं | द्वारिकाधीश चक्रधारी श्री कृष्ण के काल से लेकर आज तक इतना लम्बा काल प्रवाह अपनी सारी तथाकथित प्रगतियों की गाथा समेट कर भी भारत की गरीबी को बहा कर नहीं ले जा पाया है | क्या यह हमारी राजव्यवस्था का दोष है या भगवान का प्रकोप ?
                                                               तो विवश सुदामा को द्वारिकापुरी की ओर जाना पड़ता है | जहां आज द्वारिकाधीश का मन्दिर है वहां से कुछ दूर वेत द्वारिका में सुदामा और श्रीकृष्ण का मिलन हुआ था | वेत द्वारिका तक पहुंचने के लिये अब हमें थोड़ा सा समुद्री जल मार्ग स्टीमर से तय करना पड़ता है पर उस काल में वेत द्वारिका तक पहुंचने का निश्चय ही कोई स्थलीय मार्ग होगा | चमत्कृत कर देनें वाले भव्य और विशाल राजभवन के द्वार पर सुदामा भौचक्के से खड़े हो जाते हैं | उनकी सुलक्षणा ब्राम्हण पत्नी सुमेधा जानती थी कि किसी मित्र के घर जाते समय साथ में कुछ खानें -पीनें की वस्तु भेंट के लिये ले जाना एक शकुन होता है अब चूंकि घर में और कुछ था ही नहीं इसलिये उन्होनें कुछ टूटे हुये चावल एक साफ़ पुरानें कपड़े की पोटली बनाकर बाँध दिये थे | सम्भवतः सुमेधा भगवान श्रीकृष्ण की दिव्य शक्तियों से परिचित रही होगी और उन्हें देवावतार के रूप में लेती होगी | पोटली को बगल में दबाये, पुराने घिसे कटि वस्त्र पहनें ,सिर पर बिना पगड़ी और पैरों में बिना जूता सुदामा द्वारिकाधीश के महल के द्वार पर खड़े हैं | शरीर के ऊर्ध्व भाग पर संम्भवताः कोई पुराना छिद्र भरा आवरण डाल रखा हो | रात्रि जागरण करनें वाले भक्त गवैय्ये प्रभावशाली स्वर लहरी में सुदामा श्रीकृष्ण मिलन गाथा वायु लहरियों पर तरंगायित करते हैं |
                         " अरे द्वार पालो ,कन्हैया से कह दो
                            कि द्वारे सुदामा गरीब आ गया है |"
                और कवि नरोत्तम दास ने तो जो सवैय्या सुदामा के दैन्य का वर्णन करने के लिये लिखा है वह हिन्दी साहित्य की एक चिर प्रकाशवान मणिं है | आप सब ने पढ़ तो रखा ही होगा | पर आइये एक बार फिर उन अविस्मरणीय पंक्तियों पर द्रष्टिपात कर लें |
                           " शीश पगा न झगा तन में
                              प्रभु जानें को आहि बसै केहि ग्रामा
                               धोती फटी सी लटी दुपटी
                               अरु पांय उपानहु की नहिं सामा
                                द्वार खड़ो द्विज दुर्बल एक
                                रहै चकि सो वसुधा अभिरामा
                                 पूछत दीन दयाल को धाम
                                 बतावत आपन नाम सुदामा \ "
                    और इसके बाद जो घटित हुआ मिलन  का पवित्र  हृदय द्रावक जो द्रश्य उपस्थित हुआ वह तो वैष्णव भक्तों के लिये स्वर्ग और अपवर्ग दोनों की झांकी एक साथ प्रस्तुत करता है | प्रेमाश्रुओं की गंगा बह निकली | संकुचित सुदामा तन्दुल कणों की पोटली  बगल में छिपानें लगे | द्वारिकाधीश के घर में टूटे तन्दुल कणों की पुराने कपड़े की पोटली में बंधीं भेँट उन्हें अपनी संकोच से झुकी आँखें उठानें ही नहीं देतीं थीं | पर चक्रधारी तो कौतुकी हैं हीं झपट कर पोटली खींच ली बोले पूज्या भाभी की दी हुयी भेंट क्यों छिपा रहे हो | मुठ्ठी भर कर तन्दुल कणों को मुंह में डाल लिया | आह ,ऐसा स्वाद तो ब्रम्हाण्ड के किसी और खाद्य और पेय वस्तु में नहीं पाया | नितान्त निर्मल आशीर्वाद भरा प्यार इन तन्दुल कणों से निः सृत हो रहा है | सुदामा देखते ही रहे | उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि उनका किशोर सखा श्रीकृष्ण इतना बड़ा महा मानव है | गुरुपत्नी द्वारा दिये गये चनों की उन्हें याद आयी | छिः छिः ब्राम्हण पुत्र होकर मैं झूठ बोला था | अपनें को ही अभिशापित करनें का उनका मन हो आया | | द्वारिकाधीश मुस्कराये | प्रेमाश्रुओं को हाँथ से  पोछते हुये बोले सखा ,मैं तुम्हारे हृदय के भाव जानता हूँ अपनें को अपनीं ही आँखों में छोटा मत करो | तुम्हें मुझसे छिपाकर चना चबा लेनें की कहानी ही तो मेरे जीवन की सभी कहानियों से अधिक प्रचारित -प्रसारित होगी | मेरी ओर देखो मित्र ,मुझे ब्राम्हण सेवक के रूप में स्वीकारो | और फिर चावलों के कणों की दूसरी मुठ्ठी मुंह में डाली | इससे पहले कि तीसरी मुठ्ठी मुंह में डालते महारानी रुक्मणीं नें कलाई को प्यार भरे स्पर्श से पकड़कर रोक लगा दी बोली ," प्राणेश्वर अपनी पटरानी के लिये भी कुछ छोड़ोगे या नहीं ? दो लोक तो दे दिये | क्या तीनों लोक भाभी को ही दे देनें होंगें | " द्वारिकाधीश के होठों पर मधुर हास्य खेल गया बोले ,प्राणेश्वरी प्राणों पर तुम्हारा पूरा अधिकार है पर पवित्रता ,सच्चायी और हो जानें वाली गलती पर किये गये सच्चे मन के प्रायश्चित समाज की समृद्धि और सुरक्षा के लिये ही तो राज्य का सम्पूर्ण वैभव होता है | तपस्वी सुदामा इन्हीं शाश्वत मूल्यों के प्रतीक हैं | उनकी मित्रता का  मूल्य  पीड़ित दुखित मानवता के बृहत्तर सम्बन्धों  से जोड़कर देखो रुक्मणीं | मैं जीवन भर अन्याय  ,अविचार और अभाव को संसार से मिटाने में लगा रहा हूँ ,जो उपलब्धि हुयी है वह नगण्य है | अभी जो करना शेष है उसके लिये मुझे न जानें कितनी बार कितने युगों में फिर फिर आना पड़ेगा | कृष्ण सुदामा की मित्रता और सखा भाव युग -युग तक हर राज्य सत्ता को अभावग्रस्त लोगों की मदत के लिये प्रेरित करता रहेगा |
                        कहना न होगा की रुक्मणीं और योगेश्वर कृष्ण के बीच यह बातें उस समय हुयीं जब सुदामा अन्तः पुर के सुरक्षित विश्राम गृह में रेशमी शैय्या पर लेटे थे | राजराजेश्वरी रुक्मणी और द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण के बीच वार्तालाप के लम्बे दौर की कहानी से परिचित  होने के लिये 'माटी ' के अगले अंकों की प्रतीक्षा करिये | 

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