Friday, 27 October 2017

ललित साहित्य से सम्बन्धित प्रत्येक नर -नारी अपने मन में ऐसा विश्वास पालनें लगता है कि वह एक नयी जीवन द्रष्टि से सम्पन्न है और सामान्य जन  समुदाय को नए जीवन मूल्य बोधों से अवगत करा सकता है | सृजनात्मक साहित्य के रचयिता कभी -कभी इस विश्वास  को दंम्भ की सीमा तक पहुंचा देते हैं | वे ऐसा माननें लगते हैं कि वे असाधारण व्यक्तित्व के धनी हैं और उनकी सृजनात्मक प्रतिभा अनूठी होने के कारण औरों के लिये आदर का पात्र होनी चाहिये | सच तो यह है कि सृजनात्मक प्रतिभा केवल साहित्य के क्षेत्र में ही नहीं वरन ज्ञान के प्रत्येक  क्षेत्र में सम्मानित होनी चाहिये | पर किसी भी प्रकार की प्रतिभा को इस अहंकार में घिर कर नहीं रहना चाहिये कि वो किसी दूसरे संसार से पायी हुयी वस्तु है | प्रतिभा अपने हर स्तर पर प्रत्येक समाज में वहां के चुनौती भरे जीवन संघर्ष और अनुभवों से तराशी जाकर ही असरदार पैनापन पा सकती है | शब्द शिल्पी तभी युग प्रवर्तक बन सकते हैं जब उनका जीवन अनुभव अत्यन्त विशाल हो और विशालता के साथ वह अत्यन्त गहरायी तक मानव मनोविज्ञान की मूल प्रेरक वृत्तियों से परिचित हो | आज तो ललित साहित्य भी तब तक औसत दर्जे का ही माना जायेगा जब तक उसके रचयिता तकनीकी विकास के इस आश्चर्यजनक युग में अधुनातन जीवन शैली से परिचित न हों | मात्र गरीबी ,भुखमरी का चित्रण आज उतनी गहरी सम्बेदना नहीं जगा सकता जितना कि आजादी के पहले और आजादी के कुछ वर्ष बाद तक सम्भव था | इक्कीसवीं सदी का भारत गरीबी तो नहीं मिटा सका है पर उसके पास रचनात्मक प्रतिभा को प्रभावित करने वाले अन्य कई उपलब्धियां भी उपस्थित हैं | भारत का आर्थिक विकास और उस विकास के फलस्वरूप सम्पन्न वर्ग की मनोग्रन्थियाँ ,अतिशिक्षित व्यक्तियों का गहरा व्यक्तित्ववादी वोध और राज्य सत्ता से आरोपित नारी समानता तथा मानव समानता के संवैधानिक प्राविधानों से प्रभावित समाज की उलझनें और जटिलतायें आदि पर भी श्रेष्ठ साहित्य की रचना हो सकती है | कई बार अवकाश के क्षणों में जब मैं अमरीका और इंग्लैण्ड की कथा रचनाओं पर निगाह डालता हूँ तो मुझे उनकी कथा वस्तु में प्राकृतिक विज्ञान से सम्बन्धित ताजी से ताजी जानकारी सम्मिलित होती दिखायी पड़ जाती है | इक्कीसवीं शताब्दी का पहला दशक समाप्त हो रहा है पर पहले दशक में ही विश्व की संचार तकनीक ने जो कर दिखाया  है वह बीते युग की मायालोक कल्पना से भी कहीं अधिक चमत्कृत करने वाला है | मय नाम के वस्तु शिल्पी ने महाभारत में पाण्डवों के जिस अदभुत भवन का निर्माण किया था वैसा भ्रमात्मक चाकचिक्य आज अभियान्त्रिकी के सामान्य कारीगरों से भी सम्भव हो जाता है | नभ गंगाओं की परियां अब हमें रूप रंग से अधिक नहीं छल पातीं ठीक वैसे ही जैसे समुद्र सुन्दरियां अब मत्स और नारी के रोमांचक मिलन  को लेकर हमें आनन्दातिरेक नहीं दे पातीं |
                                    साहित्य के साधकों को वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति को समझकर उसे ऐसे रूप में ढालना होगा जो सामान्य जन की सम्वेदना को उकेर सके | अब यह नहीं कहा जा सकता कि भारत में विज्ञान और तकनीक अभी हमारी जीवन शैली का अंग नहीं बना है और इसलिये वह हमारी संवेदनाओं से नहीं जुड़ पाया है | आज किसी भी शहर का मध्यम  वर्ग भले ही वह निम्न मध्यम वर्ग क्यों न हो नारी के इस चित्रण से प्रभावित नहीं होगा कि चूल्हा फूंकते फूंकते उसका मुंह लाल हो गया है ,या की धुंएँ से उसकी आँखों में आंसू आ गये हैं ,और बार बार सिर झटकनें से उसके बाल बेतरतीब होकर बिखर रहे हैं | रसोईं गैस की पहुँच हर मध्यम घर में हो चुकी है और बिजली के स्टोब ,चूल्हे ,ओवन और अन्य अनेकानेक उत्पाद हर घर में पहुंचते जा रहे हैं | स्कूल में जाते हुये बच्चों की साफ़ सुथरी यूनिफार्म और उनके गले की टाई अब एक सामान्य अनुभव है | अब बनियाइन और नेकर पहनकर स्कूल जानें वाले बच्चे का चित्रण पढ़े -लिखे पाठक को वास्तविक नहीं लगता |  यह हो सकता है कि चूंकि मैं भूख से ऊपर उठ चुका हूँ इसलिये मेरे ये अनुभव उस वर्ग को न भावें जिसे अभी भी दो जून की रोटी मयस्सर नहीं होती | पर गरीबी रेखा से नीचे वाले भारत के अतिरिक्त स्वतन्त्र भारत के और भी कई रूप हैं और गरीबी रेखा के  नीचे का वर्ग भी अपने निजी प्रयत्नों और सरकारी सहायता के बल पर जीवन की मूलभूत सुविधायेँ जुटा लेने की ओर अग्रसर है और फिर प्रगति का आज एक ही अर्थ है और वह अर्थ आर्थिक विकास के आसपास घूमता है | आज नहीं तो कल भारत की प्रगति के साथ साथ भुखमरी और असहायता इतिहास की वस्तु बनकर रह जायेंगीं |  साहित्य तब भी रचा जायेगा और उस साहित्य में भी कालजयी रचनायें संम्भव होंगीं | (क्रमशः )

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