Monday, 2 October 2017

                                            मानव विकास का वैज्ञानिक विश्लेषण आधुनातन शिक्षा का एक अनिवार्य अंग बन गया है | ऐसा होना भी चाहिये क्योंकि नृतत्वशास्त्र के प्रामाणिक ज्ञान के बिना जीवन मूल्यों के विकास की विश्वसनीय व्याख्या अधूरी रह जाती है | वैज्ञानिक विकासवाद 10 लाख वर्ष से अधिक किसी कुहासे भरे अतीत से वानर मानव से प्रारंम्भिक आदि मानव के विकास की कहानी दुहराता रहा है | इस विकास के  कुछ विश्वसनीय प्रस्तरीकृत अस्थि पिंजर और पाषाण उपादान मिलने से ऐसा लगता है विकास की यह अनवरत धारा सत्य से बहुत हटकर नहीं है | पर भारतीय मनीषा इस दिशा में एक सनातन विकास व्यवस्था की बात करती रही है जो प्रगति के अन्तिम छोर तक जाकर विनिष्ट हो जाती है और फिर विनाश में छिपे सृजन के बीच से पुनः प्रस्फुटित होकर प्रगति के और अधिक उच्चतर सोपानों की ओर चल पड़ती है |
                                सतयुग ,त्रेता ,द्वापर और कलयुग की विभाजन प्रक्रिया के पीछे एक ऐसी ही विश्लेषण पद्धति सक्रिय रही होगी | ऐसे विभाजन को रूढ़ अर्थों में लेना अवैज्ञानिक होगा क्योंकि कलयुग के साथ अपार तकनीकी संम्भावनाओं का जुड़ाव रहता है जबकि सतयुग मानव की बालसुलभ सरलता और सहज ज्ञान से जुड़ता है | जैसे जैसे यह बाल सुलभ सरलता यानि ईश्वरीय संम्पर्क की आसन्नता कम होती जाती है वैसे वैसे सांसारिक ज्ञान का विकास चातुर्य जो कालान्तर में छल -छद्म में बदलता है बढ़ता जाता है | ये विकास होकर भी विकास नहीं रहता क्योंकि आत्म तत्व का विस्मरण हमें शुचिता और सरलता से दूर करके मूल पशुत्व की ओर ढकेलता है | मानव इन्द्रियों के एक सामूहिक संयंत्र के अतिरिक्त और कुछ नहीं रहता | द्वापर में तुला के दोनों पलड़े लगभग बराबर से रहते हैं और रह -रह कर वहिरावलोकन और अन्तरावलोकन में अदलाव -बदलाव होता रहता है | कलयुग आते ही यन्त्रशक्ति परमात्म शक्ति पर भारी पड़ती दिखायी पड़ती है | इन्द्रिय सुख के  अनूठे और अकल्पनीय साधनों की भरमार हो उठती है | भक्षण वृत्ति संम्पोषण वृत्ति पर हावी हो जाती है | भाषा के अर्थवान शब्द विपरीतार्थक बन जाते हैं | चातुर्य का अर्थ हेरा फेरी बुद्धिमान का अर्थ धूर्त और सफलता का अर्थ परपीड़न कुशलता में बदल जाता है | गीता के अर्जुन सर्वभावेन परन्तय न रहकर सर्व विनाशक  आत्मरत भोगी बन जाते हैं | विकास की यह अदभुत गाथा सतत अवाधित अपरिहार्य और अथक रूप से गतिमान रहती है | कुछ ऐसी ही व्यवस्था के कलुष भरे मार्ग से आधुनिक मानव गुजर रहा है | इन्द्रिय सुख की मिथ्या मरीचका के पीछे वह इतना भ्रमित हो उठा  है कि पारस्परिक सौमनस्य ,सहकारिता और सहभागिता के उन ऊर्जापूर्ण विचारों से वह बहुत दूर जा चुका है जिन विचारों ने उसे 4 पैरों पर चलने वाले नर मानव से प्रज्ञामंडित मानव बनने की ओर विकसित किया था | प्रकृति के स्वाभाविक दौर में इन्द्रियाँ जब सुख भोगनें के योग्य नहीं रहतीं तब वह सुरा ,मारीजुवाना और Ecstasyकी तलाश में दौड़ता है ताकि इन्द्रिय सुख के कुछ क्षण और जुटाये जांये | और फिर यौवन पार करते ही या उससे पहले ही मानसिक रोगों से भरी खचाखच दीर्घाओं के अतिरिक्त और कहीं रहने का मार्ग ही कहाँ रह जाता है | इस घोर कलयुग में भी जिसे वैज्ञानिक विकासवाद मानव के चरम उथ्थान की गाथा कह रहा है कहीं कुछ बिन्दु हैं जहां पहुँच कर मानव मनीषा अन्तरावलोकन कर सनातन सत्यों को खोजती है | ऐसे बिन्दु हैं उन मानव मनीषियों द्वारा खोजे गये संजीवनी जीवन मन्त्र जो कलयुग के बीच भी आत्मा की सतयुगी गरिमा और शुचिता को अक्षुण रख सके हैं | ऐसे ही महापुरुषों में उदाहरणार्थ रामकृष्ण परमहंस ,विवेकानन्द ,स्वामी रामतीर्थ ,महर्षि दयानन्द ,महर्षि रमण , महर्षि कड़वे ,रवीन्द्र नाथ ,व महात्मा गान्धी आदि आदि में हमें नवसृजन के सतयुगी बीज देखने को मिलते हैं | हमें इस दिशा में भारत के अतीत में आदर्श खोजने होंगें | और सहस्रों वर्ष पूर्व मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम का ही अनुशरण करना होगा | आधुनिक भारत में यदि हम पांच प्रतिशत अत्याधुनिक पश्चिमी दासता वाले वर्ग को छोड़ दें जो अभी जीवन मूल्यों के उस विघटन स्थल से थोड़ा ऊँचे हैं जहां नर नर न रहकर नरपशु बन जाता है | 'माटी ' का प्रकाशन इन्हीं जीवन मूल्यों की तलाश की ओर एक छोटा पर विश्वास भरा प्रयास है | संकल्प की शक्ति ही मंत्रशक्ति होती है और नये जीवन मूल्यों का उदभव निर्मम भौतिकवाद की खाद से ही संम्भव हो पायेगा |
                              आज के इस निराशा ,सन्त्राष और आत्मजड़ता से भरे तुमुल कोलाहल के बीच रहकर भी प्रत्येक जिज्ञासु को ज्ञान सागर में गोता लगाकर सच्चे मोती खोजने होंगें | हठ धर्मिता या जेहादी जनून किसी भी काल में भारतीय संस्कृति का अपरिहार्य अंग नहीं रहा है | हम हर युग और हर काल में विशुद्ध बुद्धि की कसौटी पर कसने के पश्चात ही मूल्यों और समाज रचना की संहिताओं को स्वीकार करते रहे हैं | ऐसा ही हमें आज भी करना है | दरअसल जनूनीपन कुछ धर्मों का ही अंग नहीं है यह आज विज्ञान कहे जानें वाले आधुनिक धर्म प्रवंचना का भी अंग बन गया है | विज्ञान का कोई भी सकारात्मक अनुयायी इस बात का हठ नहीं करेगा कि जो कुछ उसने जाना है वही अन्तिम सत्य है | ईजाक न्यूटन के काल में सर्वमान्य वैज्ञानिक मान्यतायें आइन्स्टाइन के युग तक पहुँच कर अपनी सार्थकता से वंचित हो गयीं | और अब तो प्रकृति की रहस्यमयी प्रक्रिया को सुलझाने का दावा करने वाले नोवेल लारियेट भी नेति नेति की पुकार लगाने लगे हैं | क्लोनिंग की समस्यायें और अल्पकालीन जिजीविषा उभर कर सामने आ चुकी है |
                                             जैविक गुण सूत्रों का सूक्ष्म विश्लेषण नयी मीमांसाओं की मांग कर रहा है | बौनी मानव बुद्धि ब्रम्हाण्ड के अपार विस्तार में उलझकर दिशाहीन सी हो गयी है | प्रोफ़ेसर हॉकिन्स ब्लैक होल की थियरी लेकर रहस्य व्याख्या का प्रयत्न कर रहे हैं जबकि आकाश गंगाओं का उत्फूर्जन और विकरण किसी भी नियम संहिता को चुनौती दे रहा है | सत्य अभी बहुत दूर है और सत्य को क्या कोई मरणशील शरीर में पलती चक्षुबिन्दुओं से देख सकने की क्षमता रखता है | ज्ञान -विज्ञान का अहंकार कुछ राष्ट्रों को इतना निरंकुश बना चुका है कि वे संसार को एक ठोकर मारने वाला खिलौना समझ बैठे हैं ,उनका दंभ्भ है कि वे मानव मात्र के नियामक हैं और वे मानव संतति को अपनी इच्छा के अनुसार आरोपित जीवन पद्धतियों में बाँध देंगें | भारत यह अहंकार न जानें कितनी बार देख चुका है और अभिमान से भरी न जानें कितनी संस्कृतियों को रेत के विशाल विस्तारों में बदलता देख चुका है | केवल मानव संस्कृति ही नहीं देव संस्कृति भी अहंकार के इस विस्फोट से कितनी बार निर्मूल हो चुकी है | तभी तो महाकवि प्रसाद ने कामायनी में मनु से यह विचार व्यक्त करवाये हैं |
                           " देव न वे थे ,देव न हम हैं
                              सब परिवर्तन के पुतले
                             हाँ कि गर्व रथ में तुरंग सा
                             जो चाहे जितना जुत ले |"
                                                                         तो मित्रो ,हमें दंभ्भ नहीं सकारात्मक आत्म गौरव से प्राणशक्ति लेनी होगी | पाश्चात्य जीवन पद्धति को सर्वोत्तम मानकर अपनी जीवन पद्धति को हींन  भाव से देखना दासत्व की पहली पहचान है | भारत भारती की जिस पंक्ति ने स्वतन्त्रता संग्राम के निर्णायक क्षणों में राष्ट्र में प्राण फूंके थे वह शक्ति आज फिर और अधिक सार्थक हो उठी है | " हम कौन थे, क्या हो गये ,सोचो विचारो तो सही |' माटी' का प्रकाशन भारतीय अस्मिता की अमर गौरव गाथा को हर हाट बाट में प्रसारित करने का रचनात्मक प्रयास है | हम चाहेगें कि संसार से आती हुयी हवाओं की ताजगी हम अवश्य लें ताकि हममें और अधिक स्वस्थ रक्त का संचरण हो सके पर स्वांस प्रक्रिया का संयन्त्र तो हमारी अपनी स्वस्थ देंह में ही परिपुष्टता पा सकेगा | अंधी गुलामी मानसिक वैश्यावृत्ति है और नयी पीढ़ी को हम इस ओर नहीं बढ़ने देंगें | महान उपलब्धियां सहज और सीमित प्रयासों को भक्ति और तत्परता के साथ निरन्तरता देने से आती हैं | अपने सीमित साधनों लेकिन अपार विश्वास का बल लेकर 'माटी ' इस दिशा में सक्रिय है | पत्रिका प्रकाशन के नाम पर हमारे देश में बहुत से प्रकाशन ऐसे हैं जो भोंडी नक़ल के अतिरिक्त कुछ नहीं | पाश्चात्य जीवन में भी काफी कुछ ऐसा है जो यदि अनुकरणीय नहीं तो ग्रहणीय तो अवश्य कहा जा सकता है पर निराशा की बात तो यह है कि जीवन्त स्पन्दनों को छोड़कर मृत औपचारिकताओं के पीछे दौड़ना हमारी युवा पीढ़ी की मानसिकता बनती जा रही है | इसमें बहुत कुछ दोष हमारी शिक्षा पद्धति का रहा है | मानव विकास की भ्रामक धारणायें फैलाना और प्रजातीय विशेषताओं की विरुदावली गाना साम्राज़्यवादी व्यवस्था का एक संयोजित संयन्त्र रहा है | भारत विश्व की श्रेष्ठतम  संस्कृति का प्रतीक होने के नाते इस संयंत्र का और उसके परिणाम स्वरूप देशीय संस्कृति के अधपतन का विशेष लक्ष्य बनता रहा है | स्वतन्त्रता के पश्चात  भी राष्ट्रपिता महात्मा गान्धी का 'हे राम '  और 'वैषण्व जन तो तेनें कहिये जे पीर परायी जानें रे | 'को भुलाकर हम भ्रामक मार्क्सवादी भूल भुलैयों में फंस गये | फलस्वरूप भारत का इतिहास हमारे राष्ट्रीय महापुरुषों के उपहास का कारण बन गया | हमारी सर्व सहिष्णु धार्मिक परम्परायें और हमारी मूल राष्ट्रधर्मिता ठिठौली भारी वाग्मिता के घेरे में फंस गयी | लगभग पांच दशकों तक ऐतिहासिकता के नाम पर जो कुछ पढ़ाया गया वह मात्र एक आरोपित और विकृत साम्यवादी दर्शन का एक आरोपित रूप था | अयोध्या नगरी और मथुरा नगरी की ईसा पूर्व अस्तित्व संम्भावनाओं और प्रस्तार संम्भावनाओं पर प्रश्न चिन्ह लगाये गये | मानव श्रष्टि के सर्वोत्तम विकास संम्भावनाओं से परिपूर्ण मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम और निष्काम कर्म अमर विचारक वंशीधर श्री कृष्ण के अस्तित्व पर बचकानी टिप्पणियां लिखी गयीं | एक क्षण को भी इन छद्म इतिहासकारों ने यह नहीं सोचा कि वे मात्र तत्कालीन शासन से झूठी प्रशंसा और झूठी कागजी मुद्रा पाने के लिये राष्ट्र का कितना अहित कर रहे हैं | ऐसे ही कपूतों ने परतन्त्रता के लम्बे काल प्रस्तार में मां भारती का मुंह काला किया है | प्रभात की नयी बयार चल निकली है | अन्धकार की अभेद्य चादर भेदकर रश्मि रथ पर सवार राष्ट्रीय चेतना का भाष्कर गतिमान हो चुका है | 'माटी ' का सम्पादक मण्डल इस दिशा में अग्रगामी पहल करेगा और असत्य के अम्बारों को अग्नि समर्पित करके उसकी भष्म से नयी मान्यताओं का संवर्धन सम्पोषण करेगा | हम चाहते हैं कि प्रत्येक पाठक यह मान कर चले कि अपने और अपने परिवार के प्रति उसका उत्तरदायित्व तभी पूरा माना जायेगा जब वह राष्ट्रीय चेतना के लिये निरन्तर समर्पित रहेगा और यदि आवश्यकता पड़े तो महत्तर हितों के लिये लघुत्तर हितों का परित्याग करेगा | ऐसा नहीं है कि पाश्चात्य के विचारकों ,कवियों और सृजनकारों ने भारतीय दर्शन को सदैव ही हींन भाव से देखा हो कवि वर्ड्सवर्थ जब यह लिखता है |
                 "Trailing clouds of glory do we come from God ,That is our home or our birth is but a sleep and a forgetting."  तो वह भारतीय जीवन दर्शन को ही अंग्रेजी स्वरों में ढाल रहा है | या आधुनिक काल में जब T. S.Eliot यह लिखते हैं " I have measured my life in coffee spoons ."तो वे एक तरीके से भारतीय दर्शन में अन्तर्निहित जीवन की उच्चतर भावभूमि की तलाश की बात ही करते हैं | अमेरिकन Emerson और Thorean तो भारतीय दर्शन से अनुप्राणित ही हैं | इतना होने पर भी अंग्रेजी का अधकचरा ज्ञान रखने वाला सामान्य भारतवासी भी विकलांग शिक्षा के कारण पाश्चात्य जीवन पद्धति अपनानें की गुलामी लेकर बड़ा होता है | उसे नहीं बताया जाता है कि हम पहिनाव -उढ़ाव ,खान -पान ,स्वागत -समारोह ,या अन्य सांसारिक रीतिरिवाजों के न जानें कितने विविधता भरे मार्गों से गुजर चुके हैं | हम कितनी बार कंठ लंगोट लगा चुके हैं ,कितनी बार सुथ्थन पहन चुके हैं और कितनी बार सुरा -सुंदरी का अप्रतिबन्धित जीवन दर्शन जी चुके हैं | इसमें ऐसा कुछ नहीं है जो भारत नहीं जनता और सच पूछो तो यह भारत का फेंका हुआ जीर्ण शीर्ण आवरण तन्त्र या केंचुल है जो दुनिया आभूषण समझ कर पहिन रही है | हाँ कुछ है ऐसा जो भारत का ,भारतीय जीवन दर्शन का , भारतीय आचार संहिता का और भारतीय अस्मिता का प्राणतत्व है | और जिसे संसार के कुछ अत्यन्त विशिष्ट आत्म संम्पन्न व्यक्ति ही समझ पाये हैं | यह है भारत की जल में पलकर भी कमल जैसी निर्लिप्त रहने की क्षमता | यह है भारत की निष्काम समर्पण भावना - "त्वमेव वस्तु गोविन्दम तुभ्यमेव समर्पये "
                        'माटी 'किसी भी एकांगी दर्शन में विश्वास नहीं करती | एक समन्वित जीवन पद्धति ,अनेकान्त दर्शन से अनुप्रेरित जीवन द्रष्टि और ब्रम्हाण्डीय विस्तार की प्राणवत्ता उसका आधार है | हर धर्म के मूल में मानव कल्याण की भावना सन्निहित है | "सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः |"सुदूर अतीत से गूँज कर आता यह स्वर हमें झकझोर देता है ,अनुप्रेरित करता है और प्राणवान बनाता है - "तमसो मा ज्योतिर्गमय ,मृत्यो मा अमृतम गमयेत |"
                                                 आइये महाकवि मिल्टन के इन शब्दों के साथ हम अपनी बात समाप्त करें |
"IllumineWhat is dark in me, Raise and support to the height of that argument so that I  may justify the ways of God to man ."
'माटी ' संस्कृति उत्थान के इस श्रमसाध्य मार्ग पर चल निकली है | हम आपके सहयोग की आकांक्षा करते हैं और महाकवि गुरु रवीन्द्र का यह अमर सन्देश हमारे पास है ' यदि तोर डाक सुने ,केऊ न आसे | तबे तुम इकला चलो ,इकला चलो रे || 'पर हम हिन्दुस्तानी में भी विश्वास करते हैं क्योंकि भारतवासी होकर भी आखिर हम हिन्दुस्तानी ही तो हैं | तो आइये इस चिर -परिचित  शेर को एक बार फिर दोहरावें " हम अकेले ही चले थे जानिबे मंजिल मगर ,हमसफ़र मिलते गये और कारवाँ बनता गया |" (क्रमशः )
                

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