Monday 2 October 2017

(गतांक से आगे )               'माटी  ' परिवार विदेशी परम्पराओं के अंधानुकरण में विश्वास नहीं रखता | वह औपनिशदिक युग  की विवेक और मीमांसा पद्धति में विश्वास करता है | ब्रम्हाण्ड के मूल में क्या है यही प्रश्न तो केनोपनिषद ने उठाया था | केना का अर्थ है किसके द्वारा अर्थात वह कौन सी परम शक्ति है जो चेतन -अचेतन को गतिमान या नियन्त्रित करती है | और फिर त्रिकालदर्शी श्रुतिकार स्वयं उत्तर प्रस्तुत करते हैं कि यह वह शक्ति है जो मस्तिष्क को चिन्तन शक्ति से सुनियोजित करती है | यह स्वयं में मस्तिष्क की विचार सीमा से परे है पर मानव मस्तिष्क को अपनी असीमित ऊर्जा का एक अंश देकर यह गतिमान करती रहती है | यही शक्ति आँखों को द्रष्टि देती है ,कानों को श्रवण शक्ति देती है ,और श्वांस प्रक्रिया का नियमन करती है | इन्द्रियों की गतिमयता और क्रियाशीलता उसी परमशक्ति से संचालित है और यही कारण है कि मस्तिष्क चिन्तन के क्षणों में उस शक्ति का आभाष करके भी उसका सम्पूर्ण आकलन नहीं कर पाता | एक कौंध भरी झलक उसे यह अहसास तो कराती है किसी ब्रम्हाण्ड व्यापी परमसत्ता के कौतूहलपूर्ण प्रचलन प्रक्रिया का | यह अहसास मानवजनित किसी भी भाषा में सम्पूर्णताः व्यक्त नहीं हो पाता | इस अहसास को प्रत्येक व्यक्ति अपनी आन्तरिक क्षमता के अनुरूप अनुभव करता है और यदि सदाशयी और आत्मप्रेरित ऐसे कुछ व्यक्ति मिल बैठें तो उच्च आदर्शों से प्रेरित एक नयी चिन्तना का प्रकाश फ़ैल उठता है | xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx
                                  भारत में एक लम्बे काल से कार्यरत कई प्रकाशन मनोभूमि में नयी ऊर्जा का लाने का काम नहीं कर रहे हैं | वे भूंडी सम्पन्नता का प्रदर्शन करते हैं और विदेशी संस्कृति के क्रीत दास बनते जा रहे हैं | भोगवादी व्यवस्था इन मण्डलियों में चरम परिणित पर पहुँच चुकी है भले ही वह समाज सेवा और विपन्नता उन्मूलन की चादर ओढ़े हुये हों | ' माटी ' भारत की उभरती प्रतिभा को जीवन्त आदर्शों की ऊर्जा से अनुप्रेरित करने के लिये आगे आयी है | प्रतिभा अपने में देश काल और प्रस्तार की सीमाओं से परे होती है उसे कटघरे में बांधकर नहीं रखा जा सकता ,पर उसे यदि मानव कल्याण की ओर प्रेरित कर दिया जाये तो उसमें अपार संम्भावनायें छिपी रहती हैं | यदि प्रेरक शक्ति बचकाने चिन्तन की उपज हो और यदि उसमें इन्द्रिय विलास का रसायन घुला हो तो प्रतिभा मानव जाति के लिये वरदान की जगह अभिशाप भी बन सकती है | अन्तर्राष्ट्रीय जगत में इतने उदाहरण हैं नकारात्मक चिन्तन और नकारात्मक शक्ति प्रयोग के जिन्होनें मानव जाति का अकल्पनीय अहित किया है | भारत के सन्दर्भ में भी इस प्रकार के अनेक खलनायक और चरवाकीय चिन्तक पाये जाते हैं पर भारत की सबसे अनूठी विशेषता रही है पथ भ्रमित विस्फोटक प्रतिभा पर कल्याणकारी मानवीय मूल्य पद्धति का नियन्त्रण | यह मूल पद्धति धर्म ,नैतिकता ,आत्माहुति ,और तपश्चरण आदि कई नामों से व्यक्त होती रही है | परतन्त्रता के काल में एक लम्बे दौर से गुजरने के बाद भारतीय जीवन मूल्यों की चमक जब कुछ धीमी पडी थी तब इसे फिर से प्रच्छालन पद्धति द्वारा बंकिम चन्द्र , राम मोहन राय ,सुब्रमण्यम भारती आदि आदि ने प्रांजलता प्रदान की थी और फिर तो महापुरुषों का एक युग ही शुरू हो गया | बलिदान ,त्याग और आत्म उत्सर्ग की होड़ लग गयी | राष्ट्रीय गौरव के लिये सब कुछ निछावर करने की भारतीय ऋषि परम्परा अपने सम्पूर्ण वेग से उभर पडी | पर आज स्वतन्त्रता के बाद एक बार फिर हमारे जीवन की ,हमारे जीवन मूल्यों की वेग मयी धारा शैवाल भरे वर्तुल चक्रों में फंस गयी है | हम हीन भाव से ग्रस्त हो रहे हैं | हमारी मातायें ,बहनें ,बेटियां नारी शरीर के सौन्दर्य का बाजारीकरण मन्त्र अपनानें लग गयी हैं | तभी तो कविवर पन्त को लिखना पड़ा " आधुनिके ,तुम और सभी कुछ एक नहीं तुम नारी |"
                                          सौन्दर्य प्रसाधनों का बाजार भारतीय विश्व सुन्दरियों के बलबूते पर फैलने ,फूलने लगा है | महिलायें कभी वृद्धा न बनना चाहें यह तो समझ में आ सकता है पर पुरुष भी हास्यास्पद वासना से प्रेरित होकर सदैव तरुण ही बना रहना चाहे पाश्चात्य क्लब सभ्यता की विशेष देन ही है | प्रत्येक 'माटी 'पाठक को इस पतनशील मनोवृत्ति को रोकने के लिये प्रतिबद्धित होना पड़ेगा | बालपन का अपना सौन्दर्य है और तरुणायी का अपना शक्ति प्रस्तार | पर वार्धक्य भी एक गौरव की बात ही है , अवमानना ,तिरस्कार या उपेक्षा की नहीं | सतत ऋषि साधना से ही भारत की सामूहिक आयु रेखा अन्तर्राष्ट्रीय जीवन रेखा से ऊपर जा सकेगी | हम मात्र कैप्सूल और इन्जेक्शन लेकर ही लम्बे जीवन की कामना न करें वरन सहज जीवन शक्ति को प्रकृति के सामंजस्य पूर्ण सहभागी बनकर प्राप्त करें | तभी तो सुदूर सहस्त्रों वर्ष पूर्व वृक्षों की अविरल व्यूह रचना में बैठे या सरिता तटों पर विचरते ऋषि ने गाया था -
            "  जीवेन शरदः शतम
               श्रणुयाम शरदः शतम
               पुब्रयाम शरदः शतम |"
       यह है भारतीय जीवन की कामना विकलांग पलंग सेवी निष्क्रिय जीवन की नहीं वरन स्वस्थ्य निर्माण समर्पित उच्चतर सोपानों की ओर बढ़ते निरन्तर उर्ध्वगामी जीवन स्पन्दनों की | और भारत ही नहीं पाश्चात्य संस्कृति में आशावादी कवियों का स्वर बुढ़ापे को नकारात्मक द्रष्टि से न लेकर सहज स्वीकारता हुआ हमें अपनी ओर बुलाता है |
                           " Grow old along with me
                             for the best in yet to come
                             the last for which the first was made ."
(क्रमशः )

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