Saturday 16 September 2017

                               गन्ध अपनें में न तो आनन्द देनें का सकारात्मक भाव छिपाये है न नकारात्मक । गन्ध में उपसर्ग जोड़कर ही हम उसे सुरूपता  या कुरूपता  प्रदान करते हैं । गन्ध जब सुगन्ध बन जाती है तब सभी उसकी चाहना करते हैं और गन्ध जब दुर्गन्ध बन जाती है तो उससे दूर हट जानें का प्रयास किया जाता है । पर सुगन्ध और दुर्गन्ध इन दोनों भावों के अतिरिक्त गन्ध की और कोई ऐन्द्रिक अनुभूतियाँ भी न केवल संभ्भव हैं बल्कि चर्चा का ठोस धरातल प्रस्तुत करती हैं । हमारे प्राचीन कथा ग्रंथों में गन्ध मादन पर्वत का अनेक बार उल्लेख हुआ है । गन्ध में मादन जोड़कर एक नये भाव की श्रष्टि की गयी है । मादन में मदमस्त करनें का भाव है ,मदन से सम्बन्धित होनें के कारण मदन काम भावना का उत्प्रेरक  भी है और मादन  में शिथिल ,निष्क्रिय किन्तु आनन्द तरंगायित जीवन जीनें का भाव भी छिपा हुआ है । अंग्रेजी में टेनीसन की प्रसिद्ध कविता ( Lotous Eaters) में जिस खुमार भरी मस्ती को अभिप्रेत बनाया गया है कुछ वैसी ही मनोभूमि गन्ध मादन पर्वत की समतल चट्टानों ,चोटियों और उपत्यकाओं में अनुभूति के स्तर पर जीवन्त होती जान पड़ती हैं । ग्रीष्म की प्राण लेवा गर्मी के बाद जब बादलों की बक पंक्ति पहली तीब्र बौछारें  छोडती है तब नंगीं ,जलती धरती से जो गन्ध निकलती है उसे न तो सुगन्ध कह देनें से सार्थकता मिलती है और दुर्गन्ध कहनें का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता । उस गन्ध को व्यक्त करनें के लिये कौन से अनुप्रास ,विशेषण या लोकभाषा के शब्द लिये जांय इसपर गहरी खोज की आवश्यकता है । 'माटी ' की वह गन्ध सोंधीं है ,हिँगाई है ,अदरखी है ,कसैली है ,नशैली है या निमैली है यह ठीक से नहीं कहा जा सकता । शायद वह यह सब है और इस सबके अतिरिक्त भी और कुछ है । तभी तो 'माटी 'कभी मरती नहीं  जीवन की आदि का प्रतीतात्मक प्रस्तार मानी जाती है । उसके अपार रंग ,रूप और आकार हैं पर वह निराकार भी है क्योंकि उसमें मिलकर सभी आकार निराकार हो जाते हैं । गन्ध मादन पर्वत की गुफाओं में   रहनें वाले मुनि असित अपनें पास ज्ञान पाने की अभिलाषा लेकर आने वाले जिज्ञासुओं को कुछ ऐसा ही उपदेश देते रहते थे । यदि जिज्ञासु जीवन और मरण के प्रश्न पूछते तो  उनका संक्षिप्त उत्तर यही होता था कि 'माटी 'ही जीवन है और 'माटी 'ही मृत्यु है । अभी तक यह मेरा देश है और वह तुम्हारा देश है ऐसा भाव मानव जाति के मन में नहीं आया था । चन्दन है 'माटी ' मेरे  देश की जैसे गीत अभी नहीं लिखे जाते थे क्योंकि पूरी धरती ही अभी सबका देश थी सम्पूर्ण आकाश का प्रस्तार और सम्पूर्ण धरित्री का विस्तार अभी तक मानव जाति की साझा सम्पत्ति थी ।
                                गन्ध मादन की भौगोलिक स्थिति के विषय में सुनिश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता । वह एक स्वतन्त्र पर्वत श्रृंखला थी या किसी पर्वत श्रंखला का कोई विशिष्ट पर्वतीय क्षेत्र था इस विषय में भी परस्पर विरोधी विचार व्यक्त किये गये हैं । मैक्समूलर से लेकर राहुल सांकृत्यायन ,डा ० संकालिया और नयन ज्योति (लाहिरी ) सभी नें पूर्व वैदिक काल में भिन्न -भिन्न नामों से अभिहित भौगोलिक श्रंखलाओं ,क्षेत्रों और स्थानों को कोई ठोस  वैज्ञानिक आधार प्रदान करनें में सफलता नहीं पायी है । क्या पता गन्ध मादन में उन सोम लताओं की महक हो जिनसे रस का पान करना वैदिक आर्यों के लिये अन्तरसुख की पराकाष्ठा मानी जाती थी और क्या पता गन्ध मादन में भी कस्तूरी हिरण फिर रहे हों जो आजकल सिक्किम राज्य के ऊपर हिमालयी क्षेत्रों में मिळते हैं । जो कुछ भी हो  यह तो मान कर चलना ही चाहिये कि गन्ध मादन की ऊँचाइयों पर आस -पास के आदिवासी ग्रामों के युवक और युवतियाँ आनन्दोत्सव मनानें के लिये तो घुमक्कड़ के रूप में आते ही होंगें । असित मुनि नें गन्ध मादन की उपत्यिकाओं में स्थित एक दीर्घाकार गुफा को अपना निवास स्थान  क्यों बनाया इस पर भी कोई बहुत विश्वसनीय तथ्य प्रस्तुत नहीं किये जा सकते । गहरे चिन्तन के बाद भी मैं अभी तक बिल्कुल स्पष्ट ढंग से यह नहीं समझ पाया हूँ कि ऋषियों और मुनियों में क्या अन्तर होता है ?क्या हर ऋषि मुनि भी होता है ?या यों कहें कि क्या हर मुनि ऋषि भी होता है ?मुझे लगता है कि कहीं इस विभाजन के पीछे भी कोई वर्ण व्यवस्था या धर्म सम्प्रदाय व्यवस्था रही होगी । इन दिनों तो जैन सम्प्रदाय में ही मुनियों ,महा मुनियों और परम मुनियों का यशोगान जोर -शोर से सुना जाता है । तो असित मुनि ऋषभ परम्परा में से थे । मृगछाला को अधोवस्त्र के रूप में पहनकर वे कटि से ऊपर का भाग अनावरित ही छोड़ देते थे । वे अभी तरुण ही थे और उनका पुष्ट शरीर और बालों से ढका विशाल वक्ष ,लम्बी केशराशि और श्मश्रु देखनें वाले पर गहरा प्रभाव छोड़ते थे । उनके चेहरे पर तरुणाई और ज्ञान की ज्योति झलकती थी । शरीर का रंग श्यामल होनें के कारण ही उन्हें असित कहा जाने लगा था । जिन दिनों की यह बात है उस काल में संसार छोड़कर परम तत्व की खोज में जंगलों ,पहाड़ों और गुफाओं में पूजा ,याचना और भिन्न -भिन्न यौगिक क्रियायें करना ही जीवन का सर्वोत्तम लक्ष्य माना जाता था । सांसारिकता उपेक्षा की द्रष्टि से देखी जाती थी । ममत्व ,प्यार और लगाव इन सबको बन्धन के रूप में स्वीकृति मिली हुयी थी । मुनि असित भी सारी मोह रज्जुओं को काटकर जीव तत्व को अन्तरिक्ष में मुक्त रूप से भ्रमण करने योग्य बनानें के लिये प्रयत्न रत थे ।
                                                अब गन्ध मादन पर्वत के आस -पास घनें जंगलों में और उसकी निचली ढलानों की घनी सुगन्धित झाड़ियों में न जाने कितनें किस्म के वन्य पशु और पक्षी विचरण करते रहते थे । इनमें से कुछ वन्य पशु मांस जीवी भी होंगें पर अभी तक नर -मांस की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि प्रकृति नें उनके लिये भोले -भाले वन्य प्राणियों के रूप में विपुल सामिग्री जुटा दी थी । मन को मुग्ध करने वाला रूप रंग लेकर हिरणों की न जानें कितनी प्रजातियाँ वन्य क्षेत्रों में घूमा करती थीं । गन्ध मादन के केन्द्र क्षेत्र में कुछ ऐसी मादक वायु चलती थी कि उसके नशे से खिंचकर हिरणों के झुण्ड वहां चले आते थे । हिरणों के एक ऐसे ही झुण्ड में एक गर्भवती हिरणी भा आ गयी और उसी क्षेत्र में उसके प्रसव का समय भी आ गया । पर न जानें कहाँ से 10 -15  श्यामल और सुरमयी आदिवासी युवक -युवतियों की टोली वहां वसन्तोत्सव मनानें के लिये अपनें गीतों को ऊँचें स्वरों में गाती आ पहुंचीं । कइयों के हाथ में पशुओं की सींगों से बनी हुयी तुरहियां थीं ,कइयों के हाथ में पशुओं के खाल से मढ़े हुये डफ और डमरू थे । एक दो तो वक्राकार लकड़ियों को आपस में टकराकर संगीत का कुछ ऐसा ही स्वर निकाल रहे थे जैसे मंजीरों की झंकार से निकलता है । उनको देखते ही हिरणी की टोली भग  खड़ी हुयी । सन्तान को जन्म देनें वाली हिरणी नें आस -पास भयभीत नेत्रों से देखा और पाया कि नवयुवक और नवयुवतियाँ उसे घेरने को बढ़ रहे है । कुछ क्षण वह ठिठकी हो सकता है अपनें प्राणों की बाजी लगाकर वह अपनी सदयजाता सन्तान के पास खड़ी रहना चाहती हो । पर  फिर आत्मरक्षा का भाव सन्तान प्रेम पर प्रबल पड़ा और वह भगकर झाड़ियों की ओट में ओझल हो गयी । तब हिरण शावक पैरों पर उठकर खड़ा होनें की कोशिश कर रहा था । अब मस्त युवक - युवतियों ने उसे चारो ओर से घेर लिया । कहा नहीं जा सकता कि वे क्या करते -उसे उठा ले जाते या उसे वहीं छोड़ देते ताकि उसकी माँ उसे अपनें साथ आकर ले जाय । यह भी हो सकता था कि खिलवाड़ -खिलवाड़ में मृग शावक के प्राणों पर बन आये । वह आदिवासी युवक यदि मांसाहारी रहे  हो तो उस नन्हें मृग शिशु के जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी खड़ी हो जाती । पर शायद ऐसा न भी होता क्योंकि उस समय कन्दमूल फल की इतनी प्रचुरता थी कि थोड़े परिश्रम से ही मुमुक्षा की शान्ति हो जाती थी जो भी होता यह सब  अनुमान मात्र ही है पर जो हुआ उसे सुखद ही कहा जायेगा । ठीक इसी समय असित मुनि वहां घूमते आ पहुंचें । उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व नें उस तरुण टोली पर अपना असर छोड़ा । बिना कुछ बोले वे मृग शिशु के पास गये और उसे अपनी गोदी में उठाकर अपनी गुफा की ओर चल पड़े । तरुण -तरुणियों की टोली खिलखिलाती हुयी डफ और तुरही बजाती हुयी दूसरी दिशा में चली गयी ।
                           उत्सव में पागल तरुण -तरुणियों की टोली के हटते ही माँ हिरणी फिर उस स्थल पर आयी । अपने नवजात शिशु को वहां न पाकर उसनें आसपास अपनी भोली सुन्दर आँखों से देखा और फिर न जाने कैसी वह जा गयी कि उसका शिशु किस ओर ले जाया गया है । प्रकृति नें माँ बननें की क्षमता के साथ ही साथ पशुओं और पक्षियों में कुछ ऐसी प्राणशक्तियाँ भी विकसित कर दी हैं जिनके सहारे वे अपनें शिशुओं के स्थान को पहचान लेते हैं  । हिरणी असित मुनि के गुफा के द्वार पर आ गयी । असित मुनि नें उसे देखा और द्वार पर उसके शिशु को ले आये । हिरणी नें शिशु को चाट -पोंछकर और अधिक सुथरा बना दिया यों वह सुन्दर तो थी ही । शिशु स्तन पान में जुट गया । असित मुनि पास खड़े रहे ,माँ हिरणी उनसे तनिक भी भयभीत नहीं हुयी उनकी आँखों में अपार वात्सल्य का भाव था । माँ हिरणी को जैसे एक रक्षक मिल गया हो । स्तनपान करने के बाद जब शिशु हिरणी के पीछे चलनें जाने को हुआ तो उसकी माँ नें अपनें मुंह से शिशु को प्यार भरा धक्का देकर असित मुनि की ओर जाने को प्रेरित किया । मुनि असित हिरणी के मन का भाव समझ गये । उन्होंने आगे बढ़कर हिरणी के पीठ पर भी वात्सल्य भरा हाँथ फेरा । हिरणी उछलती -कूदती दूर चली गयी । असित मुनि को विश्वास हो गया कि अपनें शिशु को संरक्षित पाकर हिरणी निश्चिन्त हो गयी है अब वह गुफा पर थोड़े -थोड़े अन्तराल के बाद आती रहेगी और शिशु को तबतक स्तन पान कराती रहेगी जब तक वह वन में में उग रही घास -पात खाना सीख नहीं जाता ।
                    हिरणी का मातृत्व तो सम्पूर्णतः सफल रहा पर मुनि असित के जीवन में चिन्तन के धरातल पर एक हड़कम्प मच गया । ध्यान करते समय शिशु हिरणी उनके पास बैठी रहती । वह बाहर घूमते तो उनके साथ उनकी टांगों को प्यार भरा स्पर्श देती हुयी साथ -साथ चलती । कुछ दिन बाद जब वह घास -पात खानें लायक हो गयी तो वह माँ हिरणी के साथ बाहर अवश्य जाती पर फिर शाम को माँ हिरणी उसे गुफा के द्वार पर छोड़ जाती और वह सारी रात गुफा में ही असित मुनि के पास गुफा में सोती रहती । शिशु हिरणी की प्यार भरी भोली आँखें ,उसका सुन्दर लचीला शरीर और उसकी मनमोहक उछल -कूंद असित मुनि के मन में एक गहरे लगाव का भाव पैदा करनें लगी । कुछ दिन बाद एक दिन शाम को जब वह माँ हिरणी के साथ कुछ देर में आयी तो उन्हें लगा कि उनकी गुफा में कुछ सूनापन है कि उनका मन ध्यान में नहीं लग रहा है । कि कोई भोला नन्हां प्राणी अब उन्हें एकटक पास बैठा देख नहीं रहा है और यह अनुभूति उनके मन में विचलन पैदा कर रही है । असित मुनि नें ' ओम नमो : अरिहन्त का कई बार पाठ किया । निश्चय किया कि वह मोह से ऊपर उठेंगें और नन्हीं हिरणी जब अपनें पैरों पर खड़ी हो गयी है तो उसे माँ के साथ ही रहनें के लिये विवश करेंगें । वह टोली में रहना सीखे यही हिरण प्रजाति का प्रकृति द्वारा बनाया हुआ भाग्य है । उनके शिकार तो होते ही रहेंगें । क्या किया जा सकता है । अगले दिन जब माँ हिरणी उसे अपने साथ गुफा के द्वार तक लायी तो उन्होंने मुँह दूसरी ओर कर लिया और बेरुखी का भाव दर्शाया पर शिशु हिरणी उनके पीछे खड़ी होकर उनकी टांगों पर अपनें मुँह से प्यार भरा स्पर्श देने लगी । वह हटनें का नाम ही नहीं ले रही थी । माँ हिरणी नें कुछ देर तक प्रतीक्षा की फिर वह छलांगे  लगाकर वन में छिपी अपनी टोली में पहुँच गयी ,शिशु हिरणी वहीं खड़ी रही । असित मुनि का मन मुलायम होने लगा । चलो आज रात रख लेते हैं कल शाम से तो कतई नहीं आने देंगें । अगले दो -तीन दिन तक यही द्रश्य चलता रहा अन्तर इतना था कि हर शाम वह ज्यादा लम्बे समय तक मुँह उल्टा किये खड़े रहते ,धीरे -धीरे मुँह से दोहराते नहीं नहीं माँ के पास जाओ पर शिशु हिरणी थी जो अपने पोषक पिता के पास से जाने का नाम ही नहीं लेती । प्यार किसे कहते हैं इसका अनुभव अभी तक असित मुनि को नहीं हुआ था । इस शिशु हिरणी नें उन्हें सबसे पहली बार प्यार की अनुभूति प्रदान की । असित मुनि हारने लगे । लगभग दस एक दिन के बाद उन्होंने स्वप्न में देखा कि उनके मत के आदि गुरू ऋषभ  मुनि तारा पथ से उतरकर उनकी गुफा में आये और फिर उन्होंने असित मुनि के पास बैठे शिशु हिरणी की पीठ पर वात्सल्य भरा हाँथ रखा । उनकी नीन्द खुल गयी ,उन्होंने फिर दोहराया ॐ नमो अरिहन्त । एक बार फिर सोचा क्या मैं माया में फंस रहा हूँ और तय किया कि वे मोह के रज्जु काट देंगें । कुछ भी हो जाय वे अब शिशु हिरणी को गुफा में नहीं आने देंगें । अगली शाम जब माँ हिरणी उसे छोड़ने आयी तो उन्होंने मुँह तो पीछे किया ही पर बार -बार अपना दायां हाँथ पीछे चलाकर शिशु हिरणी को अपनी माँ के साथ जानें को विवश करते रहे । शिशु हिरणी कभी दूर खड़ी माँ के पास जाती फिर लौटकर उनकी टांगों पर पीछे से मुंह चलाकर प्यार भरा स्पर्श देती । इस प्रकार लगभग आधा पहर बीत गया । अन्धेरा घना होनें लगा । गुफा द्वार असित मुनि नें रोक ही रखा था । उधर माँ हिरणी अन्धेरे के डर से भगकर जाने लगी तो शिशु हिरणी भी उसके पीछे चल पडी । पर अभी कुछ ही समय बीता होगा जंगली कुत्तों के भूकनें की आवाज आयी । असित मुनि ध्यान पर बैठे ही थे कि गुफा के द्वार पर हाँफती भयभीत आँखें लिये और अपने पृष्ठ भाग में रक्त की बूँदें टपकाती उनकी शिशु हिरणी गुफा द्वार पर खड़ी दिखायी दी । जंगली श्वानों का दल इस उपत्यिका में उनके डर से नहीं आता था इसलिये अब शिशु हिरणी को प्राणों का ख़तरा नहीं था । असित मुनि उठकर गुफा द्वार पर आये अपनी हिरण पुत्री की आँखों को देखा । उन आँखों में इतनी अपार करुणा थी कि उनका निश्चय ढीला पड़ गया । जीव रक्षा ही तो अरिहन्त धर्म का सबसे समर्थतम सिद्धान्त है । उस रात स्वप्न में ऋषभ देव नें शिशु हिरणी पर वात्सल्य भरा हाँथ फेरा था । मैनें उसका गलत अर्थ लगाया ,उन्होंने मोह रज्जु काटनें की बात नहीं कही थी उन्होंने मोह रज्जु का सहारा लेकर  ऊपर उठनें की बात कही थी । मोह बांधता ही नहीं मुक्त भी करता है । अपनों के लिये ,अपनी सन्तान के लिये किया हुआ हमारा त्याग हमें उदार बनाता है । हम स्व से उठकर पर के लिये जीना सीखते हैं और उस पर में स्व की झांकी पाते हैं और फिर धीरे -धीरे परिवार का त्याग ही सामाधि ,राष्ट्र और मानवता के लिये त्याग करनें की प्रेरणा देता है । यही तो अरिहन्त दर्शन है । यही तो ऋषभ देव का सन्देश है ,उठकर उन्होंने अपना  वात्सल्य भरा हाँथ शिशु हिरणी की पीठ पर फेरा ,एक छोटा घाव उसकी पूँछ  पर था पर फिर भी वह उछलकर उनके पास आ खड़ी हुयी । असित मुनि के मन में करुणा की गंगा बह उठी । उन्होंने प्यार से शिशु हिरणी को वहीं गुफा में बैठने को कहा और स्वयं गुफा में रखे एक दण्ड को उठाकर बाहर निकल गये । कुछ औषधि गुण से भरी पत्तियाँ लानी होंगीं जिन्हें कुचलकर उस छोटे घाव को भरा जा सकेगा । असित मुनि इस उपचार से प्रभावी रूप से परिचित थे और उन्हें विश्वास था कि उनकी हिरण पुत्री अब एक लम्बा संरक्षित जीवन जियेगी ।
                               जब वे एक लता झालर से पत्तियाँ चुन रहे थे तो उन्होंने देखा कि उनके पास से सुरमयी रंग की एक सलोनी आकर्षक रंग की युवती उनकी ओर प्यार भरी द्रष्टि से देखती हुयी निकल गयी । इस युवती को आस -पास की लताओं के बीच कई बार देखा था पर आज तक उसके आकर्षक नेत्रों नें उनका ध्यान कभी नहीं खींचा था । पर आज इस अँधेरे में भी उस नवयुवती का आकर्षण उन पर जादू कर गया । पहली बार उन्होंने प्यार के कई रूपों की छवियाँ मानस पटल पर देखीं । कौन जाने हिरण पुत्री के लिये किसी मानसी माँ की तलाश शुरू हो जाय ?निर्मल प्यार की नौका पर सवार हुये बिना क्या यह भवसागर पर किया जा सकता है ।










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