Monday, 21 August 2017

                                          नचिकेता धर्मराज की ड्योढ़ी पर 

पृष्ठभूमि :-लक्ष मुखी यज्ञ पूर्णाहुति के पश्चात भूमण्डलेश्वर वज्रश्ववा अपना सर्वस्व दान करने में लगे हैं | कंचन ,रजत आभूषण ,वस्त्र ,दुधारू तथा स्वस्थ पशु दान में दिये जा चुके हैं | विप्रों की एक कतार अभी भी कुछ पाने को उत्सुक है | अब क्या दिया जाये ? बूढ़े निर्बल पशु ,बाँझ गायें और मृत्तिका पात्र के अतिरिक्त शेष है  ही क्या है ?
नचिकेता कथन :-अपने पिता भूमण्डलेश्वर वज्रश्ववा को नचिकेता का प्रणाम स्वीकृत हो | महाराज , इन निरीह मरणोन्मुख पशुओं के दान से क्या लाभ ? बाँझ धेनुयें तो पाने वालों के लिये बोझा बन जायेंगीं | मृत्तिका पात्र तो तो ले जानें में ही टूट -फूट जायेंगें | आप तो अद्वितीय दानी हैं | दान का महत्त्व तो अपनी सबसे प्यारी वस्तु को दान करने में होता है | यदि वस्तुएं न रहें तो अपने प्रियजनों का दान भी दिया जा सकता है |
वज्रश्ववा :-नचिकेता तुमनें अभी -अभी कैश्योर्य छोड़ा है | तुम अभी दान की गहरी बातों को नहीं समझ पाये हो ,जो कुछ भी अपना है ,जिस किसी भी चीज में लगाव है उसका सहज भाव से दान करना और उसके वियोग में बिना तरंगायित हुये स्थिर रहना ही दानी की सबसे बड़ी उपलब्धि होती है |
नचिकेता :-महाराज मैं आपका पुत्र हूँ और आप सदैव कहा करते है कि आप मुझे संसार की सभी वस्तुओं और प्राणियों से अधिक प्यार करते  हैं | फिर आप मुझे दान में क्यों नहीं देते | बोलिये मुझे किसे दान में देंगें -उकडू स्वामी को अकड़ू स्वामी को ?
वज्रश्ववा :-नचिकेता तुमनें अभी मौन का महत्व नहीं जाना है | देखता नहीं लेने वालों की पंक्ति में छपडक जी और फनफड़ जी दोनों ही खड़े हैं | तेरी बड़बड़ के कारण वे कहीं तुझे ही न मांग लें |
नचिकेता :-जन्मदाता आप मुझे किसी योग्य पात्र को दीजिये | देना तो पड़ेगा ही | मेरे दान के बिना आपका यज्ञ सम्पूर्ण ही नहीं होगा | बोलिये मुझे किसको देते हैं | चुप क्यों हैं -बोलिये न ,मोह आपको शोभा नहीं देता |
वज्रश्ववा :-(उत्तेजित स्वर में ) अच्छा ! तू जिद पर अड़ा है | जा मैं तुझे यमराज को दान में देता   हूँ |
 नचिकेता :- आप धन्य हैं पिताजी | आपनें मेरे लिये सर्वथा मोह का त्याग कर दिया | आह ! यमलोक के प्रस्थान के लिये कितनी बड़ी आत्मिक शक्ति आपनें मुझे प्रदान कर दी है | अब किसमें शक्ति है जो मुझे जानें से वहां रोक ले | (और आकाशगामी नचिकेता का शून्य धावन ,बिजली की कौंध ,क्षणिक अन्धकार  )
नचिकेता :-( स्वगत  ) आज तीन दिन बीत गये पर अभी तक धर्म अधिष्ठाता के दरबार से दर्शन का बुलावा नहीं आया ,लगता है महिष पर आरूढ़ होकर मृत्यु देवता 14 लोकों के भ्रमण पर हैं | ( नेपथ्य में कुछ आवाजें आती हैं ) चित्रगुप्त धर्मराज से कहते हैं कि एक युवा ब्राम्हण मेरे बिना बुलाये ही यमलोक की ड्योढ़ी पर आपके दर्शन को खड़ा है | तीन दिन हो गये हैं | कहता है उसके पिता ने उसे यमदेव को दान में दे दिया है | अब उसके पास और कहीं जानें का विकल्प ही नहीं है |
यमराज :-ठीक है मैं भ्रमण पर था पर मुझे यदि बीच में सूचना मिल जाती तो मैं अपने महिष को और द्रुतगामी बनाकर पहले आ सकता था | चित्रगुप्त इन तत्व खोजी ब्राम्हणों का अपमान उचित नहीं होता | लोग बुलाने पर भी मेरे पास आने से कतराते हैं | क्या नाम बताया इसका ,चित्रगुप्त ? नचिकेता : आह बड़ा भव्य नाम है | इस नाम का यही अर्थ है न वो ब्राम्हण जो कभी याचना नहीं करता तभी तो उसे नचिकेता नाम दिया गया है | वह मुझसे मिलने की याचना कर रहा है | साधु साधु | उसे आदर से बुलाकर मेरे पास लाओ | दो यमदूतों के साथ नचिकेता सर्पाकार आबनूसी सिंहासन पर बैठे हुये यमराज को प्रणाम करते हैं | नचिकेता का तरुण सुन्दर शरीर और उसका दीप्त भाल यमराज को प्रभावित करता है |
यमराज :- तुम्ही हो नचिकेता ?
                वत्स तुम तो अत्यन्त तेजस्वी लगते हो | इतनी कम उम्र में इतना अधिक साहस | तीन दिन तक मेरी प्रतीक्षा में ड्योढ़ी पर बैठे रहे | मैं अत्यन्त प्रसन्न हुआ | हाँ एक दिन की प्रतीक्षा के लिये मैं तुम्हें एक -एक वर देता हूँ | तुम कोई तीन वर मुझसे मांग लो |
नचिकेता :- हे धर्म के अधिष्ठाता ,मैं आपकी प्रसन्नता पा सका इससे अधिक मुझे क्या चाहिये | जब मैनें आपकी ड्योढ़ी में माथा टिका दिया तो मुझे सांसारिक वरों की आवश्यकता ही नहीं रही | पर मैं आपसे तीन वरों के बदले में सिर्फ एक भिक्षा माँगता हूँ | आप मुझे मृत्यु का रहस्य बता दीजिये | मरण और अमरण ,मृत्यु और अमरत्व इनके बीच क्या अन्तर है | और मृत्यु के अमिट विधान को नकार सकने का क्या कोई उपाय है |
यमराज :- वत्स तुम अभी बहुत छोटे हो | इन प्रश्नों का उत्तर पूछने के लिये तो तीन  लोकों में भ्रमण करने वाले नारद जी भी मुझे मिले थे | कहते थे क्षीर सागर से शेष शायी लक्ष्मीपति ने उन्हें इन  जिज्ञासाओं के समाधान के लिये मेरे पास भेजा है | पर मैनें यह कहकर टाल दिया कि इन प्रश्नों के उत्तर के लिये मुझे कई विभागों से सूचनायें और सुझाव इकठ्ठे करने होंगें | नारद जी कह गये हैं कि वह मार्कण्डेय और अमरत्व प्राप्त शुकदेव तीनों मेरे पास मिलकर आयेंगें तब तक हम अपने सारे विभागों से राय मशविरा कर लूँ | वत्स तुम्हारी कच्ची उम्र तुम्हें यह ज्ञान पाने का अधिकार नहीं देती | हाँ तुम चाहो तो तुम्हें कंचन के ढेर , हस्ति झुण्डों का अधिकार या अश्व समूहों का निर्देशन सौंप सकता हूँ |
नचिकेता :-देव ,मरण आपकी मुठ्ठी में है और अमरत्व पाने की कुंजी आपके द्वारा प्रदान की जानें वाली दार्शनिक द्रष्टि में है | पिताजी द्वारा मैं आपको दे दिया गया हूँ | मृत्यु के देवता यदि आप मुझे मृत्यु के बंधन से मुक्त करते हैं तो हमें अमरत्व की कुंजी दीजिये |
यमराज :-अरे नचिकेता तू अभी युवा है ,शक्तिशाली है | संसार के सुख भोगनें की पूरी क्षमतायें तेरे शरीर में क्रियाशील हैं | देख ऊपर नभ विहार की ओर देख | आकाश  गंगा के बीच प्रकाश के झूलों पर झूलती अपार रूप की धनी अप्सरायें तुझे बुला रही हैं देख उनमें से कुछ वीणा के सुरों पर और कुछ कुम्भ हस्त चालन द्वारा तुझे अपने पास बुला रही हैं | बोल नचिकेता जायेगा ,मैं तुझे उनके बीच भेज देता हूँ |
नचिकेता :- हे कर्म फलों के निर्णायक मेरे  हठ को क्षमा करना | मुझे तो आत्मा और अमरत्व का ज्ञान ही चाहिये | देह का कोई भी सुख मुझे अपनी ओर नहीं खींचता | मैं तो मन के प्रबल वेग को भी आत्म सयंम के द्वारा बांधने के पक्ष में हूँ |
यमराज :- अच्छा नचिकेता मैं तुझे तेरे पिता के पास वापस भेज देता हूँ | राज्य कर | धर्म का आचरण कर | सत्य का आचरण कर | संसार बसा | फिर जब मृत्यु को प्राप्त होंगे तब यमलोक में आना | उस समय तुम्हें आत्मज्ञान पाने का अधिकार होगा |
नचिकेता :-भगवान् अब तो मैं आपके पास आ ही गया हूँ | आपके पास आकर वापस जाना और फिर आपके पास आना तो एक उल्टी -सीधी प्रक्रिया है | आपके चरणों के पास बैठकर ही आपके बिना कहे ही मुझे सब कुछ समझ में आ जायेगा | भूमि पथों या तारापथों पर जहां भी आप जायेंगें मैं आपके पीछे -पीछे चलता रहूँगा | (इतना कहकर नचिकेता यमराज  के सिंहासन के पास स्थिरचित्त होकर बैठ जाता है )
यमराज :- आँखें खोलो नचिकेता , तुम्हें अब नये जीवन का प्रकाश मिल जायेगा | तुम अमरत्व की कुंजी पा सकोगे ,मैं तुम्हें आत्मा की रहस्यमय शक्तियों के बारे में बताता हूँ | तुम सचमुच ही देह के बन्धन से मुक्त दिव्य चेतना से सम्पन्न एक सच्चे जज्ञासु हो | तुम आत्मज्ञान के अधिकारी हो वत्स | ध्यान से सुनना |
 (यमराज उवाच ) ( कठोपनिषद का सार )
देखो नचिकेता ज्ञानी जन इन्द्रिय सुख और आत्म सुख का अन्तर जानते हैं | आनन्द और मनोरंजन इन दोनों में बहुत गहरा अन्तर है | आनन्द आत्मा की पुलक भरी अनुभूति है जबकि मनोरंजन सुखेन्द्रियों की क्षणिक उत्तेजना है | नचिकेता तुम तो विश्व की कई भाषाएँ जानते हो | इंडो आर्यन भाषा समूह में एक भाषा अंग्रेजी  भी है | उसकी भी शब्द राशि इतनी ही प्रचुर है जितनी संस्कृत की | अंग्रेजी के दो शब्द हैं | एक है Happiness  और एक है Pleasure दोनों में बड़ा अन्तर है | Happiness आत्मसन्तोष और आत्मसुख की टिकाऊ आधारशिला पर खड़ा है | Pleasure मचलती हुयी लहरियों की तरह चलायमान धरातल पर स्थित है | पर नचिकेता आनन्द की भी कई कोटियां हैं | आनन्द से बढ़कर अति आनन्द से होते हुये जब हम परमानन्द पर पहुँच जाते हैं तब हमें यह मानव देह निरर्थक ही लगने लगती है | आत्मा का उर्ध्वगामी विहंग उस समय ज्योतित पथ  के पार श्रष्टा के चिर आनन्दित प्रकाश पुंज में उड़ जानें के लिये व्याकुल हो जाता है |
नचिकेता :- हे ज्ञान सागर जब आत्मा देह में अविस्थित  है तो देह का सुख -दुःख भी तो  आत्मा को प्रभावित करता होगा | आपके कथन से लगता है कि देह का गठन आत्मा के निवेश के लिए ही होता है | उसका अपना कोई स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं है | पर अबूझ पर्वत के ऊपर मेरे राज्य में कमर में बाघम्बर लपेटे एक मुनि मुझे मिले थे | उन्होंने मुझसे कहा था कि देह और आत्मा के अलग -अलग होने की बातें शब्दों की काव्यात्मक उक्तियाँ हैं | सच पूछो तो देह के बिना तो आत्मा रह ही नहीं सकती और फिर यदि आत्मा का स्वतन्त्र अस्तित्व है तो उसे कभी किसी ने देखा जाना क्यों नहीं | न तो किसी ने शरीर में उसका प्रवेश देखा है और न वहिर्गमन  कई बार मुझे मेरे कुल गुरु ने बताया है कि तपस्वी ऋषियों के सिर के ऊर्ध्व भाग से मृत्यु के समय प्रकाश की एक लौ निकलती है और विद्युत् कौंध के साथ गगन में विलीन हो जाती है | क्या ऐसा ही होता है ? आप तो मृत्यु के देवता हैं | आप से तो कुछ छिपा हुआ नहीं है |
यमराज :- देखो वत्स , मैं तुम्हारे समक्ष बैठा हूँ मेरा वाह्य शरीर तुम्हारे सामने है | यदि मैं साधारण मनुष्य होता और मृत्यु को प्राप्त होता तो मेरा यह शरीर तुम्हारे सामने ऐसे ही उपस्थित रहता पर इसकी चेतना लुप्त हो जाती | अब यदि चेतना जिसे हम आत्मा या परम तत्व का अणु अंश कहते हैं उसकी अपनी अलग सत्ता न होती तो शरीर निर्जीव कैसे होता ? जो ऐसा नहीं मानते उन्होंने सत्य को जाना ही नहीं है | देखो नचिकेता ,न तो तुम हाँथ हो , न आँख , न मुख , न कान | त्वचा से ढका तुम्हारा यह अस्थियों का ढांचा तो मात्र इसलिये खड़ा किया गया है कि इसमें परमहंस का निवास हो | यह प्रश्न अत्यन्त गूढ़ है और इनके शाब्दिक अर्थ तब तक मन को नहीं छूते जब तक अपने अनुभव से सिद्ध पुरुषों के साथ रहकर कोई यह जान नहीं लेता कि आत्मा शारीरिक सुख -दुःख से ऊपर चिर आनन्द के सिंहासन पर बैठी है | नचिकेता जो कुछ भी इस संसार में हो रहा है अपने सतत कार्यक्रम के अनुसार होता है | मानव जाति का यह झूठा अहंकार कि उसके द्वारा विश्व के कार्यकलाप संचालित किये जा रहे हैं | एक सुहावनें भ्रम के अतिरिक्त और कुछ नहीं है | नचिकेता जन्म और मृत्यु , मिलन और वियोग , श्रष्टि और विनाश ,सभी कुछ श्रष्टा की माया के बदलते हुये परिद्रश्य हैं | एक पटाक्षेप के बाद दूसरा द्रश्य और फिर दूसरे के बाद तीसरा इस प्रकार अनगिनत काल तक अनगिनत द्रश्य चलते रहते हैं | जो आत्मा के अमरत्व में स्थिर हो जाता है उसके लिये इन द्रश्यों का कोई महत्व नहीं है |
नचिकेता :- प्रभु संसार में इतना वैभिन्य है और घटनाओं का इतना आश्चर्यजनक अम्बार है कि यह मानना कठिन हो जाता है कि यह सब माया के लुभावनें रूप ही हैं | भिन्नता की अपनी भी तो कोई सच्चाई होनीं चाहिये |
धर्मराज :- देखो नचिकेता जैसे पहाड़ी की चोटी पर गिरता हुआ पानी न जानें कितनी धारायें बनकर भिन्न -भिन्न रास्तों से तलहटी की ओर दौड़ने लगता है | वैसे ही लीलाधर एक ही केन्द्र से जगत के समस्त मायाजाल को संचालित कर रहा है | अज्ञानी अलग -अलग बहती हुयी धाराओं के अलग -अलग नाम देते हैं और उन्हें अलग -अलग ढंग से परिभाषित करते हैं | पर जल तो जल ही है बूँद हो या समुद्र , नदी हो या नाला ,झरना हो या उत्स सभी में जल है  | जल जल में मिलकर जल ही हो जाता है | अमर प्रकाश का जो अंश मानव देह में है वह यदि साधना की  ऊर्ध्वगामी शक्ति से अनुचालित हो तो अनन्त प्रकाश पुंज में मिल जानें की  क्षमता रखता है | अन्य चेतन देहों में भी अमरत्व की हल्की -फुल्की झांई होती है | पर उसे सशक्त होने के लिये न जानें कितने जन्मों के बाद और कितनी योनियों में परिभ्रमण के बाद मानव काया में पहुंचने का सुअवसर प्राप्त होता है |
नचिकेता :- भगवन , क्या हमारे भीतर आत्मा स्वयं प्रकाशमान है या उसे और कहीं से प्रकाश पाने की आवश्यकता होती है | अमरत्व का जो केन्द्र बिन्दु मानव काया में निहित है क्या उसे और कहीं से प्रकाश मिलता है | क्या सूर्य ,चन्द्र या तारामण्डल उसे प्रकाश देते हैं | क्या मेघों में कौंधती बिजली से उसे प्रकाश मिलता है या ऋषियों की यज्ञ की अग्नि से आत्मा प्रकाशवान होती है |
 यमराज :- नचिकेता तुमनें एक अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रश्न पूछा है | यह प्रश्न इतना गूढ़ है कि इसके उत्तर खोजने के लिये मुझे स्वयं दयानिधि के द्वार पर जाना पड़ा था और जानते हो उन्होंने क्या कहा ? उन्होंने कहा है धर्मराज आप यमराज भी हैं | मृत्यु आपकी मुठ्ठी  में है पर जीवन आपकी मुठ्ठी में नहीं है फिर उन्होंने आगे कहा सच मानना मृत्यु राज श्रष्टि की सृजन प्रक्रिया जब प्रारम्भ हो गयी उसके बाद मैं भी उसका कर्ता नहीं रहा | आदि कारण तो मैं हूँ पर अब  श्रष्टि स्वयं संचालित है | विज्ञान उसे प्रकृति का अनवरत प्रभाव कहता है | दर्शन उसे माया की मंचीय अवधारणा बताता है पर एक तटस्थ दर्शक और विवेचक की भांति मैं उस सबको अब एक अनियन्त्रित और अलक्षित लक्ष्य की ओर बढ़ता हुआ चेतन प्रवाह ही मानता हूँ | मैं स्वयं नहीं जानता कि मेरे भीतर की वह कौन सी बाध्यता थी जिसनें मुझे जड़ से चेतन की उत्पत्ति की ओर उन्मुख कर दिया | मुझे लगने लगा है कि मैं स्वयं माया के आत्मजाल में तो नहीं फंसता जा रहा हूँ |
हाँ तो तुमनें पूछा था मनुष्य में निहित अमरत्व का प्रकाश कहाँ से आता है तो सुनों वह अमर तत्व स्वयं प्रकाशित है और उसके प्रकाश का प्रतिबिम्ब ही ब्रम्हाण्ड की सारी ज्योतित गंगाओं में प्रतिबिम्बित होता है | अमरत्व का वह अंश मानव अन्तः स्थल में इसप्रकार स्थित है कि उससे उठने वाली चेतना तरंगें काया के प्रत्येक रोम ,प्रत्येक छिद्र ,और प्रत्येक इन्द्रिय अनुभव को स्पन्दित कर रही है | Reed Plant (नर कुल का पौधा ) को उसके पत्तों से हटाकर ही स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है | इन्द्रिय तरंगों से प्रभावित हृदय में पड़ जानें वाली गांठें जब खुल जाती है और जब मोह का विकार मनुष्य से दूर हट जाता है तब उसकी आत्मा का प्रकाश अपनी झलक देता है और इस झलक पर यदि हम निरन्तर अपने अन्तर चक्षुओं को केन्द्रित रखें तो हमें अमरता की प्राप्ति हो सकती है | | यह शरीर एक रथ है जिसे हमारी इन्द्रियाँ घोड़े की तरह खींच रही हैं | मनुष्य का मष्तिष्क उसी लगाम की तरह है जो अपनी समझ के अनुसार इन घोड़ों को नियन्त्रित रखता है | आत्मा ही शरीर रथ की अन्तर्वेदी पीठिका पर बैठी हुयी है | यदि मन को नियन्त्रित कर हम  उसे ठीक समय पर ठीक प्रकार बल्गा खींचने  या ढील करने की अनुशासन प्रक्रिया से नहीं गुजरने देते तो कभी भी मनुष्य अमरत्व का आभाष नहीं कर सकेगा | शरीर रूपी यह रथ सांसारिक गलियों में चक्कर पर चक्कर खाता रहेगा और जन्म मरण की असंख्य वीथियों में और असंख्य कोटियों में भटकता फिरेगा | हे नचिकेता , तुम अपने नाशवान शरीर में स्थित अविनाशी तत्व के प्रति सम्पूर्ण रूप से समर्पित हो जाओ | आत्मा न कभी जन्मती है और न कभी मरती है | वह न कहीं से आयी है और न कहीं जाकर उसे विनिष्ट होना है | नचिकेता तुम अजन्मा हो ,सदाजीवी हो ,शाश्वत हो और अखण्डित तथा अभिभाज्य हो | उठो नचिकेता तुम्हें अब अपने पिता के पास धरती नामक ग्रह पर फिर से जाना है | अब तो तुम अमर दर्शन का घूँट पी चुके हो | अब तुम्हें मेरे पास इसलिये नहीं आना है कि मैं तुम्हारे कर्मों का फलाफल सुनिश्चित करूँ | तुम अब संसार में रहकर भी संसार में नहीं रहोगे | तुम अब देह में रहकर भी देह में नहीं रहोगे | तुम अब गेह में रहकर भी गेह में नहीं रहोगे |
             तुम अदेह हो ,अगेय हो ,अशरीरी हो | तुम प्रकाश की एक निरन्तर दीप्तिमान लौ हो | मैं तुम्हें अपने पुत्र और शिष्य के रूप में स्वीकार करता हूँ | अपने भौतिक पिता के पास वापस जाओ और उन्हें मोह मुक्त करो | उन्हें बताना दानी होने का सम्मान पाना भी एक लालसा है जब उनका कुछ है ही नहीं तो दान कैसा | मुक्ति जीवी के लिये तो सम्पदा का ढेर रेत के टीले से अधिक और कुछ नहीं होता | नचिकेता ये पंक्तियाँ जो आत्मा से सम्बन्धित हैं और जिन्हें अब तुमनें जीवन में पूरी तरह उतार लिया है भारत वर्ष के घर -घर में पहुंचा देना |
" न जायते म्रियतो व विपश्चिन
 नायं कुतिश्चिन्न वभूव कश्चित् |
 अजो नित्यः शाश्वतोडयं पुराणों
न हन्यते हन्यमानें शरीरे |
                                                            नेपथ्य में एक ऊंची ध्वनि
                                     जय हो मृत्यु के देवता ,जय हो , अमरता के सन्देशवाहक ,जय हो ,धर्म के अधिष्ठाता ,
                                     विजयी हो भारत की आर्ष परम्परा |
                                                                                       पटाक्षेप 

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