Wednesday, 23 August 2017

भीड़ से हटकर 

घर आते उस दिन सोच रहा था
विषय चुक गये सब कविता के
 शेष रह गया केवल अपने को दुहराना
तभी द्रष्टि पड़ गयी पास वाली बगिया को
आरक्षित करने वाली उस सुद्रढ़ भित्ति पर
जहां गर्व से तनी देह ले
रक्त -मुखी कपि ध्यान -मग्न था |
अक्सर उस एकान्त मार्ग पर आते जाते
कभी किसी तरु की डाली पर
कभी घास की नम चादर पर
कभी उठ रही दीवालों के समकोणों पर
कभी आलस मस्ती से करते पार राह को
मैनें उसे वहां पाया था |
पहली बार उसे देखा था
जैसे पहरेदार खड़ा हो सीना तानें
बगिया के उत्तरी कोण पर |
सूनसान थी राह शहर से किंचित बाहर
कुछ असमंजस हुआ देख बानर की काया
पर आँखों में आँखें डाले बिना बढ़ा मैं
कपि ने कुछ क्षण घूर द्रष्टि शाखों पर डाली |
परिचय होता रहा इस तरह हम दोनों का
दोनों ने मन ही मन यह स्वीकार कर लिया
एक दूसरे के आन्तरिक झमेलों में हम
दखल न देकर अपनी राह चले जायेंगें
नेहरू के भारत के ही आखिर वासी हैं |
आते जाते बानर राज मुझे मिल जाता
कुछ ऐसा सम्बन्ध जुड़ गया अनजानें में
अगर दिखायी मुझे न पड़ता कहीं पास से
आँखें आकुल हो तरुओं के पात खोजतीं |
कई बार नर कपि की रोयिल गढ़ी देह लख
सोचा यह गिरोह से कटकर अलग हुआ क्यों
यह एकाकी कैसे जीवन काट रहा है
इसे न कोई भरा -पुरा रनिवास चाहिये |
हो सकता है किसी सबल -नर वानर ने
बल -मर्दित कर इसे बहिष्कृत किया देश से
किष्किंधा को छोड़ सुकण्ठ यहां आ बैठा
रूमां सहित रानियां कोई और भोगता
खोया कल विश्वास प्राप्त कर ललकारेगा
बंधुश्चु को द्वन्द युद्ध में हाँथ दिखाने
छल बल से कर उसे पराजित फिर पायेगा
रुंगन सहित विलास साज अपने जीवन के |
या कि संयमी पवन -पुत्र सा यह त्यागी है
इसे राम की खोज भोग से काम न कोई
विजन वाटिका में यह खड़ा प्रतीक्षित रहता
चरण -कमल कब देख सकूंगा नर पावन के |
पर इतना तो निश्चय है सामान्य नहीं कपि
भेड़ चाल चल अनुगत बनना इसे न आता
यह औरों से बनी लीक पर पाँव न धरता
इसे अनुगमन नहीं स्वयं नेतृत्व चाहिये
यह नायक ही बन सकता जीवन नाटक का
महाकाव्य के लिये इसे कुदरत ने ढाला
यह नर है वानर होकर भी व्यक्ति बना है
भीड़ न इसको घेर बाँध कर मिटा सकी है |
जनाकीर्ण राहों से मैं भी दूर रहा हूँ
राह कठिन एकान्त सदा मैनें अपनायी
आंखों में इतिहास बनाने के सपनें हैं
व्यक्ति न मेरा कभी भीड़ से विजित हो सका
नर वानर का साथ हुये युग बीत चुका है
इसी मिलन  से अमर काव्य की सृष्टि हुयी थी
निर्वासित मन मेरा फिर से साथ खोजता
गोत्र -छिन्न एकाकी इस वानर -पुंगव में
सखा ,तुम्हें पा मेरे मन का शून्य भर चला
शायद तुम भी थोड़ा सा पहचान गये हो
हम दोनों ही एक नियति के सह पंथी हैं
धारा से विछिन्न किन्तु धारा के सृष्टा |




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