Sunday 20 August 2017

भारत वर्ष में जिन दिनों लोकसभा के चुनाव के बाद वोटों की गिनती होने जा रही थी उन्हें दिनों प्रमुख अंग्रेजी के समाचार पत्रों के बीच के पन्नों में एक ऐसी खबर छपी थी जिसनें मेरा ध्यान अपनी ओर तुरन्त आकर्षित किया | चुनाव की जीत और हार की सनसनी मेरे जैसे राजनीतिक तटस्थता का जीवन जीने वाले बुद्धिजीवियों  के लिए बहुत महत्व  नहीं रखती पर ऐसी ख़बरें जिसमें मनुष्य के गहरे मनोवैज्ञानिक क्रिया -कलापों की छाप होती है उन्हें अपनी ओर तीब्रता से आकर्षित कर लेती है | खबर यह थी कि फ्रान्स के राष्ट्रपति सरकोजी की पत्नी ब्रूनों अपना वेष बदलकर और आवाज बदल कर पेरिस की फैशन और सौन्दर्य प्रसाधन बेचने वाली बड़ी -बड़ी दुकानों से चुपके से खरीद फरोख्त के लिए जाती हैं | 'माटी  ' के विज्ञ पाठक यह जानते ही हैं कि इटली की प्रसिद्ध मॉडल ब्रूनों अपने दो पुरुष मित्रों से पहले ही तलाक ले चुकी हैं और तीसरी बार उन्होंने सरकोजी को अपना पुरुष साथी चुना है | फ्रान्स के राष्ट्रपति स्वयं भी एक मुक्त प्रकृति के पोषक हैं | उनकी कलात्मक रुचियाँ उन्हें नर -नारी सम्बन्धों को सम्पूर्ण स्वतन्त्रता  और समानता के आधार पर देखने परखने का सम्बल देती रहती  हैं | और ब्रूनों तो सुन्दर नारी मॉडलों की सरताज रही हैं | इटली के बन्धनहीन वातावरण में पली ब्रूनों सच्चे अर्थों में सर्वथा मुक्त जीवन का प्रतीक बन गयी है | अब यश ,सम्पत्ति और शक्ति के शीर्ष पर बैठे इन लोगों में चुपके -चुपके बाजारों में घूमने की प्रवृत्ति क्यों घूमती रहती है ,इस पर विचार करने की आवश्यकता है | केवल ब्रूनों ही नहीं दुनिया की और भी बहुत सी प्रसिद्ध सुन्दरियां और कलानेत्रियाँ बाजारों में घूम कर नयी -नयी चीजों का संग्रह किये बिना भीतरी खुशी हासिल नहीं कर पातीं | आप अखबारों में पढ़ते ही रहते हैं कि विदेशों से आये राष्ट्रपतियों ,प्रधानमंत्रियाँ और शीर्षस्थ फिल्म निर्माताओं की पत्नियां अपने पतियों के साथ जहां कहीं जाती हैं अधिकतर बाजारी खरीद -फरोख्त और उपहारों की संयोजना में लगी रहती हैं | अभिनेत्रियों की तो बात ही छोड़ दीजिये उनके लिए तो चमक -दमक वाली खरीद एक निराला नशा प्रदान करती है | विदेश जानें वाली भारत की अभिनेत्रियों की खरीद अखबारों में सुर्खी की खबर बन जाती है | केवल नारियां ही नहीं पुरुष भी बाजार में घूमने की अपनी इच्छा का दमन नहीं कर पाते | भले ही वे अधिक  खरीद -फरोख्त न करते हों पर किसी न किसी बहाने उन्हें जगमग बाजारू गलियों में घूमने में आनन्द आता है | अब महान सम्राट अकबर को ही लीजिये कहा जाता है कि लाल किले की मीना बाजार में वे वेष बदलकर घूमा करते थे | ऐसे किस्सों की कमी नहीं है जिनमें यह बताया गया है कि बाजार में घूमते हुये ही वे नारी सौन्दर्य की परख करते थे | और अपने छिपे वेष में कई बार रोमान्टिक वार्तालाप की शुरुआत कर देते थे | यह कहानियां शायद काल्पनिक ही हों पर इनसे यह बात उभरकर साफ़ होती है कि नर -नारियों से सजी -बजी बाजारें मनोरंजन का अच्छा साधन प्रस्तुत करती हैं | कुछ बाजारें तो विशिष्ट रूप से लेडीज के लिए ही बनायी जाती हैं | वहां पहुंचते ही मदमस्त कर देने वाले इत्र और मुखलेपों की महक तरुणों के बुझे हुए हृदय को तरोताजा कर देती है |
                 इतिहास हमें बताता है कि कई बार अच्छे राजा शासक या नवाब भी वेष बदलकर चुपके -चुपके शहर की गलियों में घूमा करते थे | इतिहास का कहना है कि उनके भ्रमण का अर्थ अपने इलाके की जनता का सुख -दुःख जानना था | पर इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि कहीं उनके भीतर भी चमक -दमक भरे बाजारों की एक झलक लेने की इच्छा काम कर रही हो | सिख राजा रणजीत सिंह के विषय में यह मशहूर ही है कि वे मॉडल और झोपड़ियों दोनों की खबर बदले हुए वेष में घूम घूम कर लिया करते थे और खलीफा हारून रसीद तो हर बग़दाद वासियों को अपने छिपे वेष में किसी न किसी रात  चौंका दिया करते थे | बग़दाद की रूप जीवायें भी उनके छद्म वेष में दर्शन के लिये लालायित रहा करती थीं | भारत में नवाबी परम्परा में न जानें कितने ऐसे उदाहरण हैं जहां मस्ती और रंगरलियां मनाने के लिए नवाबों का दिशा भ्रमण होता रहता था | कुछ कला प्रेमी छद्म वेष में छिपे दिन और रात के इन बड़े नर -नारियों की चाल -ढाल में श्रेष्ठ कला की भी झलक पाते हैं | कहते हैं नवाब वाजिद अली शाह लखनऊ में कला के एक बहुत बड़े संरक्षक थे और उनकी कला द्रष्टि नारी सौन्दर्य को मापने का सबसे विश्वसनीय प्रकार था | अब बड़े लोगों की बात छोड़कर यदि सामान्य घरों की बात भी ली जाय तो हम पायेंगें कि बाजार में घूमकर खरीद -फरोख्त करना मानव स्वभाव में कहीं बहुत गहरे अपना स्थान बनाये बैठा है | हमारा अनुभव यह कहता है कि भारत की नारियां इसे एक बहुत बड़ी मंत्रणा मान सकती हैं यदि उन्हें उनके परिवारजन बाजार में जानें से रोक दें | परम्परा से भारत की स्त्रियां गृहणी रही हैं और इसलिए यह स्वाभाविक ही है कि गृह साज -सज्जा के लिए उन्हें बाजार जानें की आवश्यकता पड़े फिर नारी होने के नाते उन्हें प्रसाधन और पहिनावे की कुछ ख़ास जरूरतें होती हैं जिसके लिए उन्हें प्रसाधन की दुकानों पर जाना अनिवार्य हो जाता है | सभ्यता के विकास के क्रम में धीरे -धीरे साज -सज्जा ,प्रसाधन ,खरीद -फरोख्त और भाव -तोल करने की कुशलता ये सभी कहीं नारी स्वभाव का अंग बनकर अनिवार्य रूप से जीवन में परिलक्षित होने लगी हैं | हम यह नहीं कहते कि पुरुष बाजार धर्मिता में आगे नहीं बढ़ रहे हैं पर इतना तो अवश्य ही है कि शायद ही कोई भारतीय घर ऐसा हो जिसमें पत्नी ने पति को यह कहकर छोटा साबित करने की कोशिश न की हो कि उसे चीजों का चुनाव और खरीदना ठीक प्रकार से नहीं आता | पुरुष इस कमी को स्वीकार भी कर लेता है | यह कमी सब्जी खरीदनें से लेकर लाखों और करोड़ों के दायरे में किये गये सौदों पर समान रूप से स्वीकार की जाती है | यह तो रही व्यवहारिक जगत की बात | पर आइये अब हम इस पर विचार करें कि Human Being में चीजों को खरीदनें और बाजार घूमने की प्रवृत्ति इतनी जोरदार कैसे बन पायी है ?हममें से अधिकाँश एक सुखद मनोरोग  से पीड़ित हैं | इस मनोरोग को अंग्रेजी में Compulsive Buying ग्रन्थि के रूप में जाना जाता है | आप किसी प्रतिष्ठित मनोरोग चिकित्सक के पास जायें और उसे बतायें कि आपके मन पर उदासी छायी रहती है | जबकि उदासी का कोई कारण नहीं है | चिकित्सक इधर उधर के कई किस्से सुनाकर और मानसिक प्रवृत्तियों के कई अन्जानें तकनीकी नाम लेकर आपको प्रभावित करेगा और आपको बतायेगा कि आपको Mild Depression है कोई चिन्ता की बात नहीं है | आप सुहावनी शामों को बाजार में घूमिये और कुछ छोटी -बड़ी खरीद -वरीद करते रहिये ,सब ठीक हो जायेगा | बिटामिन्स की कुछ टैबलेट्स देकर वह आपको बतायेगा कि आप उससे हर महीनें मिलते रहें | इस तरह वर्षों तक यह सिलसिला जारी रह सकता है | मध्यम वर्ग में आज शायद ही कोई ऐसा घर हो जहां कोई नारी Depression की रोगी न पायी जाती हो और अब तो पुरुष भी इस दिशा में होड़ लेने लगे हैं | यह रोग प्रौढ़ों और बूढ़ों में उतना नहीं फैला है जितना तरुणों और तरुणियों में ,कारण स्पष्ट है कि बूढ़े जानते हैं कि उनमें अब अधिक भोग की क्षमता नहीं है और प्रौढ़ जानते हैं कि उनके भोग का समय थोड़ा रह गया है पर किशोर और किशोरियां ,तरुण -तरुणियाँ अभी लबालब भरे हुये लहराते सरोवर हैं जिन्हें हवा का हर झोंका नया कम्पन देता रहता है | जो भोगा उससे और कुछ नया ,फिर और नया फिर और नया | इक्के में सधा हुआ टट्टू तब तक दौड़ता रहेगा जबतक बेदम होकर गिर न जाये | और गिर जानें के बाद यदि फिर उठ खड़ा हुआ तो फिर उसे या उसके मालिक को दौड़ को धीमा करने की मजबूरी समझ में आ जायेगी | आज के भोगवादी समाज में जी रहे मानव जाति की भी यह मजबूरी है कि वह खोखली भोगवादिता के दर्शन से इतने घातक रूप से प्रभावित हो उठा है कि इससे मुक्त होना उसके लिये असम्भव दिखाई पड़ रहा है | एक प्रकार का सामूहिक मनोवैज्ञानिक दबाव प्रारम्भ से ही हम बच्चों के मन पर छोड़ रहे हैं जो उन्हें बाजारू संस्कृति का अंग बनने पर मजबूर कर देता है ,चाह कर भी वे इससे हट नहीं पाते | ये कितनी बड़ी त्रासदी है कि हम जो चाहते हैं वह  नहीं कर  पाते और जिसे नहीं करना चाहते हैं वह करने पर हमारा स्वभाव हमें मजबूर कर देता है |
                                             अन्तर ग्रन्थियां कैसे और क्यों विकसित होती हैं इस पर विद्वानों ,विचारकों नृतत्व शास्त्रियों और धर्माधिकारियों की अलग -अलग व्याख्यायें हैं | परम हंस योगानन्द का मानना है और यह मान्यता सनातन धर्म की मोहर अपने पर लगाये है कि हमारी स्वभाव की ढेर सारी प्रवृत्तियां हमारे पूर्व जन्म के कर्मों के फलस्वरूप होती हैं | आत्मा मृत्यु के पश्चात कर्मों का सम्पुजन अपने साथ ले जाती है और जब नये शरीर में प्रवेश करती है तो यह सम्पुजित कर्म नये शरीर में स्वभाव का निर्माण करते हैं | अच्छे और बुरे इन कर्मों से नियन्त्रित अच्छी और बुरी प्रवृत्तियां हर नर -नारी में पायी जाती हैं | शरीर के नये संस्करण में मनुष्य अपने कर्मों से कुछ नये गुण अर्जित करता है | अगर यह अर्जन उसके पिछले कर्मों में नकारात्मक पहलुओं को कम कर देता है तो आगे के जन्मों में उसे और बेहतर मौके मिलते हैं | इस प्रकार धीरे -धीरे   वो अपनी पशु प्रवृत्तियों से ऊँचा उठता चला जाता है और एक बहुत दीर्घकालींन साधना प्रक्रिया से गुजर कर सन्तत्व के द्वार पर खड़ा होता है और यदि श्रष्टा की कृपा हुयी तो यहां से उसे जीवन मुक्ति का मार्ग दिखना प्रारम्भ हो जाता है | भारतवर्ष में सन्त काव्य और भक्ति काव्य में इसी विचारधारा का प्रभावशाली काव्यात्मक गुणगान हुआ है और आज भी भारतवर्ष का अधिसंख्य मानव समाज पिछले जन्म से पाये हुये संस्कारों को स्वीकार करता जा रहा है | राम की शरण ही मनुष्य को अंतर्ग्रन्थियों से मुक्ति दे सकती है | उनसे विलग होकर कहीं और कोई सुख नहीं है | कबीर जी का एक दोहा देखिए -
                        "कबीर बिछुड़या राम सूं ,न सुख धूप की छाँह |"
           विकास वादी नृतत्वशास्त्री और जैविक अनुसन्धानवेत्ता मनुष्य के अन्तर्मन में उपजी ग्रन्थियों को मानव सभ्यता के विकास से सम्बन्धित करके देखते हैं | विश्व के अधिकाँश नोबेल प्राईज विजेता यह मानते हैं कि मनुष्य निम्नतर प्राणियों से विकसित होकर आया है | जंगली व्यवस्था में लाखों वर्ष रहने के बाद उसने अन्न उगाना ,खेती करना ,घर बनाना ,अग्नि का उपयोग करना और निर्मम प्रकृति पर विजय करने वाले यन्त्रों और कलपुर्जा को बनाना सीखा है | पत्थर के नुकीले टुकड़ों को अस्त्र के रूप में इस्तेमाल करने वाला मनुष्य आज मिसाइल और अन्तरिक्ष यान बनाने में सक्षम हुआ है | यह एक बहुत लम्बी यात्रा है ,न जानें कितने लाखों वर्षों की | जैसे -जैसे प्रकृति पर मानव का अधिकार बढ़ा उसने सुख सुविधा के साधन एकत्रित करने प्रारम्भ कर दिये | भौगोलिक ,क्लाइमेटिक और कबीलाई विभिन्नताओं के कारण मुख्य सुविधाओं की उपलब्धि विभिन्न स्तरों पर विभिन्न रूप में हुयी | वैज्ञानिक नियम के अनुसार पीढ़ी दर पीढ़ी पाये जाने वाले जीन्स ने भी इस सबसे असरदार काम किया | मष्तिष्क के विकास में कुछ समूहों और कुछ अदभुत प्रतिभाशील व्यक्तियों ने निराली ऊँचाइयाँ प्राप्त कर लीं अब टेक्नालॉजी ने यह सम्भव  कर दिखाया है कि धर्मग्रन्थों में पायी जाने वाली किस्सों ,कहानियों वाली सुख ,सुविधायें विश्व के हर परिवार को मुहैय्या कराई जा सकती हैं | अत्यन्त विकसित ,अर्ध विकसित ,विकासशील ,पिछड़े और अति पिछड़े देशों का अन्तर संसार में अर्जित सम्पत्ति के उचित बटवारे से दूर किया जा सकता है | Nation State की राजनैतिक धारणा और विकसित होकर World State के रूप में स्थापित की जा सकती है | इस प्रकार सारे विश्व में गरीबी ,बेरोजगारी  और अकाल मृत्यु की विभीषकायें समाप्त की जा सकती हैं | हमारी मनोग्रन्थियाँ सभ्यता के इस विकास के दौर में भिन्न -भिन्न स्तरों पर भिन्न -भिन्न रूप में प्रकट हुयी हैं | समाज का जो वर्ग जितना प्रबुद्ध होगा और आर्थिक रूप में जितना समृद्ध होगा उसे उतने ही बड़े मानसिक दबाव से गुजरना होगा | हर पढ़ा -लिखा व्यक्ति आज उन सुविधाओं को चाहनें लगा है जो दुनिया के सबसे सम्पन्न और समर्थ व्यक्तियों को मिल रही है | ऐसा होना न तो कभी संभ्भव हुआ है और न हो सकेगा | पर हाँ इतना अवश्य हो रहा है कि तकनीकी विकास ने आज ढेर सारी सुख -सुविधायें मध्यम वर्ग की पहुँच में ला दी हैं | मोबाइल तो हर गली कूचे में टुनटुनाता ही है हवाई जहाज का सफर भी मध्यम वर्ग के लिये स्वप्न नहीं रहा है | फ्रिज और एयरकन्डीशन्ड की सुविधायें सामान्य बन गयी हैं और अब मनुष्य के लिए सारा दिन जंगली शिकार करने ,फल बटोरने या हाँथ से खेती करने में व्यतीत नहीं होता | खेती करने के लिए उसके पास यन्त्र हैं | महान उद्योग हैं | दवाओं की महान खोजें हैं |  इंजीनियरिंग की सैकड़ों विधाएँ हैं और व्यापार के अनगिनित क्षेत्र हैं | हर सजग व्यक्ति सभ्यता के दौर में पीछे नहीं रहना चाहता और उस दौर का अर्थ है उपलब्ध उन सारी सुविधाओं को जुटाना जो जीवन को सुखद बनाती हैं | यही मनोवैज्ञानिक दबाव हमें एक Compulsive Buyer बना रहा है | ब्रूनों के पास साधन अधिक हैं ,ऐश्वर्य राय के पास अकूत धनराशि है ,और लक्ष्मी मित्तल की लड़की के पास रत्न भरी कोठरियां हैं | पर इन सब में भी कुछ न कुछ नया संग्रह करने की इच्छा है भले ही वह रंगी हुयी मिट्टी से बनी किसी निराली देवी की मूर्ति हो या कागज़ पर खींची गयी आड़ी ,तिरछी रेखाओं की आधुनिक कलात्मक अभिव्यक्ति |
                                    आज  के विश्व में ऊपर से लेकर नीचे तक सभी का जीवन मनोग्रन्थियों से प्रेरित और प्रभावित हो रहा है | पतंजलि योग साधना के सिद्ध साधक बाबा रामदेव का दावा है कि अशुभ मनोग्रन्थियाँ योग साधना के द्वारा मन से निष्कासित की जा सकती हैं | ऐसा ही परमहंस योगानन्द जी भी कहते हैं | और यही सब बातें विवेकानन्द से लेकर अरविन्द से होती हुयी रविशंकर तक पहुँच कर हमारे पास आ रही हैं | पर मनोग्रन्थियाँ हैं जो सुरसा की तरह मुंह फैलाती जा रही हैं | आओ , हे नये युग के पवन दूत तुम्ही कुछ कर दिखाओ जिससे यह सुरसा ग्रंथियां सयंम की पिटारी में बन्द होकर मनुष्य के मन को सहज ,स्वाभाविक ,निसर्ग सम्मत जीवन जीने के लिये प्रेरित कर सके |
                          संत महात्मा समाज को गढ़ते -गढ़ते थके से जा रहे हैं पर धरती है जो अभी तक अनगढ़ी पडी है | धर्मवीर भारती की निम्नलिखित पंक्तियों के साथ इस लेख का समापन करना उचित होगा  :-
                                " सृजन की थकन भूल जा देवता |
                                  अभी तो पडी है धरा अधबनी |
                                  अधूरी धरा पर नहीं है कहीं ,
                                  अभी स्वर्ग की नींव का भी पता
                                   सृजन की थकन भूल जा देवता |"

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