इस कालेज का प्रबन्ध ठाकुरों का था और वे एक दबंग ठाकुर परिवार से थे | मैनें उनसे अपने छोटे भाई की डावांडोल शैक्षिक अवस्था का जिक्र किया | उन्होंने मुझे आश्वासन दिया कि वे अगले सत्र यानि जुलाई में सी ० टी ० में अर्थात ,Certificate of teaching में निश्चय ही भर्ती करा देंगें | यह उनका वादा रहा | सीटी बजते ही मैं उनसे हाँथ मिलाकर अपने डिब्बे में बैठा | मुझे लगा कि कोई अद्रश्य शक्ति मेरी मदद कर रही है तभी तो यह संयोग बन पड़ा | होली के मौके पर मैनें ये सब बातें घर में बताईं और ऐसा लगा कि अब सुख के दिन आ गए हैं | उस समय तक सुख की वास्तविक धारणा का मुझे ज्ञान नहीं हुआ था | मैं समझता था कि आर्थिक स्वायत्तत्ता और मध्यवर्गीय सुविधा साधन जुटा लेने से सुख की प्राप्ति हो सकती है ,पर धीरे धीरे मैनें जाना कि सुख की धारणा एक भ्रमात्मक मन स्थिति है और हमसबको अपने सत्कर्मों के प्रति ही समर्पित होना चाहिए | गीता की इस पंक्ति -सुखे दुखे समकता लाभः लाभौ जया जये -का पूरा अर्थ उस समय मैं नहीं समझता था | सम्यक जीवन दर्शन को लेकर कही जाने वाली बुद्ध की वाणी से भी मेरा परिचय नहीं था | समय के साथ ही मैं जान पाया कि सुख दुःख की धारणा से ऊपर उठकर निष्काम भाव से कर्तव्य के प्रति अपने को समर्पित करना ही जीवन धर्म है | यही मानव जीवन का सार है | पहली बार मैं गाँव में आकर डेढ़ माह की गर्मी की छुट्टियों में घर पर रहा | मेरी पत्नी भी वहीं थीं | राजा वहां थे ही व कमला भी सपरिवार आ गयीं थीं | कई बार मुझे ऐसा लगा कि माता जी के मन में अभी तक बहू व बेटी को समान स्तर पर खड़ा कर एक जैसा व्यवहार करने की इच्छा शक्ति नहीं मिल पायी थी | शिक्षित होकर भी वे पारम्परिक खढ़ियों में जटिलता के साथ बंधी हुयी थीं | कई बार मुझे यह भी लगा कि वे मुझपर एकाधिकार चाहती हैं और ये भूल जाती हैं कि पुरुष के प्यार पर उसकी पत्नी का भी अधिकार होता है | मेरे व्याह को आठवाँ वर्ष प्रारम्भ हो चुका था ,पर अभी तक वंश बेल के बढ़ने की कोई खबर नहीं आ सकी थी और माता जी तथा उनकी धर्म बहनें इस विषय को लेकर काफी चिन्तित थीं | वे जन्तर मन्तर से लेकर जोशी के पोथी पत्रा तक दौड़ लगाती रहती थीं | उनकी बात चीत में कई बार ऐसा लगता था कि मैं दया का पात्र बन गया गया हूँ और जीवन की सफलता का सबसे बड़ा विजय चिन्ह सन्तान होना ही है | मेरे साथ व्याहे गये मेरी उम्र के गाँव के युवा दो दो बच्चों के बाप बन चुके थे और मैं इस दौर का हारा हुआ खिलाड़ी माना जा रहा था | एक बार माँ ने मेरे द्वारा बाजार से लाई हुयी कुछ मिठाई इत्यादि को कमला के बच्चों को देने के सम्बन्ध में कुछ चुभने वाली बाते कहीं | उन्होंने कुछ ऐसा कहा कि बच्चों के होने पर ही कोई बच्चों को खिलाना पिलाना जानता है | मेरी पत्नी को इन शब्दों से आन्तरिक व्यथा पहुँची होगी | मैं सोचने लगा कि हम दोनों को शायद डाक्टरी परीक्षण के मार्ग से गुजरने की आवश्यकता पड़े | वैसे मेरे सामने जय प्रकाश नारायण और प्रकाश वती ,तथा आचार्य कृपलानी व सुचेता कृपलानी के उदाहरण थे जो सन्तान न होने पर भी भारतीय इतिहास के मूर्धन्य व्यक्तित्व बने हैं | जुलाई माह में मैं अपने साथ राजा को लेकर तिरवां गया | मुन्शी सिंह ने मित्र की मर्यादा निभाई | प्रवेश भी मिल गया और वहीं छात्रावास में एक और प्रशिक्षार्थी के साथ रहने वाला कमरा भी मिल गया | उनके पढ़ने की सारी जिम्मेदारी और आर्थिक व्यवस्था अब मेरे ऊपर थी | मैं चाहता था कि माता जी अब कुछ धन संचय करने का सुख जान लें | जाते समय मैंने राजा से काफी कुछ नीति व उपदेश की बातें कहीं ,पर मुझे विश्वास नहीं था कि उनका विश्रृंखलित व्यक्तित्व कोई सजाव पा सकेगा | दरअसल मैनें छुट्टी में भी कई बार अपने कपड़ों से कुछ रुपये निकल जाने का शक किया था | ,पर खुलकर मैं उस बात को कह नहीं सका था | मुझे विश्वास नहीं होता था कि कोई व्यक्ति अपने घर में भी अपने इन्द्रिय सुख के लिए परिवार को धोखा दे सकता है |पर ,मैंने ईश्वर पर विश्वास करके उन्हें तिरवां में छोड़ा और गंजडुडवारा में जाकर अध्यापन कार्य प्रारम्भ किया | लगभग एक वर्ष पूरा होने के कारण मेरा कन्फर्मेशन होने जा रहा था ,पर इसी बीच अगस्त के प्रथम सप्ताह में मुझे वैश्य कालिज रोहतक से साक्षात्कार का पत्र मिला | मैंने प्राचार्य महोदय से कहा कि कन्फर्मेशन की औपचारिकता को पूरा करने के लिए शीघ्रता न करें क्योंकि मैं किसी और अच्छे कालेज में अपनी प्रविष्टि बनाने में प्रयासरत हूँ | उन्होंने मित्र भाव से मुझे उसी कालेज में रूककर समर्पित भाव से काम करने की बात कही | और बताया कि आगे चलकर मैं ही विभागाध्यक्ष बनूँगा और पी० जी ० कक्षा आने पर मुझे ही उसका इन्चार्ज बनाया जायेगा | बात आयी गयी हुयी | दरअसल मैं नहीं चाहता था कि मुझे तीन माह की नोटिस देनी पड़े या वेतन देना पड़े क्योंकि मुझे विश्वास हो गया था कि या तो वैश्य कालिज रोहतक या बड़ौत के जैन कालिज में नियुक्त हो जाऊँगा | सितम्बर के महीनें में मैं रोहतक पहुँचा | उस समय तक मैं धोती कुर्ता ही पहनता था | और शर्ट ,पैन्ट या कोट में मेरा लगाव न था | (क्रमशः )
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