Wednesday, 8 March 2017

...................... शादी हुयी थी ,पर पत्नी की मृत्यु हो चुकी है । वह लड़का एअरफ़ोर्से में एअरमैन बनकर चला गया था ,पर युद्ध समाप्ति के बाद वापिस आ गया है और राशनिंग विभाग में इंस्पेक्टर पद पर है । लडके के पिता नें कई सन्तानों के बाद भी दूसरी शादी कर ली है और वे अपनी ससुराल में रहते हैं । लड़के की बहिनें ब्याही जा चुकी हैं और छोटा भाई उसी के साथ रहता है और अर्ध सरकारी संस्थान में काम करता है । माँ नें मेरे भावी जीजा जी देखा और वे उन्हें पसन्द आ गये । मुन्नी लाल नें लड़के के पिता अम्बिका प्रसाद त्रिपाठी को बुलावा दिया । उन्होंने कहा कि वे एक हजार चाँदी के  नगद रुपये  लेकर शादी व्याह करेंगें । बाकी खाना -पीना और मड़वे का सामान अलग से होगा । पिताजी मात्र पाँच सौ रुपये छोड़कर गये थे । खानें -पीने की व्यवस्था खेतों से हो भी जाये , तो भी साज -सामान ,बर्तन -भाड़े ,कपडे और मान्यों के लिये व्यवस्था कहाँ से हो । और फिर अतिरिक्त पांच सौ चांदी के रुपये कहाँ से लाये जाँय ? बात अटक गयी । एक दूसरा लड़का भी देखा गया जो गोपाल के तिवारियों का था और प्राईमरी स्कूल में अध्यापक था । वह बिना किसी माँग के लड़की के शरीर सौष्ठव और परिवार के कारण व्याह को तैय्यार था । कमला से छोटा होनें पर भी मैं इस सम्बन्ध के लिये आग्रहशील हो उठा और आर्थिक कारणों से कक्का भी राजी हो गये । पर, पड़ोस की स्त्रियों नें माता जी को बीघा -बिस्वा के चक्कर में डाल दिया । उन्हें कहा गया कि गोपाल के तिवारी सोलह या अठ्ठारह बिस्वा  के होते हैं और प्रभाकर के अवस्थियों की बेटी उनके यहाँ नहीं व्याही जा सकती । प्रतिलोम विवाह में कन्यादान करनें वाला स्वर्ग का अधिकारी नहीं होता । असमय विधवा होनें वाली माँ शास्त्रानुसार पहले ही पूर्व जन्मों का फल भोग रही थी और अब काला अक्षर भैंस बराबर वाली पड़ोसी  स्त्रियों नें उन्हें अज्ञान के कुहासे में झोकनें की ठान ली । कक्का भी पुरानी व्यवस्था की उपज थे और चिठ्ठी -पत्री व थोड़े हिसाब -किताब के अतिरिक्त आधुनिक चेतना से अनिभिज्ञ थे । परलोक का भय उन्हें भी सता रहा था और फिर नाते -रिश्तेदार क्या कहेगे । और तो और उनके अपनें छोटे भाई भी व्याह में तभी शामिल हो सकेंगें जब लड़की बीस बिस्वा में व्याही जाय । अन्धकार की वीथियों से बच निकलनें का अब कोई मार्ग नहीं रहा । मेरे भावी जीजा जी अपनें एक ममेरे भाई के साथ कानपुर के देव नगर में रहते थे । वे अपनी नयी माँ से सदैव दूर रहे थे ,पर शादी व्याह में पिता की अवज्ञा नये मूल्यों का निर्धारण उनके वश की बात नहीं थी । वे भी उसी व्यवस्था की उपज थे जिसमें पुरुष होना ही सारी नारी जाति से श्रेष्ठ हो जाना होता है । अब क्या था -माता जी नें तय किया कि वे अपनें खेत पांच सौ रूपये में पास के गाँठ -गिरों का काम करनें वाले शंकर दीक्षित के पास रख देंगीं और इस प्रकार शादी सम्पन्न करेंगीं । ऊपर के सामान के लिये कुछ अपनी कमायी से और कुछ सह -शिक्षिकाओं से जोड़ -तोड़ कर पैसे का इन्तजाम किया । मुझे ठीक याद नहीं है पर शादी से कुछ पहले ही मेरे स्कूल न जाने की खबर उनके पास आ पहुँची । मेरी आँखों के आगे उनका वह चित्र आज भी ताजा है जब वे रो -रोकर कहती रहीं कि मैनें उन्हें सब बाते क्यों नहीं बतायीं । वे मास्टर द्वितीय चन्द्र के घर जाकर माफी माँग लेती । पर अब तो पहली प्राथमिकता थी लड़की का विवाह  करना । अम्बिका प्रसाद त्रिपाठी अत्यन्त लालची व स्वार्थी व्यक्ति थे।  न केवल उन्होंने चाँदी के हजार रुपये हड़प लिये ,मड़वे के नीचे यह नंग नाच भी किया कि सामान उनके मन मुताबिक़ नहीं है । अन्ततः माता जी को शम्भू शुक्ला  से दो सौ रुपये और कर्ज लेकर तथा समधी के पांवों पर सिर रखकर अपनी कन्या ब्याहनी पडी । मैं मूक दर्शक बनकर सब देखता रहा । कई बार मेरा मन हुआ कि एक पत्थर उठाकर अम्बिका प्रसाद के सिर पर दे मारूं पर पथभ्रष्ट पुरुष समाज का एक बहुत बड़ा भाग व्यवस्था का समर्थक था और मेरा लड़कपन मेरे आड़े आ रहा था । आखिर मैं था ही  क्या -स्कूल से भागा हुआ माँ पर आश्रित आवारा किस्म का लड़का । कितनी बार बुलाये जानें पर भी मैं मड़वे के नीचे पैर पूजने के लिये नहीं गया । हिन्दू समाज के धर्म विधायक ही यह बतायेंगें कि धर्मराज के खाते में मेरा यह कार्य डेबिट या क्रेडिट की किस श्रेणी में रखा जायेगा । मैं अपनी बड़ी बहन को बहुत प्यार करता था । वे मुझसे केवल पौनें दो वर्ष बड़ी थीं और हम दोनों न जाने कितनी बार लड़े -झगडे थे । उन्होंने न जानें कितनी बार मुझे नोचा -घसोटा था और मैनें भी उनके बालों को पकड़कर खींचा था । अब हम बड़े हो गये थे और बहन को घर से बाहर किसी अनिश्चित भविष्य में जाता देखकर मेरा मन फूट -फूट कर रो पड़ा । जीजा के लिये मेरे मन में अश्रद्धा न थी पर सिद्धान्त हीन बुढापे में दूसरी शादी करने वाले पिता के प्रति उनका चुप रहना मेरे मन में उदार आदर का भाव न जगा पाया था । यह तो परमात्मा का लाख -लाख शुक्र ही कहा जायेगा कि मात्र कुछ महीने अपनें ससुर के घर बलहापारा में रहनें के बाद कमला को कानपुर में अपनें पति व उनके  ममेरे भाई के साथ रहने का अवसर मिल गया और कुछ वर्षों बाद जीजा जी स्वतन्त्र रूप से गृहस्थी बसाने में समर्थ हो गये ।
                                        हमारा परिवार अब आर्थिक विपिन्नता के दौर से गुजरने लगा । खेतों से कोई अनाज नहीं मिल पा रहा था । माँ के   वेतन से प्रति माह अतिरिक्त लिया गया कर्ज व ब्याज चुकाया जाना था । लड़की के घर हर तीज त्यौहार व पर्व पर कुछ न कुछ भेजना सामाजिक विधान था । मेरे लिये कानपुर में पढ़ाई का खर्च जुटाना अब सम्भव न था । राजा अभी गाँव में एकाध वर्ष फेल होकर छठी में ही थे ।इसलिये उनकी पढ़ाई का जुगाड़ चल रहा था । स्कूल व कानपुर से मेरा भाग आना सकारात्मक व नकारात्मक दोनों पहलुओं का मिश्रण माना जाना चाहिये । सकारात्मक की बात फिर । नकारात्मक इस द्रष्टि से कि मैं  गाँव के कुछ बुरी आदतों वाले लड़कों के सम्पर्क में आ गया । उनमें से एक आनन्दी त्रिपाठी जिन्हें आँखों की खराबी के कारण चिपडा तिवारी कहा जाता था मुझे हांथों द्वारा वीर्य स्खलन की प्रक्रिया दिखाकर उनके सुखद अनुभव की बात बतायी । शरीर में ही छिपे किसी आनन्द की बात एक कौतूहल बनकर मेरे मन में जागी । प्रयोग धर्मिता मेरे स्वभाव का ही अंग है और मैनें सोचा कि इस अनुभव से क्यों न गुजर कर देखा जाये । मेरे प्रथम प्रयास में मुझे लगा कि श्रष्टि का अनिवर्चनीय आनन्द मेरी नस नस में भरा है कि मैं तारामण्डल के ऊपर किसी मोहक रोमांचक आकाश गंगा से गुजर रहा हूँ । पर भटकन का यह मार्ग अधिक लम्बा नहीं चला । मैं बता ही चुका हूँ कि मुझे पत्र -पत्रिकाओं व पुस्तकें पढनें की आदत पड़ चुकी थी । मेरे एक मित्र के पिता रघुनन्दन लाल तिवारी कान्यकुब्ज इण्टरमीडिएट कालेज में अंग्रेजी के अध्यापक थे । माता जी उन्हें मामा कहती थीं । मित्र के साथ उनके घर जानें पर मुझे ब्रम्हवर्चस्व द्वारा लिखी हुयी एक पुस्तक ब्रम्हचर्य ही जीवन है ,वीर्य नाश ही मृत्यु है । देखनें को मिली । मैनें आग्रह करके वह पुस्तक पढनें को माँग ली । आज मैं Have lock ellis और Kinsey report पढनें के बाद शायद उस पुस्तक की बातों से सहमत न होऊँ पर उस समय उस पुस्तक का एक एक वाक्य मेरी निर्माणात्मक चेतना पर अपनी छाप छोडनें लगा । मैनें अपनी दुर्बल इच्छा शक्ति को धिक्कारा और अपने को काम के प्रवाह में बहनें वाले कीड़े मकौड़े की श्रेणी में पाकर आत्मग्लानि से भर उठा ।  यह बड़बोलापन ही होगा कि उस समय मुझे वैसा ही अहसास हुआ जैसा तुलसीदास को रत्नावली की फटकार सुन कर हुआ होगा या निराला को अपनी पत्नी की उन पंक्तियों से जिसमें उन्होंने उन्हें हिन्दी में कुछ कर दिखाने की चुनौती दी थी । पर आत्म तिरस्कार ,आत्मग्लानि और अपनी पतित दुर्बलता से उबरने की प्रवृत्ति को निश्चय ही आज मैं एक उपलब्धि के रूप में लेता हूँ । वह दिन और आज मैंने संयम की बल्गा को अपनें हाथ से कभी नहीं छोड़ा और मन का तुरंग सदैव मेरे इशारे पर ही चला । मनमानी करके वह मुझे कहीं नहीं ले जा सका । अभी जीवन शेष है । सभी महान जान कहते हैं कि अहंकार पतन की पहली सीढ़ी है । इसलिये मैं अत्यन्त समर्पित भाव से मानव चेतना के सजग प्रहरियों के प्रति नतमस्तक होता हूँ जिन्होनें मुझे सृजन के उस सुख को पहचाननें का अवसर दिया जो अतीन्द्रिय है । और यहां से प्रारम्भ होता है मेरे जीवन का वह अध्याय जहाँ एकाध साल बाद मैं माँ के संरक्षण से मुक्त होकर स्वतन्त्र विकास की दिशा में चल पड़ा । जैसा कि मैं कह चुका हूँ कि रघुनन्दन लाल तिवारी कान्यकुब्ज इण्टर कालेज में अंग्रेजी अध्यापक थे । वे पुरानी ग्राम्य संस्कृति की उपज थे और एम ० ए ० अंग्रेजी होकर भी अपनें कन्धे पर कनस्तर रख कर आटा पिसवा लाते थे । बाद में वे उस कालेज के प्राचार्य भी हुये । वैसे तो वे कानपुर में रहते थे पर गर्मी की छुट्टी में शिवली आ जाते थे ।  उन्होंने पहले माताजी से मुझे कान्यकुब्ज कालेज में भर्ती  करानें की बात कही थी ,पर माँ नें डी ० ए ० वी ० स्कूल की तारीफ़ सुनकर मुझे वहीं भेजा था । अबकी छुट्टियों में  जब वे गाँव आये और उन्होंने घर से माँगकर पढी हुयी किताबों की बात सुनी  तो उन्होंने घर बुलवाकर मुझे कहा कि मेरे पिता उनके अच्छे दोस्त थे और वे चाहेंगें कि मैं अपने पिता का नाम बदनाम न करूँ । मुझे स्कूल छोड़े एक वर्ष हो चला था । उन्होंने मुझसे कहा कि मैं कान्यकुब्ज कालेज की नवीं कक्षा की प्रवेश परिक्षा में भाग लूँ । उन्होंने हिन्दी व अंग्रेजी के छोटे -मोटे प्रश्न पूछे और उन्हें लगा कि मैं नवीं कक्षा में प्रवेश पा लूँगा । मुझे पता नहीं कि यह सब कैसे और क्यों कर सम्भव हुआ ,पर जब मैनें नवीं कक्षा की प्रवेश परीक्षा की रिजल्ट सूची में अपना प्रथम स्थान देखा तो मैं हतप्रभ रह गया । प्रवेश परीक्षा हिन्दी ,अंग्रेजी व गणित की हुयी थी उनकी अहैतुक कृपा ही मेरे भविष्य जीवन के निर्माण का आधार बन गयी । तय किया गया कि अब मैं कमला के साथ देव नगर में रखा जाऊँगाँ । धनकुट्टी वाला सम्बन्ध लगभग टूट चुका था क्योंकि मेरे प्रति की गयी उपेक्षा माता जी से छुपी नहीं रही थी और वे फूफा के प्रति एक अवज्ञा से भर उठी थीं । जीजा जी के ममेरे भाई देव नारायण अग्निहोत्री जमींदार परिवार से थे और वकील थे । उनका झुकाव वामपन्थी विचारधारा की ओर था । मुझे  उनके यहाँ रहनें के कारण ही कामरेड यूसुफ और कामरेड मिराजकर जैसे प्रथम श्रेणी के वामपन्थी नेताओं के सम्पर्क में आने का मौक़ा मिला । इंग्लैण्ड के प्रधान मन्त्री चर्चिल नें दूसरे विश्वयुद्ध में विजय हासिल कर इतिहास में अपना नाम अमर कर लिया था ,पर वे भारत की स्वतन्त्रता के पक्ष में नहीं थे । इंग्लैण्ड को Mother of Democracyके नाम जाना जाता है । आम चुनाव में चर्चिल की कंजरवेटिव पार्टी बहुमत नहीं पा सकी और लेबर पार्टी विजयी हुयी । मि ० एटली प्रधान मन्त्री चुने गये । ऐसा लगा कि भारत की स्वतन्त्रता का मार्ग कुछ प्रशस्त हो रहा है । अमरीका भी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के समाप्त होनें की माँग कर रहा था । इधर भारत की आन्तरिक स्थितियाँ भी जन विद्रोह व सैन्य विद्रोह के माध्यम से विस्फोटक हो चुकी थीं । जर्मनी के खिलाफ युद्ध में सोवियत युनियन ,ब्रिटेन ,अमरीका ,फ्रांस -Allied Nation के साथ  था , पर बाद में वह अमरीका से अलग पूंजीवादी सत्ता के खिलाफ एक नये खेमें का गठन कर बैठा था । गान्धी जी नें द्वितीय विश्व महायुद्ध में अंग्रेजों का साथ इस शर्त पर दिया था कि वे युद्ध बाद भारत को आजाद करेंगें । पर रूस के मित्र राष्ट्रों से अलग हो जानें के बाद कम्युनिष्ट पार्टी ऑफ़ इण्डिया नें युद्ध में मित्र राष्ट्रों का साथ देने का विरोध किया । भारत में इस पार्टी को प्रतिबन्धित कर दिया गया और पार्टी के दिग्गज नेता अण्डर ग्राउण्ड हो गये । इन्हीं में थे बम्बई के मेयर कामरेड मिराजकर व उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ नेता कामरेड यूसुफ । वे देवनारायण अग्निहोत्री के पास वेश बदल कर रहते थे क्योंकि सम्भवतः वे सी ० पी ० आई ०  के सदस्य थे । मेरे जीजा का भी वामपन्थी झुकाव हो चुका था । मेरी बहन कमला उन सब के लिये खाने -पीनें का प्रबन्ध करती थीं क्योंकि अग्निहोत्री की पत्नी गाँव में रहकर जमीन -जायदाद की देख भाल कर रही थीं । ................................. 

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