Tuesday, 7 March 2017

.................................कभी कभार एकाध दिन किए लिये माँ हँसवती भी वहाँ मुझे  देखनें आ जाती थीं । कौन जानें विधुर गुरुप्रसाद के मन में विधवा सलहज के लिये कोई समाज वर्जित चाह भी छिपी रहती हो ? उनका एक भाई विद्याधर हाई स्कूल पास था और वे उसका जिक्र बड़े गर्व से करते थे । पर विकास की प्रक्रिया किसी के खुश -नाखुश होनें से नहीं रुकती । वह प्रकृति के किसी अन्य रहस्यात्मक प्रतिक्रियाओं से प्रभावित होती है । अंग्रेजी की प्रारम्भिक कक्षाओं में मुझे काफी दिक्कत हुयी । उन दिनों ग्रामर पर बहुत ध्यान दिया जाता था और घुटाई ,पढ़ाई का एक अभिन्न अंग थी । कहावत मशहूर थी -' घुटन्त विद्या खुदन्त पानी  '। मेरी स्मरण शक्ति ठीक थी और मैं पार्ट्स ऑफ़ स्पीच और क्रिया के तीनों अंग्रेजी रूपों को पूरी पकड़ के साथ अपनें मष्तिष्क में डाल सका ,पर कई बार मुझे Affirmative और Imperative वाक्यों की बनावट को लेकर परेशानी होती थी । मेरे अँग्रेजी अध्यापक श्री द्वितीय  चन्द्र जी एक सफल अध्यापक मानें जाते थे । वे हमें आदेश देते  Open the window. हम छात्र एक -एक कर खिड़की के पास जाते और उसे खोलते और फिर वे हमसे चाहते थे कि हम उन्हें अँग्रेजी में बतावें कि हम क्या कर रहे हैं । मुझे याद है कि एक बार उन्होंने जब मुझसे कहा -open the window तो मैं खिड़की के पास गया , तो मैनें कहा I am opening the window .उन्होंने मेरी ओर देखा और बोले कि यह गलत वाक्य है ,इसे सही करो । मैनें काल की कई परिभाषाओं को ध्यान में से निकाला और बोला -I have opened the window-वे बोले यह भी गलत है ,पर लड़कपन में मुझे ऐसा लगा कि मेरे स्वाभिमान पर चोट की गयी है । दरअसल मैं प्रारंभ्भ से लेकर सातवीं के अंत तक प्रशंसा ही पाता रहा था और मुझे झिड़की खानें का कोई अनुभव नहीं था।  मैनें कहा सर ,यह वाक्य तो ठीक है । वे शायद क्रोध में आ गये और बोले तू गंवईं गाँव से आकर मुझे अंग्रेजी बतायेगा । जाओ अपनी सीट पर बैठो । मैं सिर झुकाये वापिस चला आया । आज मैं जानता हूँ कि मुझे simple present में उन्हें यह उत्तर देना चाहिये था -जब मैं खिड़की खोल रहा था -I opened the window-शायद यही उत्तर वे चाहते थे । पर आज की Descriptive ग्रामर मेरे को थोड़ा बहुत सहारा भी देती है और मैनें एक के बाद एक जो वाक्य बोले थे उनका कुछ औचित्य ठहराया जा सकता है । मेरे ह्रदय पर जो ठेस लगी ,वह तो लग ही चुकी थी । इन्टरवल में 8 वीं अँग्रेजी के बच्चे जूतों में जिसके तल्ले घिस जाते हैं और उनका रंग सूखे अमरस जैसा लगता है , के टुकड़े काटकर प्लेट में रखकर हमारी कक्षा में ले आये और कहनें लगे कि वे हमें अमरस खिलानें आये हैं । उन्हें अपनें शहरी होनें का अभिमान था । पढ़ाई का खोखलापन उन्हें अतिरिक्त शरारतें करनें को प्रेरित करता था । हमारे पहनावे और हमारे सिर के बालों से वे जानते थे कि हम गाँव से आये हैं । वे हमें देहाती भुच्च कहते थे । उनमें से एक लड़का मेरी ओर आया और जूते के तल्ले का लाल टुकड़ा मेरी ओर बढ़ाकर कहा कि मैं चखकर देखूँ कि कितना स्वादिष्ट है ? मैनें हाथ झटक दिया । चीनी प्लेट नीचे गिरकर टूट गयी । उसनें  गर्दन पर जोर से एक हाथ लगाया । अब मुझसे बर्दाश्त नहीं हुआ । मैनें उठकर उसकी  टांग में लंगड़ी लगा दी । वह धड़ाम से नीचे गिरा । शायद उसे कुछ चोट आयी । शहरी बच्चों का वह ग्रुप उसे लेकर नीचे द्वितीय चन्द्र के पास गया । वे मेरे से कुछ असन्तुष्ट तो थे ही ,उन्होंने मुझे डाँटा और कहा कि मैं अपनें गार्जियन को लेकर अगले दिन कक्षा में आऊं । मैं उस लड़कपन में एक बड़ी भारी गलती कर बैठा । मैनें तय किया कि अब मैं उस स्कूल में नहीं पढूंगा चाहे जो कुछ हो जाये ।
                        माताजी को इन घटनाओं की खबर नहीं थी । गुरु प्रसाद से कुछ कहनें का प्रश्न ही नहीं था क्योंकि वे पहले ही अपने से मुझको अलग -थलग पाते थे । कुछ दिनों बाद दशहरे और दीवाली की छुट्टी होनी थी । बीच के कुछ दिन मैंने कानपुर शहर में घूमकर ऐसे जगहों की तलाश की जहाँ मैं दिन काट सकूँ ताकि फूफा को ऐसा लगता रहे कि मैं पढने जाता हूँ । अभी मैं कामनाओं के दुर्बलता भरे संसार से काफी कुछ अछूता था ,इसलिये आवारागर्दी करनें से बच गया । लेकिन मेरी खोज नें बैठने के दो अत्यन्त लाभदायक स्थान प्रदान किये । एक था मेस्टन रोड पर सड़क से लगी गयाप्रसाद लायब्रेरी ,जिसके मुख्य द्वार पर लगी बड़ी गोल घड़ी आज भी मेरे दिमाग में एक आकर्षक चित्र के रूप में अंकित है । दूसरा स्थान था नया गंज में तिमंजिले पर स्थित मारवाड़ी लायब्रेरी जहाँ पत्र -पत्रिकायें प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थीं । अँग्रेजी का अधिक ज्ञान तो मुझे था नहीं इसलिये हिन्दी की पत्र -पत्रिकाओं नें मेरे मन को रमने का अधिक स्थान दिया । सरस्वती , कल्पना ,विशाल ,भारती ,अवन्तिका ,माया ,और मनोहर कहानियाँ जैसी पत्रिकाओं में मैं दिनभर डूबा रहता । यदि विशेष भूख लगती तो मैं बाहर आकर एक आने में एक दर्जन मिलनें वाले केले भूख के अनुसार खा लेता । स्कूल से छुट्टी होनें के समय धनकुट्टी पहुँच जाता । एक दो माह इसी तरह चलनें के बाद पर्वों के बीच की छुट्टियों में मैं शिवली पहुँच गया । मुख्य अध्यापिका हँसवती देवी अब शिवली के प्राईमरी स्कूल में आ चुकी थीं । मैं कद में शायद कुछ लम्बा हो गया था । मेरे चेहरे पर चिन्ता की कुछ रेखायें भी उन्हें दिखायी पड़ने लगी होंगीं । उन्होंने पूछा कि पढ़ाई कैसी चल रही है और मैनें उन्हें आश्वस्त कर दिया कि सब कुछ ठीक -ठाक चल रहा है । बड़ों के आगे इतना बड़ा असत्य बोलने की गहरी पीड़ा मेरे मन को भाले की नोक के समान छेद गयी ,पर सत्य बोलनें का मेरा साहस अभी पूरी शक्ति के साथ उभर नहीं सका था । मैं जनता था कुछ दिनों बाद मेरे अनुपस्थित रहने की खबर उन तक आ जायेगी क्योंकि स्कूल में गाँव का पता लिखा था । दस दिन से अधिक अनुपस्थित रहने वाले छात्रों की सूचना कक्षा अध्यापकों के द्वारा स्कूल कार्यालय के माध्यम से छात्रों के अभिभावकों को प्रेषित कर दी जाती थी । डी ए वी स्कूल कानपुर शहर का अत्यन्त मशहूर स्कूल था । मेरा यह दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि मैं उस स्कूल में कुछ वर्ष बिताने में असमर्थ रहा । इसे अपनें स्वभाव की हठधर्मिता कहूँ या होनी का लेख ।
                               माता जी उन दिनों कमला की शादी के प्रयास में लगी थीं । कमला अब बड़ी हो चली थीं और सुगठित होनें के कारण शरीर से बड़ी लगती थीं । पत्रिकायें पढ़ते -पढ़ते मुझे नर -नारी सम्बन्धों का कुछ ज्ञान हो गया था ,यद्यपि मैं अभी तक बुरे हैव  का शिकार नहीं हुआ था । गाँव के कुछ मनचले युवक मेरी अँग्रेजी को देखकर कुछ छीटाकशी करनें लगे थे । स्मृति का तेज होना एक अच्छी बात मानी जाती है पर इसका एक नकारात्मक पहलू भी है । बहुत सी व्यर्थ की बातें आप भुला नहीं पाते। नारी पवित्रता की मेरी अपनी धारणायें थीं जो उस समय तक  के परिवेश से मुझे मिली थीं । आज उनमें से बहुत सी धारणाओं को मैं मध्य युगीन मानता हूँ ,पर उस समय वे धारणायें ही मेरे क्रिया -कलापों को संचालित करती थीं । कमला जब 15 वर्ष की रही होंगीं ,तो एक दिन किसी काम से घर से बाहर आयीं । घर के बाहर कोतवाली चबूतरे पर चार -पाँच नवयुवक बैठे थे -प्रकाश चन्द्र पाण्डेय ,छेदी लाल दीक्षित ,विजय शंकर दीक्षित ,राम कुमार मिश्रा और राम सहायं तिवारी । मुझे कमला नें भीतर बुलाया । उनकी बात सुनकर जब मैं बाहर निकल रहा था मुझे विजय शंकर की यह बात सुनायी पडी -खिला है फूल हम भी देखेंगें । और फिर कइयों की सम्मिलित हँसी । आज मैं समझता हूं कि तरुणायी के द्वार पर खड़ी नारी देह यष्टि की यह एक सहज प्रक्रिया है । इसमें शायद नारी सौन्दर्य को दूर से देखने और प्रशंसा करनें का भाव ही है । पर उस समय मैं उत्तेजित हो उठा । उन सबसे उम्र में आठ -दस वर्ष छोटा होनें पर भी मैनें विजय शंकर से कहा कि मैं उनके सिर पर लाठी मारूंगां ,अगर अगले दिन से मेरे घर की  नीम के चारो ओर बनें कोतवाली चबूतरे पर आ गये । बात आगे नहीं बढी क्योंकि वे पड़ोस के नवयुवक थे और उनके सम्बन्ध में हंसी मजाक के अतिरिक्त अन्य कोई चर्चा नहीं थी । पर मेरी माँ को इस बात की खबर लगी और मेरे कक्का को भी यह चिन्ता हो उठी कि उनकी पोती का हाँथ जल्दी पीला कर देना चाहिये । सामाजिक व्यवस्था का दबाव नारी के स्वतन्त्र विकास की प्रक्रिया को नकार रहा था । कमला लोअर मिडिल पास कर चुकी थीं और समय मिलता तो हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करनें योग्य थीं । पर ब्राम्हण विधान में लड़की का पाणिग्रहण ही एक सर्वोत्तम व्यवस्था के रूप में माना गया है और एक विधवा माँ इस व्यवस्था को कैसे चुनौती दे सकती थीं । शुक्लों नें करीब डेढ़ सौ वर्ष पहले अपनी एक बहन   का विवाह तिवारियों में तथा एक भतीजी को अवस्थियों में व्याहा था । चट्टू के तिवारियों और प्रभाकर के अवस्थियों को जमीन आदि देकर वहीं गाँव में बसाया गया था ।
                                   इन चट्टू तिवारियों का परिवार भी हमारे घर से एक दो मकान हटकर रह रहा था । । इसी परिवार में चन्द्र बली बाबू थे ,जिन्होनें माता जी को शिक्षिका बनानें में थोड़ी -बहुत मदद की थी । इनके दो बेटे थे । एक का नाम था लाल जो गाँव में अंग्रेजी अध्यापक थे और दूसरे का नाम था मुन्नी लाल जो शहर में वकील थे । लाल जितनें ही सज्जन और धार्मिक थे ,मुन्नी लाल उतनें ही कुटिल और काइयाँ । माता जी नें मुन्नी लाल से लड़के बतानें की बात कही । उन्होंने बताया कि एक लड़का उनकी निगाह में है । उसकी पहली ............................

No comments:

Post a Comment