Saturday, 11 March 2017

.................. मुझे याद है कि अखबार लेकर दोनों नेता कई स्थानों पर लाल निशान लगाया करते थे और उन श्रम बस्तियों की ओर अपना ध्यान केन्द्रित करते थे जिनमें कम्युनिस्ट  विचारधारा  फैलायी जा सकती हो । वे अंग्रेजी कम्युनिष्ट विचारधारा का अखबार व अन्य अखबार --स्टैट्समैन /नेशनल हेराल्ड पढ़ा करते थे । वहीं से मुझे अखबार पढनें की आदत पड़  गयी । उन्हें कई बार चाय पीनें व सिगरेट का कश लेनें की आदत थी । वे मुझे सिगरेट का पैकेट ख़त्म होजाने
पर कैप्सटन सिगरेट लाने के लिये दौड़ाते थे । उनके पास विभिन्न प्रकार की पोशाकें थीं । कभी वे मुसलमान बनते तो कभी हिन्दू । कभी महाराष्ट्रीयन बनते तो कभी गुजराती । वे कई भाषायें जानते थे पर अधिकतर अँग्रेजी भाषा में वाद -विवाद करते । वकील साहब भी उनके साथ बैठते । मैं उनकी बातें सुनता रहता -नवीं क्लास का विद्यार्थी था । वे मुझे भी अपनी विचारधारा से जोड़ना चाहते थे । वे कुछ अंग्रेजी ,कुछ हिन्दी ,कुछ मराठी और कुछ गुजराती में बोलते । धीरे -धीरे मैं भी टूटी -फूटी अँग्रेजी बोलनें लग गया और मुझे विश्वास हो गया कि अब मैं डी ० ए ० वी ०  स्कूल के अध्यापकश्री द्वितीय चन्द्र जी का नालायक शिष्य नहीं माना जाऊँगा ।
कान्यकुब्ज इण्टरमीडिएट कालेज में कक्षा नौ का रिजल्ट मुझे अध्यापकों की आँखों में  सम्मानसूचक भावनाओं के साथ देखनें का आधार प्रदान कर गया । मैं तीन सेक्शनों में सबसे अधिक अंक लेकर उत्तीर्ण हुआ था इधर घर की हालत बद से बद्त्तर होती जा रही थी । पीछे की ओर तीन तिदवारियां थी जिनमें एक तिंदवारी बैठ चुकी थी । और दूसरी की छत लटक चुकी थी । यह तय था कि वह अगली बरसात नहीं झेल पायेगी । आंगन के आगे का हिस्सा जिसमें दो तिंदवारी ,एक बैठका और चबूतरा था ,अभी तक गुजारे लायक थे । खेतों से कुछ मिल नहीं रहा था और माँ के ऊपर कर्ज का भार तो था ही ,पर साथ ही मेरे कमला के साथ रहने के कारण वे शायद अतिरिक्त उदारता के साथ कमला के यहां सामान भेज रहीं थीं । पर किया ही क्या जा सकता था ? कक्का अब काफी वृद्ध हो गये थे और ऐसा लग रहा था किवे अधिक नहीं चल पायेंगें।  राजा कक्षा छः में फेल होते -होते बचे और सम्भवतः अध्यापकों की उदारता के कारण सातवीं कक्षा में भेज दिये गये वे कद काठी में मेरे बराबर हो गये थे और यह सुनिश्चित था कि आकार में वे मेरे से दीर्घ आकृति पायेंगें । मुझे यह कुछ अच्छा नहीं लग रहा था ,शायद इसलिये कि बड़ा होनें के कारण मैं हर बात में बड़ा रहना चाहता था । आज मैं इस नादानी पर हँसता हूँ क्योंकि मैं जान गया हूँ कि हर व्यक्ति प्रकृति की निराली रचना होता है और उसकी शारीरिक और मानसिक क्षमताये बहुत कुछ पूर्व निर्धारित होती हैं । किसी तरह यदि मैं दसवीं की परीक्षा सफलता पूर्वक उत्तीर्ण कर सकूं तो शायद कहीं किसी छोटी क्लास के विद्यार्थियों  पढ़ाकर खर्चे का जुगाड़ किया जाये ,इस सम्भावना के साथ मैनें दसवीं में प्रवेश किया । अच्छे परीक्षा फल के कारण मैं फीस के भर से मुक्त था और कुछ  पुस्तकें भी गुरुजन कृपा से मिल गयी थीं । वैसे मैं जीजा जी के पास   रहकर भार नहीं बना  था,क्योंकि मैं घर या बाहर का कोई न कोई काम करता रहता था । कई बार खाना बनानें और घर की सफाई में भी मैं सक्रिय योगदान करता था । मेरे जीजा जी श्री  राजा राम त्रिपाठी वैसे हाई स्कूल पास नहीं थे ,पर एअर मैन रहनें के कारण उन्होंने कोई फ़ौजी इम्तिहान पास किया था ,जिसके कारण वे सिविल नौकरी में हाई स्कूल के समकक्ष मान लिए गए थे । वे लगभग पांच फ़ीट नौ इंच के सुगठित जवान थे । उनका चेहरा -मोहरा आकर्षक था ,पर उनके बाल असमय ही खिचड़ी बन गये थे । उन दिनों वे राशनिंग इंस्पेक्टर थे और मैं उन्हें काफी आदर भरी द्रष्टि से देखता था । पर वे अपनें ममेरे भाई देव नारायण अग्निहोत्री से शायद कुछ सहजता से नहीं जुड़े थे क्योंकि मैनें उन्हें  कभी वाद -विवाद की चर्चा में शामिल होते नहीं देखा । आगे चलकर वे जयपुर में रहनें वाले एक मौसिया के शिष्य बन गए थे और आजीवन दो -दो घंटों की पूजा करके किसी अद्रश्य शक्ति की खोज में लगे रहते थे ।  उनके मौसिया जयपुर के राजघराने में शायद कभी पुरोहित रहे हों और ऐसा माना जाता था कि उन्हें माता कात्यायिनी की सिद्धि प्राप्त  है। इसी बीच हाई स्कूल परीक्षा निकट आ गयी । जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ कि मुझे कक्षा की किताबे पढनें के अतिरिक्त लायब्रेरी की किताबे पढनें का गहरा शौक लग गया था । देवनागर से मेरा स्कूल चार पांच किलोमीटर से कम क्या होगा । पैदल आते जाते मुझे मार्ग में पड़ने वाले सभी पुस्तकालयों का पूरा ज्ञान हो गया । छुट्टियों में मैं गया प्रसाद व मारवाड़ी लायब्रेरी जाता ही रहता था । उस समय मुझे यह बताया गया था कि ज्ञान का जितना अधिक विस्तार पाया जा सके उतना ही अच्छा होता है और उसका सम्बन्ध परीक्षा अंकों के साथ नहीं होता । जैसे -जैसे मैं बड़ा हुआ और शिक्षा जगत से जुड़ा वैसे -वैसे मुझे इस ठोस सत्य का ज्ञान होनें लगा कि परीक्षा  अंकों की भी अपनी अहमियत है और उसे दार्शनिकता के चश्मे से नहीं देखना चाहिये । अच्छे अंकों की उपलब्धि के लिये एक सुनिश्चित अध्ययन योजना और चयनित प्रश्नों की तैयारी कहीं अधिक लाभ प्रद होती है अपेक्षाकृत दूर विस्तार वाले अध्ययन के ,जहाँ लक्ष्य की सुनिश्चितता नहीं होती है । परीक्षा में बैठनें के बाद मुझे लगा कि मैं बहुत अधिक जानता था ,पर जानकारी की बहुलता मेरे लिये एक निश्चित अवधि के कारण सहारा न बनकर व्यवधान बन गयी । खैर परीक्षा समाप्त हुयी रिजल्ट जैसा भी हो स्वीकारना ही होगा । उस समय भी मुझे यह वाक्य अन्तर्शक्ति लेकर झकझोरता था -" कर्मण्ये वाधिकारस्ते ,माँ फलेषु कदाचन "आज मैं जानता हूँ  कि गीता का यह सन्देश जीवन और समाज के बड़े कामों के सन्दर्भ में कहा गया है । पर उस कच्ची उम्र में मैं उसे अपनी छोटी सी स्कूली परीक्षा के साथ जोड़कर देख रहा था । इधर कानपुर में ममेरे भाई के साथ रहते हुये जीजा जी के साथ रहकर मेरी बहन को शायद  पूरी स्वतन्त्रता के साथ रहनें का सुख नहीं मिलरहा  था । घाटम पुर के बलहापारा में अग्निहोत्री जी का बहुत बड़ा परिवार था । कोई न कोई आता ही रहता । कई बार उनकी पत्नी आ बैठती । कमला पर काफी बोझ पड़ रहा था और मुझे ऐसा लग रहा था कि यह व्यवस्था अधिक दिन नहीं चल पायेगी और जीजा जी को कोई न कोई अन्य व्यवस्था करनी होगी । इस बीच में मैनें  पाया कि वे कई बार कुछ दिनों के लिये मानसिक रूप से विक्षिप्त हो उठते थे । वे क्रिया -कलापों में बुद्धि संगत जोड़ -तोड़ नहीं रख पाते थे और गुमसुम पड़े रहते थे । अग्निहोत्री जी की पत्नी नें बहन कमला को एकाध बार इशारा किया कि उन्हें कोई हवा -बैहर लग गयी है और कात्यायिनी की सिद्धि प्राप्त मौसिया जी के पास ले जाना उचित रहेगा समय अबाध गति से चल रहा था चलता ही रहा है और चलता ही रहेगा ।    माँ के सामनें सबसे बड़ा प्रश्न था सातवीं की परीक्षा के बाद राजा को कानपुर में रखनें की व्यवस्था हो ताकि वे आगे पढ़ सकें । वे अब उद्दण्ड हो गये थे और उनकी शरारतों की कहानियाँ माँ के नाक में दम कर रही थीं । यदि खेत किसी तरह से गिरवीं हुये बन्धन से मुक्त कर लिये जांयें, तो शायद पढ़ाई के खर्चे की कुछ गुंजाइश बन सके । व्याज तो खेतों की उपज के रूप में चुक रहा था ,पर पांच सौ चान्दी के रुपये कहाँ से आयें । परिस्थितियों की मजबूरी नें माँ को यह सोचनें पर विवश किया कि जिस प्रकार दहेज़ की अनिवार्यता नें खेतों को बन्धक करवाया है वैसे ही बड़े लडके की जल्दी शादी करके दहेज़ लेकर खेतों को मुक्त कराया जाये । हाई स्कूल का परिणाम आ गया और मैं 500 में से केवल 299 अंक पा सका । यदि एक अंक और मिल गया होता तो प्रथम श्रेणी तो हो ही जाती ,पर प्रकृति नें अपनी निर्माण प्रक्रिया में मुझमें कुछ ऐसी खामी भर दी है कि मैं चोटी पर पहुंचते -पहुंचते फिसल ही जाता हूँ । यह मेरी आदत नहीं रही है कि मैं अपनी असफलता को बहानों के पैबन्दों से बांधता चलूँ । मैं हमेशा यही कहता रहा कि मुझे उच्च द्वितीय श्रेणी ही मिल पायी है । कालेज के अध्यापक तो मुझे जानते ही थे। इसलिये 11 रहवीं कक्षा में प्रवेश में मुझे परेशानी नहीं हुयी और उनकी कृपा के कारण मेरा अध्ययन शुल्क माफ़ हो गया ।
                                         भारत आजाद हो चुका था ,पर अभी तक गणतन्त्र नहीं बना था । 15 अगस्त 1947 को यूनियन जैक का झण्डा उतारकर तिरंगा फहराया गया था और राज गोपालाचारी भारत के प्रथम गवर्नर जनरल बने थे । निष्पक्ष व्यस्क चुनावों के बल पर जो कि भारतीय संविधान का मूल तत्व स्वीकार हुआ था 26 जनवरी 1950 को एक सार्व भौम भारतीय गणराज्य की स्थापना होनें वाली थी । नेहरू जी की अँग्रेजी वक्तृताओं को मैं काफी कुछ समझनें लगा था और स्वतन्त्र भारत में एक स्वतन्त्र व्यक्तित्व के रूप में अपने को विकसित करनें की कल्पना मेरे मन में हिलोरें ले रही थी । यद्यपि गांधी जी हमारे बीच नहीं रहे थे ,पर उस महामानव द्वारा जलायी गयी ज्योति का प्रकाश बुझा नहीं था । उनके द्वारा तराशे गये नवरत्न अभी हमारे बीच थे और उनका समर्थतम शिष्य देश की अगुवाई कर रहा था । गान्धी जी के निधन पर नेहरू जी की कही हुयी पंक्तियाँ जो इतिहास की अमर धरोहर बन गयीं हैं -The Light has departed.को समझनें की क्षमता हाई स्कूल पास करने  के बाद मेरे में आ गयी थी । आज भी उन पंक्तियों को पढ़कर विश्व के कोटि -कोटि जन रो पड़ते हैं । कक्षा 11 में प्रवेश होते ही शिवली गाँव के पास के एक कस्बे रूरा से एक सज्जन मेरे पास आये जो अपनी कन्या के लिए वर की तलाश में थे । .............................

No comments:

Post a Comment