Saturday, 11 March 2017

         ................. इसी बीच   एक अच्छी घटना मेरे जीवन में घट चुकी थी । कानपुर के आनन्द बाग़ के कुछ कमरों में अवध बिहारी प्रधान एम ० ए ० ,एल ० टी ० नें एक स्कूल चलाया था जिसे राष्ट्रीय विद्यालय की संज्ञा दी गयी थी । इस विद्यालय में मुख्यतः वे ही पंजाबी लड़के -लडकियां सायं कालीन कक्षाओं में आते थे जो भारत विभाजन के शिकार बनें थे और सरकार नें उन्हें प्राइवेट रूप से परीक्षा पास करनें की अनुमति दी थी । हुआ यह कि शिवली के राम अवतार शुक्ला जो पाना के छोटे भाई थे और जिनके छोटे भाई बबुईया से गाँव में मेरा काफी मेल -जोळ था ,नें मुझे राष्ट्रीय विद्यालय में एक हिन्दी अध्यापक की जरूरत की बात बतायी । राम अवतार नगर पालिका स्कूल में प्राईमरी अध्यापक थे और उन्होंने मिडिल पास करके प्रशिक्षण का कोर्स पूरा किया था । वे स्वयं को हाई स्कूल की कक्षाओं को पढानें में असमर्थ समझते थे । वे मुझे प्रधान जी के पास ले गये । मैं प्रारम्भ से ही धोती -कुर्ता पहनता था और पंजाबी युवक -युवतियों के बीच मेरी वेश -भूषा खप नहीं पा रही थी । साथ ही में मैं अभी अवस्था के द्रष्टिकोण से भी उन्हें  परिपक्व नहीं लग रहा था । Qualification की उन्हें चिन्ता न थी क्योंकि जो भी अध्यापक चले जायें और कम से कम पैसे लें  ,इसकी उन्हें तलाश थी । उन्होंने मुझे एक दो ट्रायल क्लास दी और जब सभी लड़के -लड़कियों की ओर से उन्हें एक स्वर में नव नियुक्त अध्यापक के प्रति आदर और समर्थन सुननें को मिला तो फिर उन्होंने मुझे दो हिन्दी पीरियड के लिये दस रुपये देनें का प्रस्ताव किया । मैनें इसे तुरन्त स्वीकार कर लिया क्योंकि मैं जानता था कि कक्षा में कुछ युवतियां मुझसे उम्र में बड़ी थीं और स्कूल में अध्यापिकाओं का काम कर रही थीं । और उन्हें   अपनी योग्यता बढ़ाने की चिंता थी । ऐसा करनें से उन्हें मिडिल और हाई स्कूल में घुसने का मौक़ा मिल सकता था । उनमें से कई शादी शुदा थीं और उन्हें घर पर पढ़ाने के लिये किसी सरल देहाती अध्यापक की आवश्यकता थी । मैं समझ गया कि दस रुपये के साथ -साथ मुझे और भी परिश्रम की हुयी कमाई का उचित अवसर मिल सकेगा । साथ ही मुझे विश्वास था कि धीरे -धीरे स्कूल में अपनी साख बना लूँगा और शायद एकाध वर्ष में मुझे अंग्रेजी कक्षायें तथा इण्टर पास करनें के बाद इण्टर कक्षाएँ मिल जायें । कुछ आमदनी का प्रबन्ध होते ही मैनें अपना अलग कमरा ले लिया था । शौच के लिये ऊपर जाना होता था ,पर कमरे में पानी का नल लग जाने से सुविधा थी । मैं उसी कमरे में खाना बनानें की व्यवस्था कर लेता था । । एक तख़्त ,एक कुर्सी -मेज ,एक अंगीठी ,कुछ एक बर्तन यही मेरी गृहस्थी हो गयी । खाना बनाकर सब सामान तख़्त के नीचे कर दिया जाता और चौड़ी चादर का ढक्कन डाल दिया जाता । कमरे के ऊपर एक पावा था जिस पर एक Stuffed कौवा रखा रहता था । वह इतना सजीव लगता था मानों बोलनें ही वाला हो और मुझसे मिलने वाले साथी कई बार उसे ताली बजाकर उड़ाने की कोशिश करते थे । कौवे के प्रति मुझे कुछ लगाव हो गया था क्योंकि मेरे जीवन का काफी कुछ हिस्सा मुझे तिरस्कार और उजली पंक्तियों वालों से उपेक्षा के रूप में मिला था । इसी कमरे में जैसा कि मैं कह चुका हूँ कि रूरा के एक वयोवृद्ध सज्जन मुझसे मिलनें आये । उन्होंने मुझसे पूँछा कि मैं कहाँ पढता हूँ और कैसे अपना खर्च चलाता हूँ । उन्होंने कहा कि वे ऐसे ही मुझसे मिलनें चले आये हैं क्योंकि उनके पड़ोस में किसी अवस्थी की आढ़त की दुकान है और उनका कोई लड़का मेरे साथ पढता है और उसी नें उन्हें मेरे बारे में बताया है । कुछ देर बाद वे चले गये और मैं नहीं जानता कि मेरे बारे में वे क्या धारणा बनाकर ले गये । व्यवस्था कुछ ठीक हो रही थी । मैं छोटे भाई राजा को सातवीं कक्षा पास करनें पर अपनें साथ लाकर रखनें की योजना बना रहा था । उसी बीच एक और झटका लगा जिसनें हम सब को झकझोर डाला । असहायता की स्थिति और दयनीय हो उठी । जैसा कि मैं कह चुका हूँ कि कक्का की तबियत ढीली रहने लगी थी । वे काफी बुजुर्ग हो गए थे । वे शायद 75 वर्ष के रहे होंगें । वे वयोवृद्ध होनें पर भी हमारे संरक्षण के लिये ढाल का काम करते थे । पिता जी के न रहने पर भी उनके रहते हुए पास -पड़ोस में किसी की मजाल न थी कि हमें कुछ उल्टा -सीधा बोल जाये । उनमें श्रेष्ठ कान्यकुब्ज कुलीन आभिजात्य भावना का उचित आत्मसम्मान था । आस -पास के सभी घरों में उनकी उपस्थिति का यथोचित सत्कार होता था । पर विधि का विधान कहीं टल पाया है । उन्हें दो -तीन दिन बुखार आया । मनिया बनचर की दवा दी गयी । मनिया बनचर मोहल्ले के जड़ी -बूटी विशेषज्ञ के नाम से जाने जाते थे ,पर तीसरे ही  दिन  कक्का की कमजोरी बढ़ गयी । माँ जो शिवली में ही मुख्य अध्यापिका थीं ,स्कूल से दौड़कर घर आयीं । वे ससुर के चरणों के पास बैठीं । कमला भी उन दिनों घर पर ही थीं । उन्होंने नातिन को आशीर्वाद देनें के लिये हाँथ उठाया ,पर हाँथ उठा का उठा ही रह गया । सनातन धर्मी प्रक्रिया में मृत्यु का आगमन ह्रदय चीर देनें वाला सम्बन्ध विच्छेद बनकर तो आता ही है ,पर साथ ही आर्थिक बोझ का एक अतिरिक्त कारण भी बन जाता है । कर्जे से दबी माँ को निश्चय ही या तो अपनें साथ की अध्यापिकाओं से या परिचित साहूकारों से पैसों की व्यवस्था करनी पडी होगी । बैलगाड़ी करके कक्का को खेरेश्वर में गंगा के किनारे अन्तिम विदा दी गयी । मैं कानपुर से खेरेश्वर पहुँच गया था । राजा गाड़ी के साथ ही थे । और थे साथ में पास -पड़ोस के लोग । तेरहवीं समाप्ति की प्रक्रिया तक मैं घर पर  रहाऔर न जानें कितनें विधि -विधानों का मूक द्रष्टा बना रहा , पर मृत्यु की विभीषका भी जीजिविषा की चाह को समाप्त नहीं कर पाती और जीवन फिर अपनी सामान्य गति पर चलनें लगा । .....................................

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