कक्का का साया उठ जानें के बाद राजा उर्फ़ उदय नारायण और अधिक स्वतन्त्र हो गये । गाँव के बागों से चुपके -चुपके आम तोड़ लाना तो शायद क्षम्य हो सकता था ,पर उनकी कुछ अभद्र छेड़खानी भी चर्चा में आने लगी । पैसे का अभाव तो था ही और वे कुछ सम्पन्न घरों के लड़कों की होंडा -होड़ी में फैशन के दीवानें हो उठे । मन्नी लाल वकील के छोटे लड़के जिन्हें छोटे बबुआ कहा जाता था ,वकील पिता के पुत्र होनें के नाते स्वयं को चलता पुर्जा समझते थे । वे उस समय नवीं -दसवीं में पढ़ रहे थे और अपनी नयी प्रकार के पोशाकों और जूतों की प्रदर्शनी करते रहते थे । उन्हें दादा गीरी का शौक था , पर कद काठी में छोटा होनें के कारण उन्हें एक ऐसे बॉडीगाड की जरूरत थे जो आर्थिक रूप से उनके बराबर तो न हो पर उच्च कुलीन घर का लंबा -चौड़ा बिगलैड़ लड़का हो । राजा इन मापदण्डों पर खरे उतरते थे और छोटे बबुआ नें उन्हें अपनें जाल में फँसा लिया । बाप वकील था ही । मार पीट करनें पर जमानत की व्यवस्था सुनिश्चित थी क्योंकि वकील साहब का कानपुर में भी एक मकान था । अब क्या था -राजा अब कुछ पथभ्रष्ट लड़कों के सरदार बनकर उभरने लगे ।
सातवीं के बाद मैं उन्हें कानपुर में अपने साथ ले आया और हरसहांय जगदम्बा सहायं हाई स्कूल में प्रवेश दिलवा दिया । रामबाग में स्थित यह स्कूल काफी अच्छा माना जाता था ,पर मिडिल स्कूल में अंग्रेजी न होनें के कारण उन्हें सातवीं में भर्ती किया गया । वे अक्सर चमन गंज स्थित मन्नी लाल वकील के घर जाने लगे और छोटे बबुआ के साथ वहीं पर कई -कई दिन रुक जाते । वे जब कमरे में आते तो मेरे पूछनें पर वे बताते कि छोटे बबुआ पढ़ाई में उनकी मदद कर रहे हैं और उनके मकान पर काफी जगह है , इसलिये मैं उनकी चिन्ता न करूँ । पर ,मुझे उनके रंग ढंग में बदलाव लगनें लगा । वे नयी चाल की सिन्थेटिक धागे की कमीजें ,तंग पतलूनें और भारी जूतों में कुछ अतिरिक्त लम्बे लगते और मैं समझ नहीं पा रहा था कि खाना और कपड़ा जब वे कमरे में रहकर नहीं ले रहे हैं तो इसकी व्यवस्था कहाँ से हो जाती है । मैं अपनी पढ़ाई , अध्यापन और परिवार की चिंताओं में स्वयं इतना व्यस्त था कि इस ओर अधिक ध्यान देनें का समय नहीं निकाल पाया । फिर मैं उनसे बड़ा ही कितना था -मात्र दो ढाई वर्ष और वे कद काठी में मुझसे बड़े हो चले थे । कई बार मेरे मन में खुशी होती कि दूर के रिश्ते के एक वकील के घर का वे सहारा पा गये हैं और निश्चय ही कुछ बन जायेंगें ,पर किशोरावस्था से कच्ची तरुणाई की ओर बढ़ते हुये पितृविहीन बालक का कानपुर जैसे निकृष्ट शहर में विकास की ओर बढनें का सपना एक छलना ही साबित हुआ । वे धीरे -धीरे मारपीट ,दादागीरी और जबरदस्ती पैसा छिना लेने की असामाजिक गतिविधियों में फंसते गये और परोक्ष रूप में छोटे बबुआ से इन कामों के लिये उन्हें दाद मिलती रही । किसी प्रकार वे अँग्रेजी सातवीं पास कर आठवीं में आये और मुझे लगा कि शायद वे रास्ते पर चल निकलेंगें । कक्का का स्वर्गवास हुये एक वर्ष हो चुका था । घर की पिछली दो तिदवारियाँ बैठ चुकी थीं । अगली एक तिंदवारी भी टपकने लगी थी । कच्ची मिट्टी की दीवारें और छतें बिना देख रेख के बरसात की मार कैसे झेल पातीं । माँ चिन्तित थीं ,पर मार्ग क्या था ?व्याज देनें पर भी कर्ज का मूलधन ज्यों का त्यों खड़ा था और खेतों का गिरवीं होना समाज में परिवार की इज्जत का गिरवीं होना जैसा था । सम्भवतः मैं ग्यारहवीं परीक्षा के बाद बारहवीं परीक्षा के निकट पहुँच रहा हूँगा ,जब माँ नें मुझे बताया कि वे मुझे व्याह के बन्धन में बांधना चाहती हैं । अभी मैं सत्रह पर कर अठ्ठारहवीं में गया था और आज के क़ानून के मुताबिक़ मेरा व्याह एक गैर कानूनी प्रक्रिया थी । पर उन दिनों कुलीन घरानों में भी तेरह चौदह वर्ष की लड़की तथा सत्रह -अठ्ठारह वर्ष के लड़के का विवाह समाज की पूरी स्वीकृति पाता था | कामरेड मिराजकर और कामरेड यूसुफ और कामरेड कालीशंकर के सम्पर्क में रहकर मैं नर -नारी की समानता की बात सीख चुका था । और शादी में लड़के की नीलामी के सख्त खिलाफ था । मैनें माँ से यह बात कही । वे खूब हँसीं ,शायद मेरी नासमझी पर या मेरी दलील की खोखली आदर्श परस्ती के कारण । जो हो ,उन्होंने कहा कि उन्हें दहेज़ नहीं ,एक अच्छी बहू की तलाश है । उन्होंने बताया कि जो सज्जन एक वर्ष पहले कानपुर में मिलनें आये थे ,उन्हींकी सबसे छोटी लड़की पत्नी के रूप में मेरे लिये प्रस्तावित की जा रही है । मैनें बहुत बार मना किया कि मुझे पढ़ाई करनें का पूरा मौक़ा दिया जाये ,पर माँ नें कहा बगल में रहने वाले चाचा के परिवार के लोग कभी मकान में पड़े हुये बेड़े को लेकर और कभी घर की बर्बादी को लेकर कोई न कोई टंटा उठाते रहते हैं ,रिश्तेदारी हो जायेगी तो उन्हें कुछ सहारा होगा । लड़की के दो भाई हैं ,बाप हैं और चाचा हैं । पिता सरकारी नौकरी में हैं और चाचा भी किसी बैंक में हैं । घर में खेतपात हैं और रूरा के प्रतिष्ठित परिवारों में से एक हैं । साथ ही सुठियायँ के मिश्र हैं जो बड़े कुल वाले माने जाते हैं । उन्होंने कहा कि मैं चाहूं तो लड़की को देख आऊँ । पर मैनें कहा कि मैं शादी करूँगा ही नहीं । वे बोलीं तुम मत करना ,पर मैं लड़की तो देख आऊँ । कुछ माह बाद किसी छुट्टी पर गाँव जाने पर माँ नें बताया कि वे लड़की देख आयी हैं । इस बीच शायद मैं छमाही परीक्षा में कुछ अधिक अच्छे पेपर कर सका था । परीक्षा के बाद कुछ दिनों की छुट्टियाँ थीं । छुट्टियों के बाद जब मैं कक्षा में पहुँचा तो मेरे साथियों नें मुझे बधाई दी । नागरिक शास्त्र के अध्यापक कक्षा में आये और बोले कि विष्णु नारायण ,तुम नागरिक शास्त्र का सवाल हल करते हुए भी साहित्य रचना करनें लगते हो । ऐसा मत किया करो । साहित्य की भाषा में कई अर्थ निकलते हैं ,पर सामाजिक शास्त्रों की भाषा अपनें मूल अर्थों से जुडी रहनी चाहिये । फिर उन्होंने मुझे शाबासी देते हुए कहा कि मैनें परीक्षा में सर्वाधिक अंक पाकर एक प्रशंसा का काम किया है । अँग्रेजी अध्यापक सुभाष चन्द्र बोस की भारतीय राष्ट्र सेना के तीतर -बितर होने पर उससे निकल कर जीविका की तलाश में कानपुर पहुंचे थे । वे अपनी वंश परम्परा में एक हिन्दुस्तानी पिता और बर्मी माँ के पुत्र थे । उन्होंने शायद कोहिमा से अँग्रेजी में एम ० ए ० किया था । कैसे और किस सम्बन्ध के कारण मेरे कालेज में अँग्रेजी पढानें हेतु नियुक्त किये गये ,यह मैं नहीं जानता ,पर वे अँग्रेजी को अँग्रेजी में पढ़ाते थे । उनका उच्चारण विशुद्ध और व्याख्या पद्धति अत्यन्त प्रभावशाली थी । वे कालेज में मात्र डेढ़ -दो वर्ष रहे और फिर वे मणिपुर की किसी उच्च शिक्षण संस्था से जुड़ गये थे । उनकी शाबासी मेरे लिये एक संग्रहणीय धरोहर बनी रही और उसके कारण मैं एक छोटा -मोटा हीरो बनकर विद्यार्थियों की आँखों में उभर गया था । इसका एक अतिरिक्त फायदा यह भी हुआ कि राष्ट्रीय विद्यालय के प्रबन्धक -प्राचार्य नें मेरे ऊपर अंग्रेजी पढ़ाने की जिम्मेदारी डाल दी । न केवल हाई स्कूल की बल्कि इण्टर कक्षाओं की भी । तो ,माँ नें मुझे जब लड़की देखने की बात बतायी तो मैनें उत्सुकता वश जानना चाहा कि उन्होंने कैसे और कहाँ लड़की को देखा और उन्हें वो कैसी लगी । कानपुर देहात जनपद के मैथा प्रखण्ड ब्लाक के प्राईमरी स्कूलों की एक खेल कूंद प्रतियोगिता रूरा में आयोजित की गयी थी । इसमें दौड़ ,उछल कूंद ,शरीर सन्तुलन ,गृह कार्य जैसी अनेक प्रतियोगितायें दो तीन उम्र श्रेणियों के अनुसार नियोजित की गयी थीं । माता जी भी तीसरी ,चौथी और पांचवीं कक्षा की खेल प्रतिस्पर्धा में भाग लेनें वाली लड़कियों के साथ रूरा गयी थीं । तीन दिन के कैम्प का आयोजन था । रूरा की मुख्य अध्यापिका सुखरानी से उनका गहरा मैत्री भाव था और संयोग वश सुखरानी उन्ही सज्जन के घर के पास रहती थीं जो मुझे जमाता के रूप में देखने के लिये आये थे । आस पास के घर काफी बड़े थे और उनके पीछे खुले मैदान थे जिनमें कीकर और बेरो के पेंड़ उगे हुए थे । माँ नें मुझे बताया कि खेलों के पहले दिन सुखरानी नें उन्हें छत पर आने को कहा और पीछे बेरी के पेंड़ के नीचे घुटन्ना और फ्राक पहनें एक तेरह -चौदह वर्ष की लड़की की ओर इशारा करते हुए कहा कि वह वासुदेव मिश्र की लड़की है , जिसकी शादी की बात वे चला रहे हैं । लड़की अरहर की एक सूखी डंडी लेकर बेर नीचे गिरा रही थी और उठा -उठा कर खा रही थी । माँ नें बताया कि उसकी कंजी आँखें और भरापूरा शरीर उन्हें अच्छा लगा । बाद में पांचवीं की लड़कियों की जब तीसरे दिन प्रखण्डीय प्रतियोगिता हुयी तो उसमें वही लड़की सुई डोरा के खेल में प्रथम आयी । सुईयां लेकर दस अध्यापिकायें एक तरफ खड़ी थीं और दूसरी तरफ से दस छात्रायें डोरा लेकर दौड़ीं । उन्हें दूसरे कोनें में आकर सुई में डोरा डालना था और लौटकर प्रारम्भ के स्थान पर पहुँचना था । ................................................................
सातवीं के बाद मैं उन्हें कानपुर में अपने साथ ले आया और हरसहांय जगदम्बा सहायं हाई स्कूल में प्रवेश दिलवा दिया । रामबाग में स्थित यह स्कूल काफी अच्छा माना जाता था ,पर मिडिल स्कूल में अंग्रेजी न होनें के कारण उन्हें सातवीं में भर्ती किया गया । वे अक्सर चमन गंज स्थित मन्नी लाल वकील के घर जाने लगे और छोटे बबुआ के साथ वहीं पर कई -कई दिन रुक जाते । वे जब कमरे में आते तो मेरे पूछनें पर वे बताते कि छोटे बबुआ पढ़ाई में उनकी मदद कर रहे हैं और उनके मकान पर काफी जगह है , इसलिये मैं उनकी चिन्ता न करूँ । पर ,मुझे उनके रंग ढंग में बदलाव लगनें लगा । वे नयी चाल की सिन्थेटिक धागे की कमीजें ,तंग पतलूनें और भारी जूतों में कुछ अतिरिक्त लम्बे लगते और मैं समझ नहीं पा रहा था कि खाना और कपड़ा जब वे कमरे में रहकर नहीं ले रहे हैं तो इसकी व्यवस्था कहाँ से हो जाती है । मैं अपनी पढ़ाई , अध्यापन और परिवार की चिंताओं में स्वयं इतना व्यस्त था कि इस ओर अधिक ध्यान देनें का समय नहीं निकाल पाया । फिर मैं उनसे बड़ा ही कितना था -मात्र दो ढाई वर्ष और वे कद काठी में मुझसे बड़े हो चले थे । कई बार मेरे मन में खुशी होती कि दूर के रिश्ते के एक वकील के घर का वे सहारा पा गये हैं और निश्चय ही कुछ बन जायेंगें ,पर किशोरावस्था से कच्ची तरुणाई की ओर बढ़ते हुये पितृविहीन बालक का कानपुर जैसे निकृष्ट शहर में विकास की ओर बढनें का सपना एक छलना ही साबित हुआ । वे धीरे -धीरे मारपीट ,दादागीरी और जबरदस्ती पैसा छिना लेने की असामाजिक गतिविधियों में फंसते गये और परोक्ष रूप में छोटे बबुआ से इन कामों के लिये उन्हें दाद मिलती रही । किसी प्रकार वे अँग्रेजी सातवीं पास कर आठवीं में आये और मुझे लगा कि शायद वे रास्ते पर चल निकलेंगें । कक्का का स्वर्गवास हुये एक वर्ष हो चुका था । घर की पिछली दो तिदवारियाँ बैठ चुकी थीं । अगली एक तिंदवारी भी टपकने लगी थी । कच्ची मिट्टी की दीवारें और छतें बिना देख रेख के बरसात की मार कैसे झेल पातीं । माँ चिन्तित थीं ,पर मार्ग क्या था ?व्याज देनें पर भी कर्ज का मूलधन ज्यों का त्यों खड़ा था और खेतों का गिरवीं होना समाज में परिवार की इज्जत का गिरवीं होना जैसा था । सम्भवतः मैं ग्यारहवीं परीक्षा के बाद बारहवीं परीक्षा के निकट पहुँच रहा हूँगा ,जब माँ नें मुझे बताया कि वे मुझे व्याह के बन्धन में बांधना चाहती हैं । अभी मैं सत्रह पर कर अठ्ठारहवीं में गया था और आज के क़ानून के मुताबिक़ मेरा व्याह एक गैर कानूनी प्रक्रिया थी । पर उन दिनों कुलीन घरानों में भी तेरह चौदह वर्ष की लड़की तथा सत्रह -अठ्ठारह वर्ष के लड़के का विवाह समाज की पूरी स्वीकृति पाता था | कामरेड मिराजकर और कामरेड यूसुफ और कामरेड कालीशंकर के सम्पर्क में रहकर मैं नर -नारी की समानता की बात सीख चुका था । और शादी में लड़के की नीलामी के सख्त खिलाफ था । मैनें माँ से यह बात कही । वे खूब हँसीं ,शायद मेरी नासमझी पर या मेरी दलील की खोखली आदर्श परस्ती के कारण । जो हो ,उन्होंने कहा कि उन्हें दहेज़ नहीं ,एक अच्छी बहू की तलाश है । उन्होंने बताया कि जो सज्जन एक वर्ष पहले कानपुर में मिलनें आये थे ,उन्हींकी सबसे छोटी लड़की पत्नी के रूप में मेरे लिये प्रस्तावित की जा रही है । मैनें बहुत बार मना किया कि मुझे पढ़ाई करनें का पूरा मौक़ा दिया जाये ,पर माँ नें कहा बगल में रहने वाले चाचा के परिवार के लोग कभी मकान में पड़े हुये बेड़े को लेकर और कभी घर की बर्बादी को लेकर कोई न कोई टंटा उठाते रहते हैं ,रिश्तेदारी हो जायेगी तो उन्हें कुछ सहारा होगा । लड़की के दो भाई हैं ,बाप हैं और चाचा हैं । पिता सरकारी नौकरी में हैं और चाचा भी किसी बैंक में हैं । घर में खेतपात हैं और रूरा के प्रतिष्ठित परिवारों में से एक हैं । साथ ही सुठियायँ के मिश्र हैं जो बड़े कुल वाले माने जाते हैं । उन्होंने कहा कि मैं चाहूं तो लड़की को देख आऊँ । पर मैनें कहा कि मैं शादी करूँगा ही नहीं । वे बोलीं तुम मत करना ,पर मैं लड़की तो देख आऊँ । कुछ माह बाद किसी छुट्टी पर गाँव जाने पर माँ नें बताया कि वे लड़की देख आयी हैं । इस बीच शायद मैं छमाही परीक्षा में कुछ अधिक अच्छे पेपर कर सका था । परीक्षा के बाद कुछ दिनों की छुट्टियाँ थीं । छुट्टियों के बाद जब मैं कक्षा में पहुँचा तो मेरे साथियों नें मुझे बधाई दी । नागरिक शास्त्र के अध्यापक कक्षा में आये और बोले कि विष्णु नारायण ,तुम नागरिक शास्त्र का सवाल हल करते हुए भी साहित्य रचना करनें लगते हो । ऐसा मत किया करो । साहित्य की भाषा में कई अर्थ निकलते हैं ,पर सामाजिक शास्त्रों की भाषा अपनें मूल अर्थों से जुडी रहनी चाहिये । फिर उन्होंने मुझे शाबासी देते हुए कहा कि मैनें परीक्षा में सर्वाधिक अंक पाकर एक प्रशंसा का काम किया है । अँग्रेजी अध्यापक सुभाष चन्द्र बोस की भारतीय राष्ट्र सेना के तीतर -बितर होने पर उससे निकल कर जीविका की तलाश में कानपुर पहुंचे थे । वे अपनी वंश परम्परा में एक हिन्दुस्तानी पिता और बर्मी माँ के पुत्र थे । उन्होंने शायद कोहिमा से अँग्रेजी में एम ० ए ० किया था । कैसे और किस सम्बन्ध के कारण मेरे कालेज में अँग्रेजी पढानें हेतु नियुक्त किये गये ,यह मैं नहीं जानता ,पर वे अँग्रेजी को अँग्रेजी में पढ़ाते थे । उनका उच्चारण विशुद्ध और व्याख्या पद्धति अत्यन्त प्रभावशाली थी । वे कालेज में मात्र डेढ़ -दो वर्ष रहे और फिर वे मणिपुर की किसी उच्च शिक्षण संस्था से जुड़ गये थे । उनकी शाबासी मेरे लिये एक संग्रहणीय धरोहर बनी रही और उसके कारण मैं एक छोटा -मोटा हीरो बनकर विद्यार्थियों की आँखों में उभर गया था । इसका एक अतिरिक्त फायदा यह भी हुआ कि राष्ट्रीय विद्यालय के प्रबन्धक -प्राचार्य नें मेरे ऊपर अंग्रेजी पढ़ाने की जिम्मेदारी डाल दी । न केवल हाई स्कूल की बल्कि इण्टर कक्षाओं की भी । तो ,माँ नें मुझे जब लड़की देखने की बात बतायी तो मैनें उत्सुकता वश जानना चाहा कि उन्होंने कैसे और कहाँ लड़की को देखा और उन्हें वो कैसी लगी । कानपुर देहात जनपद के मैथा प्रखण्ड ब्लाक के प्राईमरी स्कूलों की एक खेल कूंद प्रतियोगिता रूरा में आयोजित की गयी थी । इसमें दौड़ ,उछल कूंद ,शरीर सन्तुलन ,गृह कार्य जैसी अनेक प्रतियोगितायें दो तीन उम्र श्रेणियों के अनुसार नियोजित की गयी थीं । माता जी भी तीसरी ,चौथी और पांचवीं कक्षा की खेल प्रतिस्पर्धा में भाग लेनें वाली लड़कियों के साथ रूरा गयी थीं । तीन दिन के कैम्प का आयोजन था । रूरा की मुख्य अध्यापिका सुखरानी से उनका गहरा मैत्री भाव था और संयोग वश सुखरानी उन्ही सज्जन के घर के पास रहती थीं जो मुझे जमाता के रूप में देखने के लिये आये थे । आस पास के घर काफी बड़े थे और उनके पीछे खुले मैदान थे जिनमें कीकर और बेरो के पेंड़ उगे हुए थे । माँ नें मुझे बताया कि खेलों के पहले दिन सुखरानी नें उन्हें छत पर आने को कहा और पीछे बेरी के पेंड़ के नीचे घुटन्ना और फ्राक पहनें एक तेरह -चौदह वर्ष की लड़की की ओर इशारा करते हुए कहा कि वह वासुदेव मिश्र की लड़की है , जिसकी शादी की बात वे चला रहे हैं । लड़की अरहर की एक सूखी डंडी लेकर बेर नीचे गिरा रही थी और उठा -उठा कर खा रही थी । माँ नें बताया कि उसकी कंजी आँखें और भरापूरा शरीर उन्हें अच्छा लगा । बाद में पांचवीं की लड़कियों की जब तीसरे दिन प्रखण्डीय प्रतियोगिता हुयी तो उसमें वही लड़की सुई डोरा के खेल में प्रथम आयी । सुईयां लेकर दस अध्यापिकायें एक तरफ खड़ी थीं और दूसरी तरफ से दस छात्रायें डोरा लेकर दौड़ीं । उन्हें दूसरे कोनें में आकर सुई में डोरा डालना था और लौटकर प्रारम्भ के स्थान पर पहुँचना था । ................................................................
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