रमिया का बापू छिदम्मी धीमर होली की पहली दिन की शाम को काफी चिन्तित हो उठा । चिन्ता का कोई ख़ास कारण न था पर उसनें सोलहवें वर्ष में पैर रख रही रमिया को पड़ोस के हलवाई नत्थन के मझले लड़के सुखबिन्दर के साथ हँसते -बोलते देख लिया था । यों कभी -कभी पड़ोसी होनें के नाते रमिया और सुखबिन्दर छोटी -मोटी बातें कर लिया करते थे पर उस शाम हँसी -ठिठोली का जो नजारा छिद्दम्मी नें देखा उससे उसका मन शंका से भर गया । पर क्या किया जाये कोई ख़ास बात तो थी नहीं होली के एक दो दिन आगे पीछे हँसी ठिठोली का माहौल होता ही है । रंग ,गुलाल और अबीर लगा लेने की छूट भी हिन्दू समाज के एक बड़े वर्ग नें दे रखी है । त्यौहार के इस सन्दर्भ में रमिया और सुखविन्दर की हंसी ठिठौली को गलत अर्थों में लेना छिद्दम्मी को उचित नहीं लगा । पर न जानें क्यों छिद्दम्मी को लगा कि रमिया की हंसी और मुस्कान के कुछ नये अन्दाज हैं और उनसे कुछ नये अर्थ लगाये जा सकते हैं । उसनें सोचा कि रमिया की माँ से बात करके सावधान रहने की कोई तजबीज बनानी पड़ेगी पर कुछ मिलनें वालों के आ जानें के कारण यह बात उसके दिमाग से उतर गयी और इस बातचीत को सहज भाव से लेकर अपनें काम -काज में लग गया । छिद्दम्मी के मन से तो यह बात उतर गयी पर उस हँसी ठिठौली नें रमिया और सुखबिन्दर को सोच विचार की चक्करदार भंवर में फँसा दिया । रमिया सुन्दर है और जवान हैं ,सुखविन्दर कमेरा है और तरुण है यह बात तो सभी जानते थे पर उभरती तरुणायी के तूफानी दौर में उभरती भावनाओं की उथल -पुथल का पहला अहसास रमिया और सुखबिन्दर को बहुत सुखद महसूस हुआ । बातचीत की इतनी मिठास और होली के सुवाहन मौसम की मादक मस्ती रमिया और सुखविन्दर को चकरा गयी । अब क्या किया जाये रमिया के गालों पर गुलाल कैसे लग पाये और रमिया की पिचकारी प्यार की लाल छीटें सुखविन्दर के कपड़ों पर कैसे डाल पायें । मन के भीतर योजनाएं बननें लग गयीं । पर सुखविन्दर का बाप नत्थन हलवाई अपनें खुंखार थोबड़े के लिये मशहूर था और छिद्दम्मी धीमर की लाठी न जानें कितनी बार अपना रंग दिखा चुकी थी । जाति गत विषमता मैत्री सम्बन्धों को आगे बढानें में बाधक बन रही थी पर शरीर की लस लहरियाँ मनों पर लगाम नहीं कसने दे रही थी । इसी दौरान एक घटना घट गयी ।
आनन्दें शुकुल की पड़िया जो अब बड़ी हो गयी थी कई दिनों से उछाह पर थी । होली के एक दिन पहले की शाम लड़कें गली में रंग रंगोली खेलनें में लगे थे । किसी नें आकर पड़िया के माथे पर अबीर मल दी । पड़िया उछाह पर तो थी ही ,होली की अबीर नें उसे और बेकाबू कर दिया । वह रस्सी तुड़ाकर भागी सो भागी । अनंदे शुकुल बनियाइन ,कच्छा पहनें पीछे भागे पर पड़िया भला कहाँ पकड़ में आती । गाँव के एक सिरे पर चिरंजी अहीर का घर था और उसके लम्बे चौड़े अहाते में कई गाय भैंसे बंधी रहती थीं । उसके पास एक झोटा भी था जिसे गाँव के लड़कों नें एक मजाकिया नाम दिया था -'धाँसू ' ,अब पड़िया आगे और आनन्दे शुकुल पीछे । चिरन्जी के अहाते में घुसकर पड़िया अपनें आप धाँसू के पास रुक गयी । खूँटें में बँधा धाँसू रस्सी के नियन्त्रण में इधर -उधर घूमनें लगा और पड़िया के शरीर से निकलती हुयी कोईअजीब गन्ध उसे बेहाल करनें लगी । वह दांत निकाल कर ऊपर की ओर देखता और मुँह से झाग के फेने निकालता । आनन्दे शुकुल हांफते -हांफते पड़िया के पास पहुँचें और उसके गले में टूटी हुयी रस्सी पकड़ कर खींच कर घर की ओर ले जानें लगे । पड़िया जाना नहीं चाहती थी पर सींकिया सुकुल जी उसे खींचनें में लगे थे । इस हलचल में चिरंजी भी निकल कर बाहर आ गया । उसनें धाँसू की पीठ पर शाबाशी की थपकी लगायी । जैसे -तैसे सुकुल जी पड़िया को खींच कर ले चले । थपकी खाकर धाँसू को न जानें कहाँ से अतिरिक्त जोश आ गया । उसनें ताकत लगायी और खूँटा उखड गया । वह गले में रस्सी और रस्सी में बंधे हुये खूंटे सहित पड़िया के पीछे सूँघा -सूंघी करते हुए चल पड़ा । अभी धुँधलका ही हुआ था । बच्चों को होली की पहली शाम हुल्लड़ मचानें का एक निराला अवसर मिल गया । एकाध नें धाँसू के ऊपर रंग डाल कर अबीर फेंक दी । पंगू पासी का लड़का , 'होली है भाई होली है ,धाँसू पड़िया जोड़ी है "। कहकर नाचने ,थिरकने लगा । लड़कों की टोली उसके इस खेल में शामिल हो गयी । चिरंजी नें दौड़कर खूँटा पकड़कर धाँसू को लौटाने की कोशिश की पर धाँसू था जो पड़िया का साथ छोडना ही नहीं चाहता था । शाम को पूजा के बाद मन्दिर से लौटते पण्डित मुरारी लाल चतुर्वेदी नें यह द्रश्य देखा । वे गाँव के बुजुर्ग समझदार और पढ़े -लिखे व्यक्ति के रूप में जानें जाते थे । उन्होंने आनन्दे शुकुल और चिरंजी यादव को समझाया कि जबरदस्ती ठीक नहीं है । पशुओं को प्रकृति के नियमों का पालन करनें दो । हाँ हम मनुष्यों के लिये धर्म -कर्म के जो नियम हैं उन्हें मानना ही पड़ता है नहीं तो आदमी और जानवर में अन्तर ही क्या है । आनन्दे शुकुल और चिरंजी अहीर दोनों की समझ में यह बात आ गयी । मनुष्य होनें के नाते वे अलग -अलग जाति में हैं पर उनके पशुओं की तो कोई अलग जाति नहीं है । कुछ देर की स्वतन्त्रता पाकर पड़िया और धाँसू मानव सभ्यता द्वारा नियोजित होली मिलन का सहज ,सरल आनन्द पानें का अवसर पा गये ।
अगली शाम गाँव के इण्टर कालेज में एक साहित्यक गोष्ठी का आयोजन किया गया था । गोष्ठी में दसवीं ,ग्यारहवीं और बारहवीं के विद्यार्थी श्रोता के रूप में उपस्थित थे । छिद्दम्मी धीमर की बेटी रमिया कक्षा दस में पढ़ती थी और नत्थू हलवाई का बेटा सुखविन्दर ग्यारहवीं में था । दोनों श्रोता विद्यार्थियों के बीच पास -पास बैठे थे । इण्टर क्लास को हिन्दी पढ़ाने वाले डा ० सूरज वर्मा और अँग्रेजी पढ़ाने वाले मथुरा शुक्ल तथा साथ में समाज शास्त्र के प्रवक्ता सीताराम सचदेवा गोष्ठी के विद्वान वक्ताओं में थे । जवाहर लाल यूनिवर्सिटी में हिन्दी उपन्यास में नारी मनोविज्ञान में शोध करनें वाली कु ० अर्चना जो मथुरा शुक्ल की भतीजी थीं ,भी गोष्ठी में उपस्थित थीं । उपन्यासों की चर्चा करते -करते बात भगवती चरण वर्मा के बहु चर्चित उपन्यास चित्र लेखा पर आ पहुँची ।अँग्रेजी प्राध्यापक मथुरा शुक्ल जी फ्रांस के किसी उपन्यासकार से चित्र लेखा को प्रभावित बता रहे थे । उनका कहना था कि चरित्र चित्रण की द्रष्टि से चित्रलेखा को अधिक सफल नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसमें बीज गुप्त के चरित्र का उन्नयनीकरण किया गया है जबकि योगी कुमार गिरि को लेखक के पूर्व पूर्व निर्धारित मूल्यों का खामियाजा भुगतना पड़ा है । इस बात को लेकर शोध छात्रा कु ० अर्चना का अपना एक अलग नजरिया था । उन्होंने यह माननें से इन्कार किया कि बीज गुप्त को अनावश्यक रूप से महिमा मण्डित किया गया है । उनका कहना था कि नर और नारी का पारस्परिक आकर्षण मिथुन सुख से हटकर भी अन्य अभिरुचियों और मानसिक समानान्ताओं पर टिकाऊ रूप से आधारित हो सकता है । बीज गुप्त में नर -नारी के इस नैसर्गिक आकर्षण को साख्य भाव से लेने की क्षमता है पर योगी कुमार गिरि का चिन्तन पक्षाघात से ग्रसित है । वह देह के आकर्षण से ऊपर उठकर नारी मनोविज्ञान की इन्द्रधनुषीय आभा छवियों से परिचित नहीं है । उनका जीवन दर्शन एकांगी है । उदाहरण के लिये उन्होंने पाण्डव पत्नी द्रोपदी और चक्रधारी श्रीकृष्ण के सहज आकर्षण और सखा भाव का उल्लेख किया । श्रीकृष्ण और कृष्णा का लगाव दो ज्योति पुन्ज चेतनाओं के अटूट सामीप्य से ही मापा जा सकता है ।
देह की लालसा उसमें कहीं नहीं है पर चिरन्तन सामीप्य का भाव उसमें निरन्तर उपस्थित है । कुमार गिरि चित्रलेखा से अपनें सम्बन्ध को केवल पशु चेतना से ही नियन्त्रित करना चाहता है जबकि बीजगुप्त में नारी को भोगनें का नहीं बल्कि बन्धन मुक्त करनें का साहस है । मनुष्य का व्यवहार झोटा -झोटी की तरह पशु प्रवृत्तियों से संचालित नहीं किया जा सकता । उसे निरन्तर मिथुन सुख से जोड़े रहना भी अपंग मनोवृत्ति का परिचायक है । पर सखा भाव में देह स्पर्श पशुवृत्ति से संचालित नहीं होता बल्कि उसमें वैचारिक ऊर्जा की प्राणवान शक्ति निहित होती है । भारतीय संस्कृति में होली का त्यौहार इन्हीं प्रतीतात्मक अर्थों में लिया जाता रहा है । देवर -भाभी के पवित्र सम्बन्ध को और भी पवित्र करने वाला ,हल्का अनासक्त देह स्पर्श अबीर या गुलाल मंडन या रंग की बूंदा बांदी मानव सम्बन्धों को एक और अधिक ऊँचा स्तर प्रदान करती है । अब हमारे सामनें बैठे यह विद्यार्थी जिनमें किशोर और किशोरियाँ हैं ,जो तरुणाई के द्वार की ओर बढ़ रहे हैं अगर अपनें मित्रता सम्बन्ध को सदैव पशुवृत्ति से और मिथुन सुख से जोड़कर देखते रहेंगें तो यह कभी भी सच्चे मित्र नहीं बन सकेंगें । जिस प्रकार भाई -बहन का प्यार गंगा की तरह पवित्र होकर भी एक दूसरे के सामीप्य में उठने -बैठने और खेलनें का अधिकार देता है वैसे ही मित्र भाव भी अपनें उदात्त रूप में जीवन के लिए संजीवनी बनकर काम आ सकता है ।
शोध छात्रा कु ० अर्चना के इन उद्गारों को गोष्ठी में बैठे सभी विद्वानों नें तो सराहा ही पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ा उन किशोर विद्यार्थियों पर जिन्हें नर -नारी के समान अधिकार वाले कल के संसार की रचना करना है । गोष्ठी के बाद उल्लास का माहौल बन गया और सबने आपस में गुलाल और अबीर लगाकर होली के पर्व का मर्यादित उत्सव मनाया । सुखविन्दर और रमिया सच्चे मित्र भाव से होली मनानें का अर्थ समझ गये और नर -नारी के सहज आकर्षण को कुंठा मुक्त शक्ति के रूप में लेकर आगे बढ़ने का सहयोग भरा मार्ग उन्हें दिखाई पड़ने लगा ।
कहनें वाले कहते हैं कि नत्थन हलवाई और छिद्दम्मी धीमर में पिछले कुछ दिनों से एक अजीब परिवर्तन सा आ गया है । अब वे अपनें बच्चों से भयमुक्त सहज मिलन और अपने भविष्य जीवन के निर्माण करनें की योजनाओं पर बात करनें के लिये निरन्तर प्रेरित करते रहते हैं । भारतवर्ष में आने वाले इस बदलाव से उनका परिचय होनें लगा है कि नर -नारी सम्बन्ध केवल मिथुन से ही जोड़कर नहीं देखना चाहिये । अंग्रेजी के Friend की तरह हिन्दी का मित्र शब्द भी उभयलिंगीं है । माँ ,बहन ,पत्नी और बेटी के सम्बन्ध तो अपनें में सहज स्वीकृत तो हैं हीं पर इनके अतिरिक्त नर और नारी के सखाभाव पर आधारित सम्बन्ध भी पवित्रता की द्रष्टि से इसी कोटि का है । इस विचार को घर -घर तक पहुँचाना है । आइये कृष्ण कन्हैया के इस होली सन्देश को घर -घर तक पहुंचा दें । यदि ऐसा हो जाये तो रमिया और सुखविन्दर की पहली शाम वाली हँसी -ठिठौली एक नया अर्थ पा जायेगी ।
आनन्दें शुकुल की पड़िया जो अब बड़ी हो गयी थी कई दिनों से उछाह पर थी । होली के एक दिन पहले की शाम लड़कें गली में रंग रंगोली खेलनें में लगे थे । किसी नें आकर पड़िया के माथे पर अबीर मल दी । पड़िया उछाह पर तो थी ही ,होली की अबीर नें उसे और बेकाबू कर दिया । वह रस्सी तुड़ाकर भागी सो भागी । अनंदे शुकुल बनियाइन ,कच्छा पहनें पीछे भागे पर पड़िया भला कहाँ पकड़ में आती । गाँव के एक सिरे पर चिरंजी अहीर का घर था और उसके लम्बे चौड़े अहाते में कई गाय भैंसे बंधी रहती थीं । उसके पास एक झोटा भी था जिसे गाँव के लड़कों नें एक मजाकिया नाम दिया था -'धाँसू ' ,अब पड़िया आगे और आनन्दे शुकुल पीछे । चिरन्जी के अहाते में घुसकर पड़िया अपनें आप धाँसू के पास रुक गयी । खूँटें में बँधा धाँसू रस्सी के नियन्त्रण में इधर -उधर घूमनें लगा और पड़िया के शरीर से निकलती हुयी कोईअजीब गन्ध उसे बेहाल करनें लगी । वह दांत निकाल कर ऊपर की ओर देखता और मुँह से झाग के फेने निकालता । आनन्दे शुकुल हांफते -हांफते पड़िया के पास पहुँचें और उसके गले में टूटी हुयी रस्सी पकड़ कर खींच कर घर की ओर ले जानें लगे । पड़िया जाना नहीं चाहती थी पर सींकिया सुकुल जी उसे खींचनें में लगे थे । इस हलचल में चिरंजी भी निकल कर बाहर आ गया । उसनें धाँसू की पीठ पर शाबाशी की थपकी लगायी । जैसे -तैसे सुकुल जी पड़िया को खींच कर ले चले । थपकी खाकर धाँसू को न जानें कहाँ से अतिरिक्त जोश आ गया । उसनें ताकत लगायी और खूँटा उखड गया । वह गले में रस्सी और रस्सी में बंधे हुये खूंटे सहित पड़िया के पीछे सूँघा -सूंघी करते हुए चल पड़ा । अभी धुँधलका ही हुआ था । बच्चों को होली की पहली शाम हुल्लड़ मचानें का एक निराला अवसर मिल गया । एकाध नें धाँसू के ऊपर रंग डाल कर अबीर फेंक दी । पंगू पासी का लड़का , 'होली है भाई होली है ,धाँसू पड़िया जोड़ी है "। कहकर नाचने ,थिरकने लगा । लड़कों की टोली उसके इस खेल में शामिल हो गयी । चिरंजी नें दौड़कर खूँटा पकड़कर धाँसू को लौटाने की कोशिश की पर धाँसू था जो पड़िया का साथ छोडना ही नहीं चाहता था । शाम को पूजा के बाद मन्दिर से लौटते पण्डित मुरारी लाल चतुर्वेदी नें यह द्रश्य देखा । वे गाँव के बुजुर्ग समझदार और पढ़े -लिखे व्यक्ति के रूप में जानें जाते थे । उन्होंने आनन्दे शुकुल और चिरंजी यादव को समझाया कि जबरदस्ती ठीक नहीं है । पशुओं को प्रकृति के नियमों का पालन करनें दो । हाँ हम मनुष्यों के लिये धर्म -कर्म के जो नियम हैं उन्हें मानना ही पड़ता है नहीं तो आदमी और जानवर में अन्तर ही क्या है । आनन्दे शुकुल और चिरंजी अहीर दोनों की समझ में यह बात आ गयी । मनुष्य होनें के नाते वे अलग -अलग जाति में हैं पर उनके पशुओं की तो कोई अलग जाति नहीं है । कुछ देर की स्वतन्त्रता पाकर पड़िया और धाँसू मानव सभ्यता द्वारा नियोजित होली मिलन का सहज ,सरल आनन्द पानें का अवसर पा गये ।
अगली शाम गाँव के इण्टर कालेज में एक साहित्यक गोष्ठी का आयोजन किया गया था । गोष्ठी में दसवीं ,ग्यारहवीं और बारहवीं के विद्यार्थी श्रोता के रूप में उपस्थित थे । छिद्दम्मी धीमर की बेटी रमिया कक्षा दस में पढ़ती थी और नत्थू हलवाई का बेटा सुखविन्दर ग्यारहवीं में था । दोनों श्रोता विद्यार्थियों के बीच पास -पास बैठे थे । इण्टर क्लास को हिन्दी पढ़ाने वाले डा ० सूरज वर्मा और अँग्रेजी पढ़ाने वाले मथुरा शुक्ल तथा साथ में समाज शास्त्र के प्रवक्ता सीताराम सचदेवा गोष्ठी के विद्वान वक्ताओं में थे । जवाहर लाल यूनिवर्सिटी में हिन्दी उपन्यास में नारी मनोविज्ञान में शोध करनें वाली कु ० अर्चना जो मथुरा शुक्ल की भतीजी थीं ,भी गोष्ठी में उपस्थित थीं । उपन्यासों की चर्चा करते -करते बात भगवती चरण वर्मा के बहु चर्चित उपन्यास चित्र लेखा पर आ पहुँची ।अँग्रेजी प्राध्यापक मथुरा शुक्ल जी फ्रांस के किसी उपन्यासकार से चित्र लेखा को प्रभावित बता रहे थे । उनका कहना था कि चरित्र चित्रण की द्रष्टि से चित्रलेखा को अधिक सफल नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसमें बीज गुप्त के चरित्र का उन्नयनीकरण किया गया है जबकि योगी कुमार गिरि को लेखक के पूर्व पूर्व निर्धारित मूल्यों का खामियाजा भुगतना पड़ा है । इस बात को लेकर शोध छात्रा कु ० अर्चना का अपना एक अलग नजरिया था । उन्होंने यह माननें से इन्कार किया कि बीज गुप्त को अनावश्यक रूप से महिमा मण्डित किया गया है । उनका कहना था कि नर और नारी का पारस्परिक आकर्षण मिथुन सुख से हटकर भी अन्य अभिरुचियों और मानसिक समानान्ताओं पर टिकाऊ रूप से आधारित हो सकता है । बीज गुप्त में नर -नारी के इस नैसर्गिक आकर्षण को साख्य भाव से लेने की क्षमता है पर योगी कुमार गिरि का चिन्तन पक्षाघात से ग्रसित है । वह देह के आकर्षण से ऊपर उठकर नारी मनोविज्ञान की इन्द्रधनुषीय आभा छवियों से परिचित नहीं है । उनका जीवन दर्शन एकांगी है । उदाहरण के लिये उन्होंने पाण्डव पत्नी द्रोपदी और चक्रधारी श्रीकृष्ण के सहज आकर्षण और सखा भाव का उल्लेख किया । श्रीकृष्ण और कृष्णा का लगाव दो ज्योति पुन्ज चेतनाओं के अटूट सामीप्य से ही मापा जा सकता है ।
देह की लालसा उसमें कहीं नहीं है पर चिरन्तन सामीप्य का भाव उसमें निरन्तर उपस्थित है । कुमार गिरि चित्रलेखा से अपनें सम्बन्ध को केवल पशु चेतना से ही नियन्त्रित करना चाहता है जबकि बीजगुप्त में नारी को भोगनें का नहीं बल्कि बन्धन मुक्त करनें का साहस है । मनुष्य का व्यवहार झोटा -झोटी की तरह पशु प्रवृत्तियों से संचालित नहीं किया जा सकता । उसे निरन्तर मिथुन सुख से जोड़े रहना भी अपंग मनोवृत्ति का परिचायक है । पर सखा भाव में देह स्पर्श पशुवृत्ति से संचालित नहीं होता बल्कि उसमें वैचारिक ऊर्जा की प्राणवान शक्ति निहित होती है । भारतीय संस्कृति में होली का त्यौहार इन्हीं प्रतीतात्मक अर्थों में लिया जाता रहा है । देवर -भाभी के पवित्र सम्बन्ध को और भी पवित्र करने वाला ,हल्का अनासक्त देह स्पर्श अबीर या गुलाल मंडन या रंग की बूंदा बांदी मानव सम्बन्धों को एक और अधिक ऊँचा स्तर प्रदान करती है । अब हमारे सामनें बैठे यह विद्यार्थी जिनमें किशोर और किशोरियाँ हैं ,जो तरुणाई के द्वार की ओर बढ़ रहे हैं अगर अपनें मित्रता सम्बन्ध को सदैव पशुवृत्ति से और मिथुन सुख से जोड़कर देखते रहेंगें तो यह कभी भी सच्चे मित्र नहीं बन सकेंगें । जिस प्रकार भाई -बहन का प्यार गंगा की तरह पवित्र होकर भी एक दूसरे के सामीप्य में उठने -बैठने और खेलनें का अधिकार देता है वैसे ही मित्र भाव भी अपनें उदात्त रूप में जीवन के लिए संजीवनी बनकर काम आ सकता है ।
शोध छात्रा कु ० अर्चना के इन उद्गारों को गोष्ठी में बैठे सभी विद्वानों नें तो सराहा ही पर सबसे अधिक प्रभाव पड़ा उन किशोर विद्यार्थियों पर जिन्हें नर -नारी के समान अधिकार वाले कल के संसार की रचना करना है । गोष्ठी के बाद उल्लास का माहौल बन गया और सबने आपस में गुलाल और अबीर लगाकर होली के पर्व का मर्यादित उत्सव मनाया । सुखविन्दर और रमिया सच्चे मित्र भाव से होली मनानें का अर्थ समझ गये और नर -नारी के सहज आकर्षण को कुंठा मुक्त शक्ति के रूप में लेकर आगे बढ़ने का सहयोग भरा मार्ग उन्हें दिखाई पड़ने लगा ।
कहनें वाले कहते हैं कि नत्थन हलवाई और छिद्दम्मी धीमर में पिछले कुछ दिनों से एक अजीब परिवर्तन सा आ गया है । अब वे अपनें बच्चों से भयमुक्त सहज मिलन और अपने भविष्य जीवन के निर्माण करनें की योजनाओं पर बात करनें के लिये निरन्तर प्रेरित करते रहते हैं । भारतवर्ष में आने वाले इस बदलाव से उनका परिचय होनें लगा है कि नर -नारी सम्बन्ध केवल मिथुन से ही जोड़कर नहीं देखना चाहिये । अंग्रेजी के Friend की तरह हिन्दी का मित्र शब्द भी उभयलिंगीं है । माँ ,बहन ,पत्नी और बेटी के सम्बन्ध तो अपनें में सहज स्वीकृत तो हैं हीं पर इनके अतिरिक्त नर और नारी के सखाभाव पर आधारित सम्बन्ध भी पवित्रता की द्रष्टि से इसी कोटि का है । इस विचार को घर -घर तक पहुँचाना है । आइये कृष्ण कन्हैया के इस होली सन्देश को घर -घर तक पहुंचा दें । यदि ऐसा हो जाये तो रमिया और सुखविन्दर की पहली शाम वाली हँसी -ठिठौली एक नया अर्थ पा जायेगी ।
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