............................... तीन बार में लगभग तीस लड़कियों नें भाग लिया और हर बार तीन प्रथम आने वाली लड़कियों की नौ की एक टीम बनी । अब इनका मुकाबला शुरू हुआ और इसमें वही लड़की प्रथम स्थान पर रही । शाम के समय ईनाम बटनें थे और वह ईनाम लेकर धोती पहन कर आयी । माँ नें कहा कि उन्हें वह बहुत अच्छी लगी और उन्होंने मन ही मन निश्चय कर लिया है कि वे उसे बहू बनाकर घर लायेंगीं । उसके पिता सुखरानी के घर आये थे और शीघ्र ही वे वरीक्षा के लिये आयेंगें । मैनें उनसे दहेज़ की कोई बात नहीं की है । जिसनें लड़की दी ,उससे और क्या माँगना । बात आयी गयी हुयी । अभी जाड़े की समाप्ति थी और इण्टर की वार्षिक परीक्षा में कई माह बाकी थे । कमला के महीनें पूरे हो आये थे और इसी बीच प्रथम प्रसव की तैयारियां हो रही थीं । जीजा जी राशनिंग में कार्यरत थे ,पर सरकार इस विभाग को समाप्त करने की ओर कदम बढ़ा रही थी । कहा जा रहा था कि सभी कर्मचारियों को अन्यत्र कहीं खपा लिया जायेग़ा पर शायद उन्हें बीच के अन्तराल में कुछ दिन काम से अलग होना पड़े । इधर गाँव में घर की हालत और खराब हो रही थी । मुझे आश्चर्य था कि रूरा के वे प्रतिष्ठित सज्जन इस अधगिरे घर के पितृ हींन नवयुवक को अपनी कन्या को सौपनें का मन क्यों बना रहे हैं । शायद वे भी बीस बिस्वा की परम्परा के मानसिक गुलाम हों और इसलिये मेरे घर की अकिंचनता भी काल्पनिक बीस बिस्वा की पारम्परिक समृद्धता से उन्हें सुशोभन लगती हो । मैनें बहुत चाहा कि मैं इस व्याह को नकार दूँ , पर कर्ज से दबी विधवा माँ ,जो नानी बननें जा रही थी ,और जिनका छोटा बेटा उन्हें निरन्तर व्यथा के शूल दे रहा था , को अधिक दुखी करना मेरे मन को न भाया । मैं नहीं जानता कि कब ,कहाँ ,और कैसे वरीक्षा तथा फलदान की रश्म पूरी हुयी । पर हाँ इतना अवश्य जानता हूँ कि मेरी शादी से पहले ही गिरवी रखे खेत छुड़ा लिये गये । यह कैसे सम्भव हुआ यह बात माता जी नें मुझे खुलकर नहीं बतायी । मैं अपनी परीक्षा की तैयारियों में पूरी तरह से जुटा था कि मुझे एक दिन मेरे कमरे पर करीब दस बजे डी ० ए ० वी ० में पढ़ रहे एक लड़के नें आकर बताया कि मेरे छोटे भाई डी ० ए ० वी ० कालेज में पकड़ लिये गये हैं और वे वहाँ के कार्यालय अधीक्षक विद्याधर के कमरे में बिठाल लिये गये हैं । उन्हें इससे पहले कि पुलिस को दे दिया जाये ,उनके अभिभावकों तक मुझे सूचना के लिये भेजा गया है । मेरे बड़े भाई होनें की बात और मेरा पता शायद कार्यालय अधीक्षक को मेरे छोटे भाई नें ही बताया होगा । माँ तो गाँव में थीं और उन तक पहुँचना सम्भव न था । हड़बड़ा कर मैं उठा और अपनें मित्र बालकृष्ण दीक्षित के साथ साइकिल पर बैठकर डी ० ए ० वी ० कालेज के प्रांगण में पहुँचा । मारे शर्म के मैं पानी -पानी हो रहा था । चपरासी से अन्दर खबर भिजवायी और विद्याधर नें मुझे बुला भेजा । उन्होंने मुझसे पूछा कि मैं किस क्लास में और कहाँ पढता हूँ और मेरा खर्चा कौन वहन करता है । मैंने उन्हें विनम्रता पूर्वक सब कुछ बताया । वे मेरी बात से कुछ प्रभावित से लगे । उन्होंने कहा कि मैं एक अच्छे घर का लड़का हूँ और मुझे अपनें छोटे भाई को गलत रास्ते पर जाने से रोकना चाहिये । उन्होंने बताया कि वह एक साइकिल उठाकर भागते समय पकड़ा गया और उनके पास लाया गया है । मैनें धिक्कार भरी नज़रों से राजा को देखा और कहा कि वे मृत पिता की आत्मा की शान्ति के लिये प्रतिज्ञा करें कि वे कभी असामाजिक और गैर कानूनी काम नहीं करेंगें । विद्याधर जी नें उन्हें छोड़ दिया और वे कालेज से बाहर आकर बोले कि वे अपनें काम के लिये शर्मिन्दा हैं और अब वे छोटे बबुआ के यहाँ जा रहे हैं और शाम तक कमरे में आ जायेगें । प्रभु की कृपा से उस दिन परिवार की इज्जत सुरक्षित रह गयी । पर , प्रभु कृपा पर हमारा अधिकार हमारे कर्मों से ही होता है और अभी शायद हम लोगों को और बहुत कुछ देखना बदा था ।
परीक्षा की तैयारियां समाप्त हुयीं और मैं परीक्षा में बैठा । मानसिक वेग ,आने वाले पाणिग्रहण व्यवस्था में छिपे सामाजिक आघात और टूटे -फूटे घर तथा जीजा की नौकरी की अस्थिरता -सभी कुछ झेलकर परीक्षा में सर्वोत्तम प्रदर्शन करना मेरे लिये सम्भव न हो सका । पर मैं जानता था कि मैं पास तो हो ही जाऊँगाँ और क्या पता प्रथम श्रेणी भी आ जाये । इधर कुछ एक बातें मेरे सन्दर्भ में अच्छी भी घटित हुयीं थीं । परीक्षा से कुछ दिन पहले इण्टर कालेज की कक्षाओं की एक अन्तर प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था । यह भाषण प्रतियोगिता थी । इसमें नागासाकी और हिरोशिमा पर गिराये गये एटम बम की विभीषिका और उससे उत्पन्न मानव जाति के सम्भावित सम्पूर्ण विनाश पर चर्चा करनें को कहा गया था । इसमें लगभग दो दर्जन से अधिक छात्रों नें भाग लिया था और वे लगभग सभी के सब अध्यापकों द्वारा लिखाये गये भाषणों को रट कर दोहरा रहे थे । कई तो बीच में भूले भी और डेढ़ दो हजार छात्रों के समुदाय के हंसी का पात्र भी बनें ।
मैं हिम्मत करके पहली बार बिना लिखे मात्र मानसिक तैय्यारी के आधार पर बोलनें के लिये खड़ा हो गया था पुस्तकालयों में घण्टों बैठे रहनें की मेरी आदत और विज्ञान तथा टेक्नालाजी में मेरी प्रगाढ़ रूचि के कारण काफी कुछ आंकड़े मेरी पकड़ में थे । हिन्दी मैं अच्छी बोल लेता था और बीच में अँग्रेजी शब्दों का प्रयोग भी करने लगा था । जब मंच पर मेरा नाम पुकारा गया तो मुझे घबराहट का एक कम्पन सा हुआ ,पर भीतर की किसी शक्ति नें मुझे तुरन्त सँभाल लिया । मैं क्या बोला ,और कैसे बोला कैसे मंच पर पहुँचा और कैसे माइक तक पहुँचा ,यह सब जैसे स्वप्नावस्था में हुआ हो । जब मैंने अन्त किया तो कई मिनट तक तालियों की गड़गड़ाहट होती रही । उस भाषण के बाद मैं विद्यार्थियों में एक प्रकार का छोटा -मोटा विद्वान माना जाने लगा था । मेरे प्रथम पुरस्कार की बात राष्ट्रीय विद्यालय भी पहुँच गयी थी और अब वहां इण्टर में पढने वाली मेरे से बड़ी उम्र की अध्यापिकायें यह चाहने लगी थीं कि मैं उन्हें उनके घर पर अँग्रेजी पढ़ाने का काम ले लूँ । वे सभी सरकारी स्कूलों में स्थायी अध्यापिकायें थीं । इण्टर पास करके फिर स्नातक बनकर और फिर परास्नातक बनकर वे एक के बाद एक ऊँचें वेतनमानों में पहुँच सकती थीं । प्रशिक्षित तो वे थी हीं और साथ ही साथ नौकरी में होनें के कारण उनकी महत्त्वाकांक्षायें उभर आयी थीं । वे सब एकाध बच्चों की मातायें थीं और उम्र में उनसे छोटा होनें के कारण मैं उनके घर में सहज रूप में स्वीकारा जा सकता था । वे मेरी अध्यापन क्षमता को राष्ट्रीय विद्यालय में देख ही रही थीं । कई प्रस्तावों में से चुनकर मैनें तीन घरों में पढ़ाने की व्यवस्था को स्वीकृति दी । कारण यह था कि ये सब अगले वर्ष इण्टर में बैठकर फिर दो वर्ष बाद बी ० ए ० में बैठने की इच्छुक थीं और यदि हो सका तो एम ० ए ० करने की ओर भी उनमें रुझान दिख रहा था । मैनें सोचा कि यह मेरे लिये लगभग चार वर्ष का स्थायी आमदनी का साधन मिल रहा है और मैं ईमानदारी से अपना कर्तब्य निबाहूंगाँ । जो -जो मैं पढता सीखता जाऊँगा ,वो -वो निष्ठा के साथ पढ़ाने का प्रयास करूँगा । राष्ट्रीय विद्यालय के प्राचार्य प्रधान जी नें मुझे यह आश्वासन दे ही दिया था कि जब तक मैं कानपुर छोड़कर बाहर न जाऊँ तब तक उनके विद्यालय का सम्माननीय अध्यापक रहूँगा । खान -पान और पढ़ाई का हम दोनों भाइयों का खर्चा इस आमदनी में आसानी से निकल सकता था और अलग कमरे की व्यवस्था भी चल सकती थी -इस निश्चिन्तता के साथ मैं इण्टर परीक्षा परिणाम के इन्तजार में लग गया । बड़ी बहन कमला की सबसे पहली सन्तान एक बेटे के रूप में उनकी गोद में आयी । माता जी नानी बन गयीं और मैं मामा । कमला के ससुराल पक्ष में उनके ससुर दूसरा विवाह कर अपनी ससुराल में रह रहे थे । वे जीजा जी की शादी में सिर्फ दहेज़ लेने के लिये शामिल हुये थे और सब कुछ बटोर कर ससुराल चले गये थे । ससुर के घर के नाम पर कमला के पास कुछ था ही नहीं और उनकी देख रेख और सम्पूर्ण जिम्मेदारी का भार माँ पर ही था । मुझे ख्याल आता है कि कमला के पुत्र गिरीश के जन्म के कुछ माह बाद वे लौटकर देवनारायण अग्निहोत्री के मकान में रहनें नहीं गयीं । जीजा जी की सहमति से आनन्द बाग़ में अलग रहने के लिये एक किराये का मकान तलाशा गया । यह दो मंजिले पर था और इसमें दो कमरे और एक रसोईं थी तथा पुराने प्रचलन वाली बाल्टी टट्टी थी । मैं राम बाग़ में जिस कमरे में रहता था ,उससे लगभग दस मिनट की दूरी पर यह मकान था और अवकाश के समय वहाँ चला जाता था । मेरे ब्याह को बीते हुये इतनें वर्ष हो गये हैं कि मुझे समय सारिणी का ठीक ध्यान नहीं है । कई बार बच्चों की माँ नें मुझे बताया है कि जब मैनें 11 रहवीं की परीक्षा दी थी तभी मैं व्याह दिया गया था , पर मुझे लगता है कि मैं 12 हवीं की परीक्षा के बाद व्याहा गया । (क्रमशः )
परीक्षा की तैयारियां समाप्त हुयीं और मैं परीक्षा में बैठा । मानसिक वेग ,आने वाले पाणिग्रहण व्यवस्था में छिपे सामाजिक आघात और टूटे -फूटे घर तथा जीजा की नौकरी की अस्थिरता -सभी कुछ झेलकर परीक्षा में सर्वोत्तम प्रदर्शन करना मेरे लिये सम्भव न हो सका । पर मैं जानता था कि मैं पास तो हो ही जाऊँगाँ और क्या पता प्रथम श्रेणी भी आ जाये । इधर कुछ एक बातें मेरे सन्दर्भ में अच्छी भी घटित हुयीं थीं । परीक्षा से कुछ दिन पहले इण्टर कालेज की कक्षाओं की एक अन्तर प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था । यह भाषण प्रतियोगिता थी । इसमें नागासाकी और हिरोशिमा पर गिराये गये एटम बम की विभीषिका और उससे उत्पन्न मानव जाति के सम्भावित सम्पूर्ण विनाश पर चर्चा करनें को कहा गया था । इसमें लगभग दो दर्जन से अधिक छात्रों नें भाग लिया था और वे लगभग सभी के सब अध्यापकों द्वारा लिखाये गये भाषणों को रट कर दोहरा रहे थे । कई तो बीच में भूले भी और डेढ़ दो हजार छात्रों के समुदाय के हंसी का पात्र भी बनें ।
मैं हिम्मत करके पहली बार बिना लिखे मात्र मानसिक तैय्यारी के आधार पर बोलनें के लिये खड़ा हो गया था पुस्तकालयों में घण्टों बैठे रहनें की मेरी आदत और विज्ञान तथा टेक्नालाजी में मेरी प्रगाढ़ रूचि के कारण काफी कुछ आंकड़े मेरी पकड़ में थे । हिन्दी मैं अच्छी बोल लेता था और बीच में अँग्रेजी शब्दों का प्रयोग भी करने लगा था । जब मंच पर मेरा नाम पुकारा गया तो मुझे घबराहट का एक कम्पन सा हुआ ,पर भीतर की किसी शक्ति नें मुझे तुरन्त सँभाल लिया । मैं क्या बोला ,और कैसे बोला कैसे मंच पर पहुँचा और कैसे माइक तक पहुँचा ,यह सब जैसे स्वप्नावस्था में हुआ हो । जब मैंने अन्त किया तो कई मिनट तक तालियों की गड़गड़ाहट होती रही । उस भाषण के बाद मैं विद्यार्थियों में एक प्रकार का छोटा -मोटा विद्वान माना जाने लगा था । मेरे प्रथम पुरस्कार की बात राष्ट्रीय विद्यालय भी पहुँच गयी थी और अब वहां इण्टर में पढने वाली मेरे से बड़ी उम्र की अध्यापिकायें यह चाहने लगी थीं कि मैं उन्हें उनके घर पर अँग्रेजी पढ़ाने का काम ले लूँ । वे सभी सरकारी स्कूलों में स्थायी अध्यापिकायें थीं । इण्टर पास करके फिर स्नातक बनकर और फिर परास्नातक बनकर वे एक के बाद एक ऊँचें वेतनमानों में पहुँच सकती थीं । प्रशिक्षित तो वे थी हीं और साथ ही साथ नौकरी में होनें के कारण उनकी महत्त्वाकांक्षायें उभर आयी थीं । वे सब एकाध बच्चों की मातायें थीं और उम्र में उनसे छोटा होनें के कारण मैं उनके घर में सहज रूप में स्वीकारा जा सकता था । वे मेरी अध्यापन क्षमता को राष्ट्रीय विद्यालय में देख ही रही थीं । कई प्रस्तावों में से चुनकर मैनें तीन घरों में पढ़ाने की व्यवस्था को स्वीकृति दी । कारण यह था कि ये सब अगले वर्ष इण्टर में बैठकर फिर दो वर्ष बाद बी ० ए ० में बैठने की इच्छुक थीं और यदि हो सका तो एम ० ए ० करने की ओर भी उनमें रुझान दिख रहा था । मैनें सोचा कि यह मेरे लिये लगभग चार वर्ष का स्थायी आमदनी का साधन मिल रहा है और मैं ईमानदारी से अपना कर्तब्य निबाहूंगाँ । जो -जो मैं पढता सीखता जाऊँगा ,वो -वो निष्ठा के साथ पढ़ाने का प्रयास करूँगा । राष्ट्रीय विद्यालय के प्राचार्य प्रधान जी नें मुझे यह आश्वासन दे ही दिया था कि जब तक मैं कानपुर छोड़कर बाहर न जाऊँ तब तक उनके विद्यालय का सम्माननीय अध्यापक रहूँगा । खान -पान और पढ़ाई का हम दोनों भाइयों का खर्चा इस आमदनी में आसानी से निकल सकता था और अलग कमरे की व्यवस्था भी चल सकती थी -इस निश्चिन्तता के साथ मैं इण्टर परीक्षा परिणाम के इन्तजार में लग गया । बड़ी बहन कमला की सबसे पहली सन्तान एक बेटे के रूप में उनकी गोद में आयी । माता जी नानी बन गयीं और मैं मामा । कमला के ससुराल पक्ष में उनके ससुर दूसरा विवाह कर अपनी ससुराल में रह रहे थे । वे जीजा जी की शादी में सिर्फ दहेज़ लेने के लिये शामिल हुये थे और सब कुछ बटोर कर ससुराल चले गये थे । ससुर के घर के नाम पर कमला के पास कुछ था ही नहीं और उनकी देख रेख और सम्पूर्ण जिम्मेदारी का भार माँ पर ही था । मुझे ख्याल आता है कि कमला के पुत्र गिरीश के जन्म के कुछ माह बाद वे लौटकर देवनारायण अग्निहोत्री के मकान में रहनें नहीं गयीं । जीजा जी की सहमति से आनन्द बाग़ में अलग रहने के लिये एक किराये का मकान तलाशा गया । यह दो मंजिले पर था और इसमें दो कमरे और एक रसोईं थी तथा पुराने प्रचलन वाली बाल्टी टट्टी थी । मैं राम बाग़ में जिस कमरे में रहता था ,उससे लगभग दस मिनट की दूरी पर यह मकान था और अवकाश के समय वहाँ चला जाता था । मेरे ब्याह को बीते हुये इतनें वर्ष हो गये हैं कि मुझे समय सारिणी का ठीक ध्यान नहीं है । कई बार बच्चों की माँ नें मुझे बताया है कि जब मैनें 11 रहवीं की परीक्षा दी थी तभी मैं व्याह दिया गया था , पर मुझे लगता है कि मैं 12 हवीं की परीक्षा के बाद व्याहा गया । (क्रमशः )
No comments:
Post a Comment