.............................विवाह की कुछ बातें मेरे मन पर स्पष्ट चित्र बनकर उभरती हैं तो मुझे मानना पड़ता है कि तब तक मैं शारीरिक व मानसिक रूप से काफी सक्षम हो चला था । हाँ अभी तक शारीरिक सम्भोग की प्रक्रिया से आर -पार नहीं होना पड़ा था और मेरी इस अनभिज्ञता नें कैसे मुझे हँसी का पात्र बनाया ,इसकी झलक आगे की घटना में मिलेगी । जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ कि मेरी दूर की चाची बसन्त दुल्हिन का सम्पर्क पड़ोस के एक युवा सम्बन्धी प्रहलाद शुक्ल से बढ़ चला था । शायद मिलन पूर्व ही पति की मृत्यु हो जाने से चाची पुरुष मिलन के रोमाँचक अनुभव से अपरचित थीं । वे सहज स्वभाव की स्त्री थीं । शादी के समय जीवन जीनें की अपार लालसायें उनमें उठी होंगीं । गौनें में उनके घर आने के पूर्व ही वृक्ष से गिरकर पति की असमय मृत्यु ,हिन्दू कोड बिल के पास होने के पूर्व का हिन्दू समाज और बिल पास हो जाने के बाद भी निम्न मध्य वर्ग के जीवन में घर कर जाने वाली सामाजिक सड़ांध उनका दम घोंट रही थी । उनका और प्रहलाद का मिलना -जुलना लोगों की आँखों में खटकने लगा । मेरी माँ को वे बड़ा मानती थीं और सम्भवतः इसी कारण माँ नें उन्हें कुछ समझानें की कोशिश की हो और किसी आसन्न आपत्ति की ओर संकेत किया हो । मैं चाची के अत्यन्त निकट था और वे मुझे बहुत प्यार करती थीं । हाई स्कूल के बाद मैं समझने लगा था कि सम्बन्ध के अतिरिक्त कहीं कुछ और भी है जो प्रह्लाद के आते ही चाची को खिले फूल सा निखार दे देता है । अपने सूनें घर में चाची अपना एकान्त जीवन हम बच्चों के साथ मिल बैठ कर या माँ के साथ बैठकर काटा करती थीं । हम कभी -कभी उनके घर गर्मियों में सो भी जाते थे और प्रहलाद भी घर की भांति वहां आते -जाते रहते थे । चाची का एक -डेढ़ बीघा खेत वही कसते -कमाते थे और बरसात में घर की मरम्मत भी वही करवा देते थे । प्रह्लाद पिता थे और पति थे ,पर पुरुष के अतिरिक्त रोमांस की इच्छा शायद उन्हें सामाजिक मर्यादा से हटकर यौवन विलास की ओर ठेल रही थी । । कब और कैसे सयंम का बन्धन टूटा था ,यह मैं नहीं जानता ,पर मुझे याद है कि एक दिन कानपुर में खबर मिली कि माता जी चाची के साथ कानपुर आयी हैं और चाची की बड़ी बहन के घर दर्शनपुरवा में रुकी हैं । मुझे आश्चर्य था कि चाची को कानपुर में कौन सा काम पड़ गया जिसमें उन्हें मेरी माँ की जरूरत पडी । मैं दर्शनपुरवा के इस घर को जानता नहीं था इसलिये सम्पर्क न हो सका । लगभग एक माह बाद जब मैं अपनें व्याह के कुछ पहले घर गया ,तो मुझे समवयस्कों से कई बातें सुननें को मिलीं । सच -झूठ तो ईश्वर ही जानें । माता जी नें मुझे इस सम्बन्ध में कुछ नहीं बताया । दरअसल गाँव के मेरे पास -पड़ोस के घरों में न जानें कितनी कहानियाँ प्रचलित थीं । कहीं कोई दीक्षित अपने मृत छोटे भाई की पत्नी से सम्बंधित बताये जाते थे ,तो कहीं कोई दूर विवाहित लड़की गाँव के किसी तरुण के साथ जुडी हुयी बतायी जाती थी । पर उन सबका कोई पुरुष संरक्षक था । कुछ को सम्मिलित परिवार का संरक्षण मिला था ,इसलिये बातें दबी रहती थीं । चाची के सम्बन्ध में ऐसी कोई बात न थी ,इसलिये बढ़ -चढ़ कर कल्पना की पैंगें भरी जा रही थीं । मुझे बताया गया कि वे शायद माँ बननें के रास्ते पर थीं ,इसलिये माता जी उन्हें कानपुर ले गयी थीं ताकि उनके वैधव्य की साख टूटने न पाये । माँ के पढी -लिखी होनें के कारण उन्होंने माँ के पैर पकड़कर सहारा माँगा था और आजीवन पति को देवता मानकर उनका स्मरण करने की बात कही थी । मैं जब गाँव आया तो पता चला कि वे कुछ दिन बीमार रही थीं और ठीक होते ही उनका भाई करीब दस कोस स्थित अपनें गाँव में ले गया था । वे थोड़ी -बहुत पढी -लिखी थीं और बाद में कुछ और पढ़ -लिख कर भाई की मदद से ट्रेनिंग करके वे अध्यापिका बन गयीं थीं । मैनें माँ से इस घटना की सच्चाई के विषय में कभी कोई चर्चा नहीं की । कई वर्षों बाद कानपुर में जब मेरी और चाची की भेंट हुयी तब शायद स्नेह के कारण उन्होंने मुझे अत्यन्त निजी बातें बतायी थीं । यह मैं प्रसंग आने पर उद्घाटित करूँगा । उस समय वे एक सफल अध्यापिका के रूप में जानी जानें लगीं थीं ।
तो मैं कह रहा था कि ब्याह की कुछ स्मृतियां मेरे मस्तिष्क पटल पर आ जाती हैं । उनमें सबसे पहली स्मृति है -माता जी का उत्फुल मुखड़ा जिसमें बहू को व्याह कर घर आने की गर्व भरी दीप्ति छिपी हुयी थी । फिर शादी ब्याह की व्यवस्था की हड़बड़ी । जो कुछ भी हुआ हो ,वह सब कुछ भुला दिया गया था और ललुवा शुक्ल ,प्रह्लाद शुक्ल और प्रकाश चन्द्र पाण्डेय नें मिलकर रूरा तक बारात ले जाने के लिये बैलगाड़ियों की व्यवस्था की । मुझे पता नहीं कि बाराती कौन -कौन थे -कुछ कुर्सी से ,कुछ मवइया से ,कुछ संकरवा से ,कुछ बिकरू से ,। माँ की सहशिक्षिकाओं के भी कुछ पति ,पुत्र थे । उन दिनों कान्यकुब्ज की शादियों में स्त्रियाँ विवाह में नहीं जाती थीं । वे घर आने पर ही बहू का स्वागत करती थीं । वर को बैठने के लिये पालकी की व्यवस्था की गयी जिस पर लौटते समय दुल्हन के साथ बैठकर आना होता है । शिवली से रूरा का लगभग बारह मील का रास्ता है । पालकी के लिये चार कहार और उनके साथ चार और सहायक किये गये । गाड़ियों में एक बहलोल भी थी जिसके ऊपर रथ की तरह का एक उठान होता है । अपनें पढ़े -लिखे लड़के के ब्याह के लिये माँ नें पूरी ताकत लगा दी होगी । और कोई होता तो शायद वे नाराज हो जातीं पर मेरी सारी जिद उन्होंने स्वीकार कर ली । मैं न तो किसी देवी -देवता के द्वार पर गया ,न किसी कुंआ ,तालाब की रस्म में शामिल हुआ । मैनें माँ से स्पष्ट रूप से कहा मैं पालकी में बैठकर न तो जाऊँगा और न ही आऊँगा । उन्होंने कहा कि खाली पालकी जाना अशगुन होता है और सभी बूढ़ी -बूढ़ियों के आग्रह पर मैं केवल द्वार से पचास गज दूर पक्का कुंआं के पास बनें मन्दिर तक पालकी में बैठकर गया । वहीं पालकी उतार दी गयी और मैं एक गाड़ी में कुर्सी के लालता दद्दा के साथ बैठकर पत्नी गृह की ओर अग्रसारित हुआ । पालकी में कौन बैठा ,मैं ठीक नहीं कह सकता ,पर शायद राजा उसमें बैठे हों या पड़ोस के उनके शरारती दोस्त । गाड़ियों का यह काफिला दोपहर में एक आम के बाग़ में रूककर लगभग शाम के समय रूरा पहुँचा और गाँव के बाहर रूककर डांडें पर किसी हरकारे की प्रतीक्षा करने लगा । बड़े -बूढ़ों में किसने ,शायद जमुना प्रसाद शुक्ल या कक्का के छोटे भाई नें या अन्य किसी रिश्तेदार नें ,मिलन की रीति निभाई व अन्य कार्य किये -मुझे याद नहीं । मैं इतना जानता हूँ कि दूर कहीं एक लम्बी दालान ,जिसमें एक दो कमरे थे ,में बारात को ठहराया गया । गाड़ियाँ खोल दी गयीं और बैलों के लिये चारे पानी की व्यवस्था हुयी । काफी रात हो जाने के बाद मुझे भूख सी महसूस हुयी । मुझे बताया गया कि अभी पौनछक सफ़ेद मैदे की बड़ी पूड़ी और मिर्ची का जलपान आयेगा और एक -एक पूड़ी सबको मिलेगी । नाश्ते की व्यवस्था अगली सुबह से पूरे जोर -शोर के साथ होगी । मिर्ची के नाम पर काली मिर्च की तिलमिलाहट से भरा मीठा पेय और पौनछक की एक पूड़ी खाकर मुझे शादी -व्याह की परंपरा पर आक्रोश उभर आया ,पर मैं करता भी क्या । मैं तो दूल्हा था और सभी बड़े -बूढ़े कह रहे थे कि बीस बिस्वा की शादी की यही आदर्श परम्परा है । हम सुबह से भाँवरों के बाद उनके अतिथि होंगें । (क्रमशः )
तो मैं कह रहा था कि ब्याह की कुछ स्मृतियां मेरे मस्तिष्क पटल पर आ जाती हैं । उनमें सबसे पहली स्मृति है -माता जी का उत्फुल मुखड़ा जिसमें बहू को व्याह कर घर आने की गर्व भरी दीप्ति छिपी हुयी थी । फिर शादी ब्याह की व्यवस्था की हड़बड़ी । जो कुछ भी हुआ हो ,वह सब कुछ भुला दिया गया था और ललुवा शुक्ल ,प्रह्लाद शुक्ल और प्रकाश चन्द्र पाण्डेय नें मिलकर रूरा तक बारात ले जाने के लिये बैलगाड़ियों की व्यवस्था की । मुझे पता नहीं कि बाराती कौन -कौन थे -कुछ कुर्सी से ,कुछ मवइया से ,कुछ संकरवा से ,कुछ बिकरू से ,। माँ की सहशिक्षिकाओं के भी कुछ पति ,पुत्र थे । उन दिनों कान्यकुब्ज की शादियों में स्त्रियाँ विवाह में नहीं जाती थीं । वे घर आने पर ही बहू का स्वागत करती थीं । वर को बैठने के लिये पालकी की व्यवस्था की गयी जिस पर लौटते समय दुल्हन के साथ बैठकर आना होता है । शिवली से रूरा का लगभग बारह मील का रास्ता है । पालकी के लिये चार कहार और उनके साथ चार और सहायक किये गये । गाड़ियों में एक बहलोल भी थी जिसके ऊपर रथ की तरह का एक उठान होता है । अपनें पढ़े -लिखे लड़के के ब्याह के लिये माँ नें पूरी ताकत लगा दी होगी । और कोई होता तो शायद वे नाराज हो जातीं पर मेरी सारी जिद उन्होंने स्वीकार कर ली । मैं न तो किसी देवी -देवता के द्वार पर गया ,न किसी कुंआ ,तालाब की रस्म में शामिल हुआ । मैनें माँ से स्पष्ट रूप से कहा मैं पालकी में बैठकर न तो जाऊँगा और न ही आऊँगा । उन्होंने कहा कि खाली पालकी जाना अशगुन होता है और सभी बूढ़ी -बूढ़ियों के आग्रह पर मैं केवल द्वार से पचास गज दूर पक्का कुंआं के पास बनें मन्दिर तक पालकी में बैठकर गया । वहीं पालकी उतार दी गयी और मैं एक गाड़ी में कुर्सी के लालता दद्दा के साथ बैठकर पत्नी गृह की ओर अग्रसारित हुआ । पालकी में कौन बैठा ,मैं ठीक नहीं कह सकता ,पर शायद राजा उसमें बैठे हों या पड़ोस के उनके शरारती दोस्त । गाड़ियों का यह काफिला दोपहर में एक आम के बाग़ में रूककर लगभग शाम के समय रूरा पहुँचा और गाँव के बाहर रूककर डांडें पर किसी हरकारे की प्रतीक्षा करने लगा । बड़े -बूढ़ों में किसने ,शायद जमुना प्रसाद शुक्ल या कक्का के छोटे भाई नें या अन्य किसी रिश्तेदार नें ,मिलन की रीति निभाई व अन्य कार्य किये -मुझे याद नहीं । मैं इतना जानता हूँ कि दूर कहीं एक लम्बी दालान ,जिसमें एक दो कमरे थे ,में बारात को ठहराया गया । गाड़ियाँ खोल दी गयीं और बैलों के लिये चारे पानी की व्यवस्था हुयी । काफी रात हो जाने के बाद मुझे भूख सी महसूस हुयी । मुझे बताया गया कि अभी पौनछक सफ़ेद मैदे की बड़ी पूड़ी और मिर्ची का जलपान आयेगा और एक -एक पूड़ी सबको मिलेगी । नाश्ते की व्यवस्था अगली सुबह से पूरे जोर -शोर के साथ होगी । मिर्ची के नाम पर काली मिर्च की तिलमिलाहट से भरा मीठा पेय और पौनछक की एक पूड़ी खाकर मुझे शादी -व्याह की परंपरा पर आक्रोश उभर आया ,पर मैं करता भी क्या । मैं तो दूल्हा था और सभी बड़े -बूढ़े कह रहे थे कि बीस बिस्वा की शादी की यही आदर्श परम्परा है । हम सुबह से भाँवरों के बाद उनके अतिथि होंगें । (क्रमशः )
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