दारा सिंह की शारीरिक गठन नें मुझे प्रभावित अवश्य किया ,पर पंजाबी लहजे में बोली गयी हिन्दी की दो चार बातें मुझे शारीरिक शक्ति का थोथा प्रदर्शन ही लगीं । जिन दिनों की यह बाते हैं उस समय बी. ए. दो वर्ष का होता था न कि आज की तरह तीन वर्षों का । मुझे अपनें अँग्रेजी अध्यापकों में प्रो ० कैलाश नाथ पाण्डेय का नाम सबसे पहले याद आता है । भारतीय संसद नें एक बिल पास कर NCCको महाविद्यालयों में लॉन्च किया था । प्रो ० पाण्डेय NCC का प्रशिक्षण लेकर ताजा -ताजा कालेज में आये थे । उनकी गढी देहयष्टि पर फ़ौजी यूनिफार्म और पी कैप बड़ी शोभन लगती थी । सेना के प्रति सम्मान का भाव अभी तक तरुण पीढी में था । सुयोग्य अध्यापक व NCCअफसर होनें के कारण वे लोगों की प्रशंसा का पात्र बन गये । प्रथम वर्ष की अर्ध वार्षिक परिक्षा में अँग्रेजी में अच्छे नम्बर हासिल करने के कारण मैं उनकी निगाह में आ गया था ,पर मुझमें रूचि लेने का एक और अतिरिक्त कारण भी था । मुझे स्मरण आता है कि शायद वे कक्षा में भवानी भट्टाचार्य की कोई कहानी पढ़ा रहे थे । किसी प्रसंग में उन्होंने कहा कि अगर कोई वश न हो तो हमें किसी भी नकारात्मक घटना में भी आनन्द के साथ प्रविष्ट करना चाहिये । उन्होंने अँग्रेजी में एक वाक्य कहा -" If the rape is inevitable,one must enjoy it."उन्होंने भारतीय महाकाव्यों के नारी व पुरुष पात्रों पर कुछ पाश्चात्य विचारधारा में ढली हुयी बातें कहीं । उन्होंने रामायण के एक प्रसंग के सम्बन्ध में कहा कि सीता जी नें भी लक्ष्मण को अपनी ओर लोलुप द्रष्टि से देखनें का दोषी ठहरानें का प्रयास किया था । मुझसे रहा नहीं गया और मैनें खड़े होकर कहा कि सर ,बाल्मीक रामायण में तो रामानुज लक्ष्मण के अत्यन्त प्रेरणा प्रेरक चरित्र का निरूपण हुआ है । किष्किन्धा गिरि पर सीता जी द्वारा डाले गये अपनें कान और ग्रीवा के आभूषण और पाँव के नूपरों को जब सुग्रीव नें राम दिखाया तो राम नें लक्ष्मण से कहा -अनुज देखो ,ये तुम्हारी भाभी के हैं कि नहीं ? इस घटना में भारतीय सती नारी के रूप में सीता का चातुर्य तो झलकता ही है जिन्होनें पुष्पक विमान पर जाते -जाते अपनी निशानी सुग्रीव तक पहुँचा दी ,पर सबसे बड़ा निखार मिलता है लक्ष्मण के चरित्र को । उन्होंने कहा कि हे भ्राता , "नैवम जानाति के यूरम ,नैवम जानाति कुण्डलम " -मैं कानों के कुण्डल और गले की रत्न माला को नहीं बता सकता ,क्योंकि माँ कानों व गले में क्या पहनें हैं ,यह मैनें कभी ध्यान से नहीं देखा । पर हाँ, मैं उनके पैरों के नूपुरों को पहचान रहा हूँ क्योंकि मैं प्रति दिन उनकी चरण वन्दना करता था । धोती- कुर्ता पहनें गाँव से आये एक अर्धशहरी विद्यार्थी की यह बातें सम्भवतः प्रो ० पाण्डेय को बुरी नहीं लगीं । उन्होंने कहा कि विष्णु ,तुम बड़े होकर अपनें विचारों पर टिकने की कोशिश करना । इसके बाद वे जब कभी मिलते ,कालेज में या सड़क पर आते -जाते ,तो मुझसे मेरे परिवार के बारे में पूँछते । मैं संकोचवश यदि हटनें की कोशिश भी करता तो वे बुलाकर अपना स्नेह भी देते । प्रो ० पाण्डेय कालेज के अँग्रेजी विभाग में वरीयता क्रम में अभी सबसे नीचे थे इसलिये मुझे उनसे परास्नातक कक्षाओं में पढने का मौक़ा तो नहीं मिला ,पर उनकी स्नेह द्रष्टि सदैव मुझ पर रही और एम ० ए ० अँग्रेजी करने के बाद मेरी पहली नियुक्ति उन्हीं के द्वारा संभ्भव हो पायी थी । इसकी बात हम फिर करेंगें । बी. ए. प्रथम वर्ष की परीक्षा उन दिनों कालेज की आन्तरिक परीक्षा थी और कक्षा में मैं अग्रणी पंक्ति में था ही । बी ० ए ० के अन्तिम वर्ष में आते -आते मैं तरुणाई के मध्य द्वार पर पहुँच चुका था और काफी बड़े -बड़े अरमान संजोने लगा था । राजा 11 रहवीं परीक्षा पास कर हरसहाय जगदम्बा सहांय कालेज में 12 रहवीं कक्षा में पहुच चुके थे । इस इण्टर कालेज में विद्यार्थियों की आपसीमार पीट की कई घटनाओं नें उन्हें प्राचार्य और अध्यापक वर्ग की आँखों में ला दिया था । पढ़ाई के नाम पर भले ही वे शून्य हों ,पर कद और ऊट -पटांग पहरावे नें उन्हें एक विद्रोही पंक्ति में खड़ा कर रखा था और उनके क्रिया कलाप निरन्तर निगरानी की माँग करते थे । इसी बीच राम बाग़ के जिस कमरे में मैं रहता था उसके पास के मकान के एक कमरे में एक गुजराती नवयुवक किरायेदार बनकर आया । वह 27 -28 वर्ष का लम्बे कद का तरुण था और नाम था रूप चन्द्र मेहता । आज गुजराती लोग दुनिया भर में अपनी व्यापारिक कुशलता के लिये जाने जाते हैं । उस समय वे भारत के भीतर ही भिन्न -भिन्न प्रान्तों में नये -नये व्यापार कार्यों में अपनें को स्थापित करनें की कोशिश कर रहे थे । भाव नगर गुजरात की किसी कम्पनी नें पान मसाला का नया फार्मूला बनाया था ,जिसके नमूनें लेकर वह नवयुवक कानपुर व पूर्वांचल के शहरों में बाजार की तलाश कर रहा था । वह इस मसाले को स्वयं भी बनाना जानता था और कई बार अच्छी शीशियों में पैक कर व लेबल लगाकर और एक सुन्दर बैग में रखकर शहर की प्रतिष्ठित पान दुकानों व पान मसाला बेचनें वाली कम्पनियों से सम्पर्क स्थापित करता था । मैं उम्र में उससे छोटा था ,पर सायंकालीन विद्यालय में शिक्षक तथा पड़ोसी होने के कारण वह मुझमें रूचि लेने लगा और कई बार कमरे में आकर लम्बी बैठकें कर लेता था । उसनें देखा कि राजा का मन पढने -लिखने में नहीं लगता और शायद वे ईमानदारी की कमायी का अतिरिक्त धन्धा चुन लेने से सफल जीवन जी सकेंगें तो उसनें उन्हें अपने साथ काम में जोड़ने की मंशा प्रकट की । खाली समय में वे मसाला बनाना सीख सकते थे और कभी साथ -साथ व कभी अकेले शहर के विभिन्न मुहल्लों में अच्छी दुकानों पर सप्लाई कर सकते थे । । पैसा वसूली मसाला बिक जानें के बाद की जाती थी । चीनी ,पिपरमेन्ट ,इलायची ,व अन्य कुछ चीजें मिलाकर इस मसाले के छोटे कण बनते थे , जो पान में थोड़ा सा डालकर खाने से एक आनन्ददायक सुगन्ध भरा मीठा स्वाद देते रहते थे । राजा नें यह काम सीख लिया और धीरे -धीरे दस बीस दुकानों से उनका सम्बन्ध जुड़ गया । मैं निश्चिन्त हुआ कि उन्हें अपनी आमदनी का रास्ता तो मिला । जितनें का मसाला बिकता था उसका एक चौथाई प्रतिशत कमीशन के रूप में उन्हें मिलता था । मैनें पढ़ रखा था कि रुपया -पैसा -नौकरी से कभी नहीं आता -व्यापारे बसति लक्ष्मी -और मैं सोचता था कि शायद मेरा छोटा भाई पुस्तकों का ज्ञान अर्जित न करनें पर भी एक सफल व्यापारी बन सकेगा । पर विधाता को यह मंन्जूर न था । जैसे -तैसे बारहवीं की परीक्षा उन्होंने दी और किसी काम से मेहता को गुजरात जाना पड़ा उन्होंने उसके सारे तैय्यार माल की सप्लाई उसके बताये हुये दुकानदारों तक करनें की जिम्मेदारी ले ली और दो माह बाद जब मेहता वापिस आया तब उसनें पाया कि हर दुकान से पैसा वसूला जा चुका है और उसका कोई हिसाब -किताब नहीं है । वह मेरे पास आया और मैनें राजा से इस सम्बन्ध में बात की । उन्होंने कहा कि मेहता झूठ बोलता है और उसका एक भी पैसा उनके ऊपर नहीं है । बात बढ़ती गयी और मेहता नें कहा कि वह गुजरात जाकर जिस कम्पनी का वह एजेन्ट है ,वहां से राजा के नाम कानूनी नोटिस भेजेगा और उन्हें लेने के देने पड़ जायेंगें । बात आयी गयी हुयी ,पर कुछ माह बाद उसके दुष्परिणाम भोगने पड़े । इधर मेरी बहन कमला का दूसरा पुत्र अशोक जन्म ले चुका था और जीजा जी किसी मानसिक व्याधि से ग्रस्त हो गए थे । कृष्णा मामा की राय पर उन्हें एक महीनें के लिये जयपुर भेजने का निश्चय किया गया ताकि वे अपनें मौसिया ,जिन्हें कात्यायिनी की सिद्धि प्राप्त थी ,के द्वारा मानसिक स्वास्थ्य प्राप्त कर सकें । कृष्णा मामा देव नारायण अग्निहोत्री के गाँव बलहापारा के निवासी थे और जयपुर मौसिया के एक शिष्य थे । मौसिया जयपुर राज्य के किसी सामन्त के यहाँ पुरोहित नियुक्त हो गये थे । उन्हें एक अच्छी हवेली और काफी जमीन जायदाद मिली थी । वे जयपुर के संभ्रान्त पुजारियों में से थे और ऐसा माना जाता था कि अपनी तान्त्रिक शक्तियों के बल पर उन्होंने कुछ सिद्धियां प्राप्त कर ली हैं । वे शिव के भक्त थे और उन्होंने अपनी तान्त्रिक शक्तियों का दुरुपयोग नहीं किया था । केवल एक बार जब उनका बड़ा पुत्र गोली से मार दिया गया था और जयपुर पुलिस हत्यारे का पता लगाने में विफल रही तब उन्होंने अपनी सिद्धि शक्ति से मृतक पुत्र की आत्मा का आह्वाहन किया था और उससे हत्यारे का नाम जान लिया था । अन्धेरे कमरे में उनका किया गया यह प्रयोग सारे जयपुर में चर्चा का विषय बन गया था और जयपुर पुलिस जहां असफल रही थी ,वहां उनकी सिद्धि शक्ति सफल रही थी । जयपुर के बड़े -बड़े लोग उनकी कृपा के लिये उनके आस -पास चक्कर लगाते थे । जीजा जी को वहाँ बहन जी के साथ भेजा गया । दोनों बच्चे भी साथ थे । जीजा जी अपनी नौकरी से अवैतनिक अवकाश लेकर गये थे । लगभग दो माह बाद जब वे वापिस आये , तो बिल्कुल स्वस्थ्य दिखाई पड़ते थे । उनमें मानसिक असन्तुलन का कोई लक्षण नहीं था । वे अपनें काम , जो कि अब राशनिंग की जगह कानपुर कचहरी में एक क्लर्क के रूप में उन्हें मिल गया था ,करने लगे । यह भी एक सरकारी नौकरी थी और जीवन यात्रा सुचारू रूप से चलनें लगी । किराये के दो कमरे के मकान में उनका जीवन निम्न मध्य वर्ग के परिवार की तरह चलनें लगा । मैं उस समय Cause and effect Theory का प्रशंसक बन चुका था और मेरा मन यह नहीं मानता था कि किसी तन्त्र शक्ति से जीजा जी को मानसिक लाभ हुआ है । मेरी यह मान्यता थी और है कि उनकी मानसिक विक्षिप्तता मूलतः परिस्थितिजन्य और वंशानुगत एकांगीं जीवन दर्शन पद्धति के बोझ से जन्मी थी और उचित परिस्थितियों में उसका निराकरण हो जाता था । बाद की घटनाओं नें मेरी इस मान्यता को सही कर दिया -जब उन्हें असन्तुलन के कई दौरे पड़े । यह दूसरी बात है कि उनकी इस असन्तुलन मानसिक अवस्था से एक निर्माणात्मक चिन्तन यह निकला कि बहन को और आगे पढ़ाकर सरकारी नौकरी के योग्य बनाया जाये । कमला नें हाई स्कूल परीक्षा की तैय्यारी शुरू कर दी और मैं समय मिलते ही घर जाकर उनकी मदद करने लगा । घर की आर्थिक स्थिति अब उतनी बुरी नहीं थी । खेतों में खाने के लिये अनाज मिल रहा था । अपना व राजा का खर्चा मैं चला ही लेता था ,पर सनातन धर्मी परंपरा में लड़की के घर का हर बोझ मायके पर ही पड़ता है ,विशेषतः जब ससुर और सौतेली सास अपना अलग सँसार बसा चुके हों । दूसरे ऊपर का कर्जा अभी माता जी चुका नहीं पायी थीं और उनके वेतन का अधिकाँश हिस्सा ब्याज में चला जाता था । सबसे दुखदायी बात यह थी कि उदय नारायण (राजा ) द्वारा छीना झपटी की घटनाओं की भरपाई उन्हें करनी पड़ती थी । वे सम्भवतः गाँव के परशुराम शिवदत्त की संगत में आकर मदक का सेवन करने लगे थे । भाँग तो कानपुर बेल्ट में भगवान शंकर का प्रसाद ही मानी जाती है । यदा -कदा सोमरस का पान भी किया जाने लगा । लम्बा -चौड़ा शरीर साधारण खाने के अतिरिक्त विलास की वस्तुयें और पशु प्रोटीन की मांग करने लगा । असन्तुलित जीवन दर्शन के दौर में उन्होंने घर में ही चोरी -चकारी के काम करनें शुरू कर दिये । एक बार वे अपनी बड़ी बहन के घर से दहेज़ में दिये गये बोरे में रखे बर्तन उठा ले गये और उन्हें जर्नलगंज में किसी ठठेरे की दुकान में बेच दिया । ऐसे ही एक बार उन्होंने गाँव में पड़ोस के एक घर में रात के समय अपनें दो लफंगे मित्रों के साथ ऐसी ही हरकत की । हर बार हमें हर्जाने की भरपाई करनी पडी । ऐसा करना इसलिये आवश्यक था ताकि समाज में झूठी प्रतिष्ठा बनी रहे और घर का लड़का किसी प्रकार पुलिस की असामाजिक तत्वों वाली सूची में शामिल न कर लिया जाये । दरअसल अपराध के प्रति परिवार की सहनशीलता ही अपराधी को बढ़ावा देती है और पितृ प्रधान समाज में पिता की अनुपस्थिति में माँ के लिये लीक से अलग हटकर सोचना कठिन हो जाता है । (क्रमशः )
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