Friday, 17 March 2017

  घर की दालानें और बाहर का बैठका भी जीर्ण होनें लगा था । पीछे की दो दालानें तो पहले ही गिर पडी थीं । ,पर पैसे का जब जुगाड़ हो तभी इस दिशा में कुछ  सोचा जा सकता था । मेरी पत्नी अभी मायके में थी। पर उसे अब माँ के पास आना ही था और एक अतिरिक्त मुंह के लिये भोजन की व्यवस्था और शरीर के लिये कपड़ों की व्यवस्था का प्रश्न भी  था । मैं अभी इस दिशा में ध्यान नहीं देना चाहता था क्योंकि मैं किसी भी प्रकार एम ० ए ० तक की पढ़ाई पूरी करने  का स्वप्न संजोये था । अब मैं स्नातक होनें जा रहा था और मैं जान चुका था कि मैं जीवन की कई अच्छी राहों से वंचित रह गया हूँ दसवीं के बाद यदि मैनें विज्ञान की किसी शाखा को चुन लिया होता तो मेरे जीवन का शायद कोई दूसरा रास्ता होता । जहां बड़े बाल रखना कुल्लियाँ  रखने के नाम पर उपहास की बात मानी जाती हो और जहां पैन्ट पहनकर या खड़े होकर प्रकृति कार्यों को गति देना अपावन माना जाता हो ,वहां मेढक चीरकर शरीर रचना के विज्ञान को सीखने की बात एक उच्चकुलीन ब्राम्हण के सन्दर्भ  में सोची ही नहीं जा सकती थी । बच्चन के शब्दों में - "जो बीत गयी ,सो बात गई "-अब तो एक ही लक्ष्य था -साहित्य का अध्ययन और उसी के द्वारा जीवकोपार्जन और जीवन मूल्यों का निर्माण । प्रेमचन्द्र का युग बीत चुका था । प्रगतिवाद भी बुढापे की ओर बढ़ रहा था और अज्ञेय की प्रयोग धर्मिता पूरे जोश खरोश के साथ हिन्दी जगत पर उभर आयी थी । मैं साहित्यिक पत्रिका' प्रतीक ' का भक्त बन चुका था अज्ञेय की व्यक्तिवादी चिन्तना और समष्टिवादी समर्पणा कुछ कविताओं में अत्यन्त प्रभावशाली बन जाती थी । उनका एक  गीत -  'यह दीप  अकेला स्नेह भरा मदमाता , इसको भी पाँति को दे दो " -मुझे अत्यन्त प्रिय लगता था उस समय मैं पंक्ति का अर्थ मानव समाज से न लेकर परिवार से ही जोड़ लेता था । कमला हाई स्कूल पास हुयीं और राजा उस वर्ष हाजिरी पूरी न होनें के कारण बारहवीं में न बैठ सके । मैं बी ० ए ० के परिक्षा परिणाम की प्रतीक्षा करनें लगा । मुझे पूरा विश्वास था कि मैं अपनें पिछले दो इम्तहानों हाई स्कूल व इण्टर का रिकार्ड अवश्य तोड़ूंगा । इधर मेरे एक नये  साथी कृष्ण दत्त अवस्थी मेरे नजदीक आ गए थे । वे रूरा के रहनें वाले थे और उनके बड़े भाई आढ़त का काम देखते थे । गाँव के सन्दर्भ में वे धनी परिवार के माने जाते थे । वे भी मेरे साथ सनातन धर्म कालेज में बी ० ए ०  के छात्र थे । मेरी ससुराल के पास ही उनका घर था और वे मेरी पत्नी को भाभी कहकर पुकारने लगे थे । मैं सम्बन्धो की गहरायी से बहुत परिचित नहीं हूँ और वे सम्भवतः मेरे से उम्र में बड़े भी रहे हों ,पर भाभी शब्द में मुझे कोई अपमान भावना छिपी नहीं जान पडी । एक बार उन्होंने मुझसे कहा कि भैय्या ,भाभी जब गाँव में नथुनी पहन कर चलती हैं \। बड़ो -बड़ों के दिल हिल जाते हैं । मैं उनकी इस प्रकार की बातों को अतिरिक्त रसिकता ही मानता था । उनका व्याह मेरे से पहले ही हो चुका था और वे एकाध बार अपनी पत्नी को साथ लेकर मेरे कमरे में आये भी थे । पीछे मुड़कर देखनें पर मुझे उनकी पत्नी की स्मृति अपनें अन्तर्मन में कहीं दिखायी नहीं पड़ती सम्भवतः भाभी की देह यष्टि उन्हें अधिक आकर्षित लगती रही हो और इसलिये वे हलके-फुल्के ढंग से अपनें मन की असंतुष्टि को सन्तुष्ट करते रहे हों । कृष्णदत्त जी को लेकर मैनें इतनी चर्चा इसलिये की है क्योंकि वे ससुराल में मुझे एक पथ भ्रष्ट युवक के रूप में चित्रित करनें के लिये कई व्यूह जालों के सृजक रहे थे । यथास्थान इनकी चर्चा की जायेगी । बी ० ए ० का परीक्षा परिणाम आया और मैनें अपनें दोनों रिकार्ड तोड़ दिये । हाई स्कूल में एक अंक की कमी ,इण्टर में तीन अंकों की कमी हो गयी थी । और अब तीन अंकों की कमी बढ़कर पांच अंकों पर जा पहुँचीं । मैं असंतुष्ट नहीं था । मैं तरुण था ,स्नातक था ,स्वावलम्बी था और अन्याय से जूझनें  के लिये प्रस्तुत था । बीस वर्ष की उम्र तक इतनी उपलब्धि एक ग्राम्य बालक के सन्दर्भ में हीन नहीं कही जानी चाहिये

                                             माता जी को अब शिवली में प्रधान अध्यापिका के पद पर काम करते हुये कई वर्ष बीत गये थे । गणतन्त्र बन जानें के बाद प्रथम आम चुनावों में भारत के लगभग सभी राज्यों व केन्द्र में कांग्रेस की सरकारें बन चुकी थीं शिवली के ब्लाक स्तरीय कई नेता अपनी अध्यापिका पत्नियों  के लिये शिवली में लानें की जोड़ -तोड़ में लगे थे । इनमें से एक मुख्य अध्यापिका पद के लिये वरीयता प्राप्त कर चुकी थीं । तर्क ये दिया गया  था कि लड़की का व्याह हो जाने के बाद और दोनों लड़कों के पढ़ायी में लगे होनें के बाद अब हंसवती के लिये शिवली में बने रहना कोई अनिवार्यता नहीं है । वे भर मुक्त हो चुकी हैं और उन्हें जिले के किसी ऐसे क्षेत्र में भेजा जाये जहां शिक्षा क्षेत्र में उनके अनुभव का उचित लाभ उठाया जा सके । माता जी जानती थीं कि स्थानान्तरण रोका नहीं जा सकता और नौकरी तो करनी ही है । तय हुआ कि खेतों को हर साल नगदी पर उठा दिया जाये , और शिवली के टूटे -फूटे घर में ताला बन्द करउन्हें जहांभी भेजा जाये , वे चली जांये । अगली जुलाई में ही वे बिल्हौर तहसील के बकोठी गाँव में भेज दी गयीं । (क्रमशः )

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