Saturday, 18 March 2017

 एक खाते -पीते कटिहार घर की सहायक अध्यापिका नन्दनी नें उन्हें अपने ही घर में रहनें का सुझाव दिया । घर काफी बड़ा था और नन्दनी अपनें एक मात्र बालक के साथ उसमें रहती थीं । उनके पति बड़े काश्तकार और बीमा के एजेन्ट थे । खेती अधिया बटाई पर होती थी इसलिये किसानी ताम -झाम का घर पर कोई इन्तजाम नहीं था । माता जी नें यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और कई वर्षों से रूरा में रह रही मेरी पत्नी को अपने साथ रहने के लिये वहीं बुलवा लिया । बी ० ए ०  की परीक्षा में हिन्दी में मेरे अच्छे अंक थे । सनातन धर्म कालेज में हिन्दी विभागाध्यक्ष अयोध्या प्रसाद शर्मा नें मुझे हिन्दी में एम ० ए  ० करनें की व्यक्तिगत सलाह दी वे डा ०  नगेन्द्र के गुरू थे और साहित्य के प्रति लगनशील तथा हिन्दू संस्कृति से जुड़े थे । विद्यार्थियों के प्रति उनमें एक अतिरिक्त स्नेह  भाव था  । अँग्रेजी विषय में अपेक्षाकृत मेरे नम्बर कम थे ,पर इतनें अवश्य थे कि बिना किसी सिफारिश के मुझे एम ० ए ० अँग्रेजी में ही प्रवेश मिल जाये ।  क्यों और कैसे ऐसा हुआ -इस मन स्थिति की विश्वसनीय व्याख्या मैं अब तक नहीं कर पाया हूँ पर मैनें एम ० ए ० अँग्रेजी में ही प्रवेश लेने का निश्चय कर डाला । सनातन धर्म कालेज में उस समय प्रदेश के तीन मिश्रा अध्यापकों  की अँग्रेजी विभाग में काफी ख्याति थी । वे थे -बी ० डी मिश्रा ,एच  ० एन ० मिश्रा  और एस  ०  आर ० मिश्रा । साथ ही एम ० पी ० श्रीवास्तव अँग्रेजी गद्य साहित्य के सम्पूर्ण प्रदेश में ख्याति प्राप्त अध्यापक थे । अपनें दो वर्ष के अध्य्यन काल में मुझे इनके सम्पर्क में आने का मौक़ा मिला ,पर मैं सबसे अधिक एम ० पी ० श्रीवास्तव से प्रभावित हुआ । मेरे साथ प्रथम वर्ष में प्रवेश लेने वालों में रूरा के कृष्ण दत्त अवस्थी भी थे । अर्ध वार्षिक परीक्षा में पैंतीस लड़कों के क्लास में जो दो लड़के सबसे ऊपर उभर कर आये उनमें एक मेरा नाम था और दूसरा रमन सिंह का । मेरे सहपाठी रमन सिंह मुझसे उम्र में बारह -चौदह वर्ष बड़े रहे होंगें । वे अठ्ठारह वर्ष की उम्र में सेना की नौकरी में चले गए थे और लगभग दो दशकों की फ़ौजी नौकरी के बाद हवलदारी से पेन्शन लेकर आये थे । फ़ौज में ही उन्होंने विशेष अनुमति लेकर बी ० ए  ० पास कर  लिया था । उनकी अँग्रेजी काफी अच्छी थी । वे मेरे से कद में  लम्बे थे और उनका सांसारिक अनुभव भी मुझसे अधिक था । आर्थिक द्रष्टि  से भी वे संपन्न थे । वे अध्यापकों से सहज भाव से मिल लेते थे और शिक्षक भी उन्हें मित्र भाव से ले लेते थे । अर्ध वार्षिक परीक्षा  में मैं उनसे कुछ आगे था और शायद उन्होंने मन में ठान लिया था कि किसी भी तरह वे एम ० ए  ० में मुझे पीछे धकेल कर रहेंगें । पर यह  सब एकाध साल बाद की बातें हैं । इस बीच भाई व बहन के स्तर  पर कुछ और घटनायें घट रही थीं जिनमें माता जी को अनिवार्य रूप से उलझना ही पड़ता था । जैसा कि मैं कह चुका हूँ एक गुजराती नवयुवक जिसका सारा सामान बेचकर राजा नें पैसे वसूल कर लिये थे ,कानूनी कार्यवाही में लगा था । वह अपनी कम्पनी में गुजरात जाकर स्थानीय पुलिस की सहायता से उदय नारायण के खिलाफ चोरी का केस दर्ज करानें में सफल हो गया । उसनें यह लिखा कि वह कभी -कभी कानपुर व अन्य क्षेत्रों में एजेन्ट के बतौर जाता है ,पर उसका मुख्य स्थान गुजरात है । अतः नामजद अभियुक्त को पकड़ कर गुजरात ही लाया जाये । उसनें भावनगर के किसी पुलिस क्षेत्र को इस मामले के लिये चुना था । एक -दो माह बाद सरकारी सूत्रों से होती हुयी यह खबर शिवली थाने तक आ गयी । गाँव में  मोहल्ले के  मुखिया व अन्य कई वरिष्ठ लोगों नें दरोगा जी से अनुरोध कर गिरफ्तारी को कुछ समय  के लिये रुकवाया । माता जी नें मेरे पास किसी माध्यम से खबर भिजवायी और कहा कि मैं मेहता से मिलकर उसकी समस्त रकम चुकाकर मामले को खारिज करवा दूं । पैसा मेरे पास तो था नहीं ,पर उन्होंने उधार लेकर इन्तजाम करने की बात कही । मैं समझता हूँ कि मैंने मेहता को ,जो मेरा काफी आदर करता था ,अनुरोध करते हुये एक पत्र  लिखा और पैसा देने की बात कही । मेहता जी अत्यन्त सज्जन व्यक्ति थे उन्होंने कहा कि वे कुछ दिनों में कानपुर आयेंगें और साथ में समझौते और केस खारिज करने का मसौदा लायेंगें । वैसा ही हुआ और सम्भवतः तीन सौ से कुछ ऊपर की रकम चुकाकर केस खारिज कराया गया । सन 1954 में 300 रुपये का अत्यन्त महत्त्व था । ,खासकर उस परिवार के लिये जिसकी कमर आर्थिक बोझ तले पहले ही टूट चुकी हो । (क्रमशः )

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