मानव सभ्यता के निरन्तर विकास की गति अप्रतिहत रूप से चलती रहती है। बीते कल का सामाजिक सत्य आज के वर्तमान का सामाजिक सत्य हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है । इसी प्रकार वर्तमान का सत्य आने वाले कल के लिये सत्य ही बना रहेगा ऐसा सुनिश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता । न्याय की प्रक्रिया भी अपने समय की सामाजिक व्यवस्था से प्रभावित होती है । ईसा मसीह को अभियुक्त करार देते हुये ट्रायल जज पाइलेट नें कहा था कि न्याय की वही परिभाषा है जो वे मानते हैं । यानि न्याय समय का सबसे शक्तिशाली समर्थक बनकर ही जी सकता है । सन्तों ,महात्माओं पीरों और फकीरों को भी राजदरबार में इसी लिये मौत के घाट उतार दिया जाता था कि वे अपनें समय के सबसे शक्तिशाली शासक को पूजा या प्रशंसा के योग्य नहीं पाते थे यानि धर्म सत्ता का पिछलग्गू था और सत्ता धर्म की दुहायी देती रहती थी । जीवन मूल्यों में भी इसी प्रकार की विसंगतियां पायी जाती हैं । अब कोई कार्य Immoral है पर Illegal नहीं है इस बारीकी अन्तर को समझने के लिये बड़े -बड़े दिमाग व्याख्या करने में लगाये जाते है । इसी प्रकार राज द्रोह को देश द्रोह से अलग करके राजनैतिक सत्ता को उलट देने का जोखिम भरा कार्य भी कई न्याय विदों से सराहना पाता रहता है । बाल गंगाधर तिलक को जब अंग्रेजों नें राज द्रोह के अपराध से भारत से निष्कासित कर मांडले के जेल में बन्द कर दिया था तब कांग्रेस के विचारकों नें ठीक ही कहा था कि तिलक राजद्रोही भले ही हों पर वे देश द्रोही नहीं हैं और भारत को उनपर अभिमान है । इसी प्रकार जब महात्मा गांधी को राज द्रोह के अपराध में एरवदा जेल भेजा गया तब भी सारे देश नें गांधी जी को सबसे बड़ा देश भक्त करार दिया था । (क्रमशः )
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