स्वतन्त्र भारत में आज कहीं कुछ ऐसा घट जाये तो मैं समझता हूँ कि सेवा निवृत्त होनें तक रिकार्ड का मिल पाना संभ्भव न होगा । भारतीय सेना में शायद अभी इतनी गिरावट न आयी हो पर सिविल सर्विसेज में तो यह एक निर्विवाद सत्य है ।
मेरे व्याह को पाँच छः वर्ष हो गये थे और अपनी पत्नी से यदा -कदा मिलता भी था ,पर परिवार को बढानें के विषय में अभी तक कोई शुभ सन्देश माता जी को नहीं मिला था । वे निश्चिन्त थीं क्योंकि हर भारतीय नारी शीघ्र से शीघ्र दादी बननें की आकांक्षा मन में छिपाये रहती है । एम ० ए ० प्रथम वर्ष में परीक्षा देनें के बाद मैं कुछ दिनों के लिये राष्ट्रीय विद्यालय की छुट्टी होनें पर शिवली आया । माता जी भी जून की छुट्टी में घर आयीं और राजा भी । गाँव के उन कुछ दिनों की रिहाईश में ही राजा के कुछ नये रंग -ढंग देखने को मिले । वे शाम के समय पक्के तालाब के पास बनें शिव मन्दिर के चबूतरे पर बैठे रहते । आस -पास घनी इमली के पेंड़ थे ,जिनके आस -पास एक पक्का कुंवाँ बना था । । उनके दो दोस्त रात के दस ग्यारह बजे तक उन्हीं के पास बैठे रहते । कई बार वे लंगोट लगाकर गर्मी दूर करनें के लिये खड़े कुएँ में कूंद जाते और नहाकर इधर -उधर निकली हुयी ईंटों पर पैर रखकर ऊपर आ जाते । उनका यह जोखिम भरा काम उन्हें थोडा -बहुत बहादुरी का आभाष देने लगा और उनका अपना हीरो होनें का भाव उनमें और गहरा गया । शाम के समय निवृत्त होनें जाने के लिये मोहल्ले की लड़कियाँ उधर अकेले जानें से कतराने लगीं । कुछ अजीबो +गरीब कहानियाँ सुननें में आईं । जिनकी चर्चा करना मैं उचित नहीं समझता । रात को घर लौटने के पहले गाँव के सिरे पर बनें सबसे पहले घर पर वे कुछ देर बैठते जहाँ उस घर के अविवाहित सबसे बड़े लड़के अयोध्या प्रसाद पाठक से उनकी मित्रता हो गयी थी । पाठक जी उनसे आठ -दस वर्ष बड़े थे और एक पैर से लँगड़ाते थे इसलिए उन्हें लंगड़ऊ कहकर भी पुकारा जाता था । लँगडऊ का व्याह नहीं हुआ था और उनके अन्य तीन भाइयों में सम्भवतः उस समय एक का ही व्याह हुआ था । एक छोटी बहन व्याही जा चुकी थी और सबसे छोटी बहन व्याहने को थी जो कक्षा सात में पढ़ रही थी । पाठकों के पास कुछ जमीन थी । जिससे उनका काम -काज चल जाता था पर पिता के निधन के बाद भाई अपनी प्रतिष्ठा नहीं बना पाये थे । जब तक लक्ष्मण प्रसाद पाठक जीवित थे तब तक सब परिवार एकत्रित था ,पर उनकी मृत्यु के बाद बिखराव का काम शुरू हो गया था । लंगड़ऊ की शादी न होनें के कारण वे कुण्ठा ग्रस्त हो गए थे । उनके कुछ मुसलमान दोस्त थे । बीच गाँव में रहनें वाले काजी मन्जूर अली के दो लड़के कई बार उनके साथ बाहरी कमरे में बैठे दिख जाते थे । हड़िया में पकाकर माँस खाने की बात भी सुननें में आती थी गाँव के एक कांग्रेसी नेता के चिपकू होनें के कारण अयोध्या प्रसाद अपनें को चलता -पुर्जा मानने लगे थे । उम्र में छोटा होनें पर भी शरीर में कहीं अधिक समर्थ राजा उनके अच्छे मित्र बन गये और कमरे पर लम्बी बैठकें होनें लगीं , जहां वे अपनी निराली शैली में सिनेमा के गीत सुनाकर घर व आसपास के लोगों का मनोरंजन करने लगे । सारे पाठक बन्धु मुझे जानते थे ,पर मुझे याद नहीं कि मैं उनके दरवाजे कभी बैठा हूँ । हाँ रास्ते में कई बार राम -राम हो जाया करती थी । एम ० ए ० प्रथम वर्ष का परीक्षाफल आ गया । उस समय 1955 के आसपास आगरा विश्वविद्यालय का क्षेत्र बहुत विस्तृत था और उससे सैकड़ों कालेज सम्बंधित थे । उन दिनों प्रथम वर्ष में तीन पत्र होते थे । और द्वितीय वर्ष में पांच । पांच इसलिए कि चार प्रश्नपत्र लिखित होते थे और एक वायवा वोसे । इन तीन प्रश्नपत्रों के आधार पर मैं अपनी कक्षा में प्रथम तथा रमण सिंह द्वितीय स्थान पर थे । हम दो ही विद्यार्थी सेकेण्ड क्लास से ऊपर निकल सके थे । बाकी सभी उस विभाजक रेखा से नीचे रह गए थे । रमण सिंह नें फिर पक्का निश्चय किया कि वे किसी भी प्रकार मुझे पछाड़कर रहेंगें । आखिर वे फ़ौज के रिटायर्ड हवलदार थे । मैनें एकाध बार देखा कि वे अँग्रेजी विभाग में हाल ही में लगाये गये एक तरुण प्राध्यापक के साथ दोस्ती बढानें लगे थे । सुना जाता था कि उस प्राध्यापक को सुरापान का चस्का है और रमण सिंह जो सेना से इस विरासत को पा ही चुके थे । शिव दत्त अवस्थी केवल पास होनें की लाइन पर पहुँच पाये थे और रूरा जाकर उन्हें यह बताना कि वे मेरे से पीछे रह गयेहैं ,सम्भवतः उन्हें अरुचिकर लगा होगा पर कानपुर में वे मेरे पास आने लगे और उन्होंने चाहा कि मैं उन्हें पढानें का कोई काम दिला दूं । दरअसल मेरे विषय में यह मशहूर हो गया था कि मैं कई अध्यापिकाओं का शिक्षक हूँ और अन्य कई पढने को आतुर हैं । उन्होंने चाहा कि वे किसी ऐसी ही शिक्षा प्रेमी और तरुण अध्यापिका के शिक्षक के रूप में स्थापित हो जाये ताकि उनको अपनें ज्ञान प्रदर्शन का मौक़ा मिल सके । । वे ब्याहता तो थे ही इसलिये उनके भटक जानें का अन्देशा नहीं हो सकता था । उन दिनों अँग्रेजी एम ० ए ० का प्रथम वर्ष पास करना भी पढ़े -लिखे समाज में एक बड़ी बात मानी जाती थी । आज की तरह के प्रश्न पत्र नहीं होते थे जिनमें टिक मार्क या हाँ अथवा न के आधार पर एक में से एक नम्बर मिल जाता है । निबन्ध के रूप में लिखे गये लम्बे उत्तरों के लिये व्याकरण सम्मत अच्छी अँग्रेजी लिखना आवश्यक थी और अँग्रेजी के स्थापित अध्यापक दस में से छः नम्बर तभी देते थे जब वह उत्तर उन्हें अपनें स्तर का लगता था । मैनें सोचा कि शिवदत्त जी मेरी ससुराल रूरा से हैं और मुझे कई अध्यापिकाओं के यहाँ शिक्षक के रूप में जाते देखकर ईर्ष्यावश कुछ उल्टी -सीधी बातें मेरी ससुराल में न कहने लगें ,इसलिए मैनें उन्हें सरला माथुर नाम की एक प्राईमरी अध्यापिका के यहां शान्ति निगम से सिफारिश करवाकर ट्यूटर के रूप में नियुक्त करवा दिया । यह मेरी एक बड़ी गलती थी जिसका अहसास मुझे बाद में हुआ । इस बीच मेरी मैत्री अपने कुछ सहपाठियों से गहरी हो आयी थी । जिनमें एक थे श्री कान्त दीक्षित जो छिबरामऊ से थे । वे अपनें गाँव के कई लड़कों के साथ ,जो भिन्न -भिन्न क्लासों में पढ़ते थे एक बड़ा मकान किराये पर लेकर रह रहे थे । उन्होंने सम्मिलित रूप से एक खाना बनानें वाला लगा लिया था । दीक्षित अक्सर बड़े आग्रह के साथ मुझे कमरे में ले जाता और वहीं मेरे खाने -पीनें की व्यवस्था हो जाती । कक्षा के कुछ अन्य साथी तथा एम ० काम ० व एम ० ए ० के अन्य विषयों के विद्यार्थी वहाँ इकठ्ठे हो जाते और हम सब घण्टों बैठे अपनी भविष्य की योजनायें बनाया करते । एम ० ए ० पास करने के बाद अँग्रेजी अध्यापक के रूप में नियुक्ति लगभग निश्चित होती थी और यदि डिवीजन यदि रह भी जाये तो बी ० एड ० या एल ० टी करके हाई स्कूल शिक्षक के रूप में प्रवेश करना लगभग पक्का ही था । अच्छे विद्यार्थी जिनके परिवार में नौकरियों का कोई ज्ञान और परम्परागत अनुभव था ,चाहते थे कि उनके बच्चे किन्हीं प्रभावशाली सरकारी नौकरियों में प्रवेश लें , न कि शिक्षक बनें । पर जहां किसी ने कभी अन्य नौकरी के विषय में जाना ही न हो वहां शिक्षक बननें का स्वप्न ही उनींदी आँखों में उतरता था । मैं अभी तक धोती -कुर्ता ही पहनता था और न जाने क्यों पैन्ट व शर्ट के प्रति मुझमें अभी तक कोई लगाव नहीं आया था । इसका एक कारण बंगाली संस्कृति के प्रति मेरा सम्मान भी कहा जा सकता है । बंगाली प्रोफेसर ,वकील व विचारक अँग्रेजी के धुरन्धर विद्वान होकर भी धोती कुर्ता का अपना पहनावा नहीं छोड़ते थे । साथ ही स्वतन्त्रता संग्राम की स्मृति अभी ताजी थी और धोती कुर्ता का पहनावा राष्ट्रीयता से निकट का रिश्ता कायम करता था । शरत चन्द्र के उपन्यास ,बंकिम और रवीन्द्र की मानवीय सम्बेदना से ओत -प्रोत रचनाएँ मुझे बंगाली संस्कृति को भारतीय संस्कृति के प्रतीक के रूप में स्वीकार करनें को प्रेरित करती थी । विमल राय की फिल्म देवदास में दिलीप कुमार का धोती -कुर्ता का पहनावा मेरे मन को छू लेता था । मुझे ऐसा लगने लगा था कि मेरे सहपाठी भी मेरे पहरावे से प्रभावित हैं । क्योंकि नम्बरों की द्रष्टि में उनमें सबसे आगे रहकर भी मैं अभी तक खान -पान व पहरावे में ग्राम्य जीवन से जुड़ा था । समय तेजी से चल रहा था । एम ० ए ० प्रथम वर्ष के शिक्षा सत्र के बीच ही कालेज का दीक्षान्त समारोह आयोजित हुआ । अँग्रेजी व गुजराती के प्रख्यात लेखक व उस समय उत्तर प्रदेश के राज्यपाल कन्हैया लाल माणिक लाल मुन्शी मुख्य अतिथि बन कर आये । भारतीय संविधान के प्रबुद्ध रचनाकारों में उनकी गिनती होती थी । उनसे हाँथ मिलाकर मुझे गर्व का अनुभव हुआ । अन्तिम वर्ष में मैं एकाध बार बकोठी में गया और शायद कुछ दिनों के लिये कैंझरी में कमला के यहां । मैं अपनी पत्नी को घर का सारा काम -काज ,बच्चों की सम्भाल और चौका -बर्तन करते पाता तो मुझे अत्यन्त खुशी होती कि वे अपनी बड़ी ननद की सेवा कर रही हैं । मेरी माँ यही चाहती थीं और उस समय की ब्राम्हण व्यवस्था का यही स्वीकृत स्वरूप था ,पर सम्भवतः मेरी पत्नी इससे पूरी तरह से सन्तुष्ट नहीं थीं और उनकी बातचीत में मुझे असन्तोष की झलक मिलती थी । पर किया भी क्या जा सकता था ? जो हालात थे ,उनमें बहन को निराधार छोड़ देना घोर स्वार्थ के अतिरिक्त और क्या होता । माता जी के प्रयासों और सम्भवतः रिश्वत की ताकत पर कमला का चयन प्रशिक्षण के लिये कर लिया गया । उन्हें एक वर्ष की अवैतनिक छुट्टी लेनी पडी और नर्वल में उनका एक वर्ष का वर्नाकुलर टीचर प्रशिक्षण का कार्यक्रम हुआ । हाई स्कूल में उनके पास अँग्रेजी भी थी और यह भी एक कारण उनके चयन में सहायक रहा होगा । वे नर्वल में हॉस्टल में रहतीं ,मेस में खाना खातीं ,और पढ़ाई लिखाई करतीं । बच्चे गान्धी नगर में जीजा जी के पास थे ,जहां किराए के दो कमरो में रहकर मेरी पत्नी उनकी देख -रेख करती रहती । हरसहांय जगदम्बा संहाय कालेज में मेरे बहुत अनुनय -विनय के बाद प्रिन्सिपल महोदय इस बात पर राजी हो गये कि राजा को इण्टर परीक्षा में बिठा दिया जाये। दो वर्षों में से एक वर्ष की भी उनकी हाजरी पूरी न थी ,पर स्कूल प्रशासन उनसे तंग था और मुक्ति चाहता था । एम ० ए ० का परीक्षा परिणाम आ गया । इस बार रमण सिंह नें तीन नम्बरों से मुझे पछाड़ दिया । हम दो ही द्वितीय श्रेणी हासिल कर सके थे ,पर उन्होंने मुझे कैसे और क्योंकर मात दी,इसका राज बाद में उन्होंने स्वयं बताया । लगभग दस वर्ष बाद जब मैं पंजाब के एक कालेज में अँग्रेजी का अध्यापक था और रामगढ़ में प्रिंसिपल के कन्डीडेट के रूप में वे साक्षात्कार दे चुके थे ,तब मेरी मुलाक़ात उनसे कानपुर सेन्ट्रल स्टेशन पर हो गयी । सहपाठी होनें की भावना उस समय उनके मन को ईर्ष्या मुक्त कर चुकी थी और उन्होंने जो कुछ कहा वह इस प्रकार है -पंडित जी आप तो जानते ही हैंकि उन दिनों कालेज में अँग्रेजी के नये प्राध्यापक ठाकुर नरेन्द्र सिंह नियुक्त हुये थे । हम दोनों ही परमार क्षत्रिय हैं । हमें खाने -पीनें का शौक है और क्षत्रिय परिवारों में मांस और मदिरा चलती ही है । ठाकुर नरेन्द्र मेरी उम्र के थे और हम दोनों की दोस्ती बढ़ती गयी । बातचीत में मैनें उन्हें बताया कि विष्णु मुझे कुछ नम्बरों से सदैव पछाड़ देता है और अँग्रेजी की एम ० ए ० कक्षा के अधिकाँश विद्यार्थी ब्राम्हण हैं और मैं उनके लिये हँसी का पात्र बन जाता हूँ । फाइनल में भी हम दोनों के पेपर एक जैसे हुये हैं और मैं समझता हूँ कि विष्णु दस -बारह नम्बरों से मुझसे आगे रहेगा । नगेन्द्र नें कहा कि कुछ भी हो जाये ,अन्तिम परिणाम आने तक अपनें ठाकुर भाई को पण्डित से जरूर आगे कर देंगें । हाँलाकि वे ठाकुर होनें के नाते वे पण्डित का कोई अहित नहीं चाहते । (क्रमशः )
मेरे व्याह को पाँच छः वर्ष हो गये थे और अपनी पत्नी से यदा -कदा मिलता भी था ,पर परिवार को बढानें के विषय में अभी तक कोई शुभ सन्देश माता जी को नहीं मिला था । वे निश्चिन्त थीं क्योंकि हर भारतीय नारी शीघ्र से शीघ्र दादी बननें की आकांक्षा मन में छिपाये रहती है । एम ० ए ० प्रथम वर्ष में परीक्षा देनें के बाद मैं कुछ दिनों के लिये राष्ट्रीय विद्यालय की छुट्टी होनें पर शिवली आया । माता जी भी जून की छुट्टी में घर आयीं और राजा भी । गाँव के उन कुछ दिनों की रिहाईश में ही राजा के कुछ नये रंग -ढंग देखने को मिले । वे शाम के समय पक्के तालाब के पास बनें शिव मन्दिर के चबूतरे पर बैठे रहते । आस -पास घनी इमली के पेंड़ थे ,जिनके आस -पास एक पक्का कुंवाँ बना था । । उनके दो दोस्त रात के दस ग्यारह बजे तक उन्हीं के पास बैठे रहते । कई बार वे लंगोट लगाकर गर्मी दूर करनें के लिये खड़े कुएँ में कूंद जाते और नहाकर इधर -उधर निकली हुयी ईंटों पर पैर रखकर ऊपर आ जाते । उनका यह जोखिम भरा काम उन्हें थोडा -बहुत बहादुरी का आभाष देने लगा और उनका अपना हीरो होनें का भाव उनमें और गहरा गया । शाम के समय निवृत्त होनें जाने के लिये मोहल्ले की लड़कियाँ उधर अकेले जानें से कतराने लगीं । कुछ अजीबो +गरीब कहानियाँ सुननें में आईं । जिनकी चर्चा करना मैं उचित नहीं समझता । रात को घर लौटने के पहले गाँव के सिरे पर बनें सबसे पहले घर पर वे कुछ देर बैठते जहाँ उस घर के अविवाहित सबसे बड़े लड़के अयोध्या प्रसाद पाठक से उनकी मित्रता हो गयी थी । पाठक जी उनसे आठ -दस वर्ष बड़े थे और एक पैर से लँगड़ाते थे इसलिए उन्हें लंगड़ऊ कहकर भी पुकारा जाता था । लँगडऊ का व्याह नहीं हुआ था और उनके अन्य तीन भाइयों में सम्भवतः उस समय एक का ही व्याह हुआ था । एक छोटी बहन व्याही जा चुकी थी और सबसे छोटी बहन व्याहने को थी जो कक्षा सात में पढ़ रही थी । पाठकों के पास कुछ जमीन थी । जिससे उनका काम -काज चल जाता था पर पिता के निधन के बाद भाई अपनी प्रतिष्ठा नहीं बना पाये थे । जब तक लक्ष्मण प्रसाद पाठक जीवित थे तब तक सब परिवार एकत्रित था ,पर उनकी मृत्यु के बाद बिखराव का काम शुरू हो गया था । लंगड़ऊ की शादी न होनें के कारण वे कुण्ठा ग्रस्त हो गए थे । उनके कुछ मुसलमान दोस्त थे । बीच गाँव में रहनें वाले काजी मन्जूर अली के दो लड़के कई बार उनके साथ बाहरी कमरे में बैठे दिख जाते थे । हड़िया में पकाकर माँस खाने की बात भी सुननें में आती थी गाँव के एक कांग्रेसी नेता के चिपकू होनें के कारण अयोध्या प्रसाद अपनें को चलता -पुर्जा मानने लगे थे । उम्र में छोटा होनें पर भी शरीर में कहीं अधिक समर्थ राजा उनके अच्छे मित्र बन गये और कमरे पर लम्बी बैठकें होनें लगीं , जहां वे अपनी निराली शैली में सिनेमा के गीत सुनाकर घर व आसपास के लोगों का मनोरंजन करने लगे । सारे पाठक बन्धु मुझे जानते थे ,पर मुझे याद नहीं कि मैं उनके दरवाजे कभी बैठा हूँ । हाँ रास्ते में कई बार राम -राम हो जाया करती थी । एम ० ए ० प्रथम वर्ष का परीक्षाफल आ गया । उस समय 1955 के आसपास आगरा विश्वविद्यालय का क्षेत्र बहुत विस्तृत था और उससे सैकड़ों कालेज सम्बंधित थे । उन दिनों प्रथम वर्ष में तीन पत्र होते थे । और द्वितीय वर्ष में पांच । पांच इसलिए कि चार प्रश्नपत्र लिखित होते थे और एक वायवा वोसे । इन तीन प्रश्नपत्रों के आधार पर मैं अपनी कक्षा में प्रथम तथा रमण सिंह द्वितीय स्थान पर थे । हम दो ही विद्यार्थी सेकेण्ड क्लास से ऊपर निकल सके थे । बाकी सभी उस विभाजक रेखा से नीचे रह गए थे । रमण सिंह नें फिर पक्का निश्चय किया कि वे किसी भी प्रकार मुझे पछाड़कर रहेंगें । आखिर वे फ़ौज के रिटायर्ड हवलदार थे । मैनें एकाध बार देखा कि वे अँग्रेजी विभाग में हाल ही में लगाये गये एक तरुण प्राध्यापक के साथ दोस्ती बढानें लगे थे । सुना जाता था कि उस प्राध्यापक को सुरापान का चस्का है और रमण सिंह जो सेना से इस विरासत को पा ही चुके थे । शिव दत्त अवस्थी केवल पास होनें की लाइन पर पहुँच पाये थे और रूरा जाकर उन्हें यह बताना कि वे मेरे से पीछे रह गयेहैं ,सम्भवतः उन्हें अरुचिकर लगा होगा पर कानपुर में वे मेरे पास आने लगे और उन्होंने चाहा कि मैं उन्हें पढानें का कोई काम दिला दूं । दरअसल मेरे विषय में यह मशहूर हो गया था कि मैं कई अध्यापिकाओं का शिक्षक हूँ और अन्य कई पढने को आतुर हैं । उन्होंने चाहा कि वे किसी ऐसी ही शिक्षा प्रेमी और तरुण अध्यापिका के शिक्षक के रूप में स्थापित हो जाये ताकि उनको अपनें ज्ञान प्रदर्शन का मौक़ा मिल सके । । वे ब्याहता तो थे ही इसलिये उनके भटक जानें का अन्देशा नहीं हो सकता था । उन दिनों अँग्रेजी एम ० ए ० का प्रथम वर्ष पास करना भी पढ़े -लिखे समाज में एक बड़ी बात मानी जाती थी । आज की तरह के प्रश्न पत्र नहीं होते थे जिनमें टिक मार्क या हाँ अथवा न के आधार पर एक में से एक नम्बर मिल जाता है । निबन्ध के रूप में लिखे गये लम्बे उत्तरों के लिये व्याकरण सम्मत अच्छी अँग्रेजी लिखना आवश्यक थी और अँग्रेजी के स्थापित अध्यापक दस में से छः नम्बर तभी देते थे जब वह उत्तर उन्हें अपनें स्तर का लगता था । मैनें सोचा कि शिवदत्त जी मेरी ससुराल रूरा से हैं और मुझे कई अध्यापिकाओं के यहाँ शिक्षक के रूप में जाते देखकर ईर्ष्यावश कुछ उल्टी -सीधी बातें मेरी ससुराल में न कहने लगें ,इसलिए मैनें उन्हें सरला माथुर नाम की एक प्राईमरी अध्यापिका के यहां शान्ति निगम से सिफारिश करवाकर ट्यूटर के रूप में नियुक्त करवा दिया । यह मेरी एक बड़ी गलती थी जिसका अहसास मुझे बाद में हुआ । इस बीच मेरी मैत्री अपने कुछ सहपाठियों से गहरी हो आयी थी । जिनमें एक थे श्री कान्त दीक्षित जो छिबरामऊ से थे । वे अपनें गाँव के कई लड़कों के साथ ,जो भिन्न -भिन्न क्लासों में पढ़ते थे एक बड़ा मकान किराये पर लेकर रह रहे थे । उन्होंने सम्मिलित रूप से एक खाना बनानें वाला लगा लिया था । दीक्षित अक्सर बड़े आग्रह के साथ मुझे कमरे में ले जाता और वहीं मेरे खाने -पीनें की व्यवस्था हो जाती । कक्षा के कुछ अन्य साथी तथा एम ० काम ० व एम ० ए ० के अन्य विषयों के विद्यार्थी वहाँ इकठ्ठे हो जाते और हम सब घण्टों बैठे अपनी भविष्य की योजनायें बनाया करते । एम ० ए ० पास करने के बाद अँग्रेजी अध्यापक के रूप में नियुक्ति लगभग निश्चित होती थी और यदि डिवीजन यदि रह भी जाये तो बी ० एड ० या एल ० टी करके हाई स्कूल शिक्षक के रूप में प्रवेश करना लगभग पक्का ही था । अच्छे विद्यार्थी जिनके परिवार में नौकरियों का कोई ज्ञान और परम्परागत अनुभव था ,चाहते थे कि उनके बच्चे किन्हीं प्रभावशाली सरकारी नौकरियों में प्रवेश लें , न कि शिक्षक बनें । पर जहां किसी ने कभी अन्य नौकरी के विषय में जाना ही न हो वहां शिक्षक बननें का स्वप्न ही उनींदी आँखों में उतरता था । मैं अभी तक धोती -कुर्ता ही पहनता था और न जाने क्यों पैन्ट व शर्ट के प्रति मुझमें अभी तक कोई लगाव नहीं आया था । इसका एक कारण बंगाली संस्कृति के प्रति मेरा सम्मान भी कहा जा सकता है । बंगाली प्रोफेसर ,वकील व विचारक अँग्रेजी के धुरन्धर विद्वान होकर भी धोती कुर्ता का अपना पहनावा नहीं छोड़ते थे । साथ ही स्वतन्त्रता संग्राम की स्मृति अभी ताजी थी और धोती कुर्ता का पहनावा राष्ट्रीयता से निकट का रिश्ता कायम करता था । शरत चन्द्र के उपन्यास ,बंकिम और रवीन्द्र की मानवीय सम्बेदना से ओत -प्रोत रचनाएँ मुझे बंगाली संस्कृति को भारतीय संस्कृति के प्रतीक के रूप में स्वीकार करनें को प्रेरित करती थी । विमल राय की फिल्म देवदास में दिलीप कुमार का धोती -कुर्ता का पहनावा मेरे मन को छू लेता था । मुझे ऐसा लगने लगा था कि मेरे सहपाठी भी मेरे पहरावे से प्रभावित हैं । क्योंकि नम्बरों की द्रष्टि में उनमें सबसे आगे रहकर भी मैं अभी तक खान -पान व पहरावे में ग्राम्य जीवन से जुड़ा था । समय तेजी से चल रहा था । एम ० ए ० प्रथम वर्ष के शिक्षा सत्र के बीच ही कालेज का दीक्षान्त समारोह आयोजित हुआ । अँग्रेजी व गुजराती के प्रख्यात लेखक व उस समय उत्तर प्रदेश के राज्यपाल कन्हैया लाल माणिक लाल मुन्शी मुख्य अतिथि बन कर आये । भारतीय संविधान के प्रबुद्ध रचनाकारों में उनकी गिनती होती थी । उनसे हाँथ मिलाकर मुझे गर्व का अनुभव हुआ । अन्तिम वर्ष में मैं एकाध बार बकोठी में गया और शायद कुछ दिनों के लिये कैंझरी में कमला के यहां । मैं अपनी पत्नी को घर का सारा काम -काज ,बच्चों की सम्भाल और चौका -बर्तन करते पाता तो मुझे अत्यन्त खुशी होती कि वे अपनी बड़ी ननद की सेवा कर रही हैं । मेरी माँ यही चाहती थीं और उस समय की ब्राम्हण व्यवस्था का यही स्वीकृत स्वरूप था ,पर सम्भवतः मेरी पत्नी इससे पूरी तरह से सन्तुष्ट नहीं थीं और उनकी बातचीत में मुझे असन्तोष की झलक मिलती थी । पर किया भी क्या जा सकता था ? जो हालात थे ,उनमें बहन को निराधार छोड़ देना घोर स्वार्थ के अतिरिक्त और क्या होता । माता जी के प्रयासों और सम्भवतः रिश्वत की ताकत पर कमला का चयन प्रशिक्षण के लिये कर लिया गया । उन्हें एक वर्ष की अवैतनिक छुट्टी लेनी पडी और नर्वल में उनका एक वर्ष का वर्नाकुलर टीचर प्रशिक्षण का कार्यक्रम हुआ । हाई स्कूल में उनके पास अँग्रेजी भी थी और यह भी एक कारण उनके चयन में सहायक रहा होगा । वे नर्वल में हॉस्टल में रहतीं ,मेस में खाना खातीं ,और पढ़ाई लिखाई करतीं । बच्चे गान्धी नगर में जीजा जी के पास थे ,जहां किराए के दो कमरो में रहकर मेरी पत्नी उनकी देख -रेख करती रहती । हरसहांय जगदम्बा संहाय कालेज में मेरे बहुत अनुनय -विनय के बाद प्रिन्सिपल महोदय इस बात पर राजी हो गये कि राजा को इण्टर परीक्षा में बिठा दिया जाये। दो वर्षों में से एक वर्ष की भी उनकी हाजरी पूरी न थी ,पर स्कूल प्रशासन उनसे तंग था और मुक्ति चाहता था । एम ० ए ० का परीक्षा परिणाम आ गया । इस बार रमण सिंह नें तीन नम्बरों से मुझे पछाड़ दिया । हम दो ही द्वितीय श्रेणी हासिल कर सके थे ,पर उन्होंने मुझे कैसे और क्योंकर मात दी,इसका राज बाद में उन्होंने स्वयं बताया । लगभग दस वर्ष बाद जब मैं पंजाब के एक कालेज में अँग्रेजी का अध्यापक था और रामगढ़ में प्रिंसिपल के कन्डीडेट के रूप में वे साक्षात्कार दे चुके थे ,तब मेरी मुलाक़ात उनसे कानपुर सेन्ट्रल स्टेशन पर हो गयी । सहपाठी होनें की भावना उस समय उनके मन को ईर्ष्या मुक्त कर चुकी थी और उन्होंने जो कुछ कहा वह इस प्रकार है -पंडित जी आप तो जानते ही हैंकि उन दिनों कालेज में अँग्रेजी के नये प्राध्यापक ठाकुर नरेन्द्र सिंह नियुक्त हुये थे । हम दोनों ही परमार क्षत्रिय हैं । हमें खाने -पीनें का शौक है और क्षत्रिय परिवारों में मांस और मदिरा चलती ही है । ठाकुर नरेन्द्र मेरी उम्र के थे और हम दोनों की दोस्ती बढ़ती गयी । बातचीत में मैनें उन्हें बताया कि विष्णु मुझे कुछ नम्बरों से सदैव पछाड़ देता है और अँग्रेजी की एम ० ए ० कक्षा के अधिकाँश विद्यार्थी ब्राम्हण हैं और मैं उनके लिये हँसी का पात्र बन जाता हूँ । फाइनल में भी हम दोनों के पेपर एक जैसे हुये हैं और मैं समझता हूँ कि विष्णु दस -बारह नम्बरों से मुझसे आगे रहेगा । नगेन्द्र नें कहा कि कुछ भी हो जाये ,अन्तिम परिणाम आने तक अपनें ठाकुर भाई को पण्डित से जरूर आगे कर देंगें । हाँलाकि वे ठाकुर होनें के नाते वे पण्डित का कोई अहित नहीं चाहते । (क्रमशः )
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