मातृ आँचल
स्नेहमयी माँ के आँचल का है पुनीत हर छोर
खण्ड द्रष्टि से बचकर रहना मेरे तरुण किशोर
उत्तर के रजत कँगूरों के निःसृत पय से
मुस्करा उठी मरुथल की धरती भूखी
पूरब की पुरवैय्या झोकों से मिलकर
लहलहा उठी जो फसल धान की सूखी
दक्षिण की नील हिलोरों पर सन्देश भेज
भारत युग -युग तक जगत गुरू कहलाया
पश्चिम के द्वारों पर कल ही तो साथी
भारती खड्ग पूरी लय पर लहराया
उत्तर दक्षिण पूरब पश्चिम बिखरी सोनें की माटी
है कहाँ सांवली साँझ कहाँ ऐसा सिन्दूरी भोर
स्नेह मयी माँ के आँचल का है पुनीत हर छोर
खण्ड द्रष्टि ...........................
मोर कपोत सारिका शुक वक पुलक पँख फैलाते
बदल बदल कर ऋतुयें आतीं पहन वेष अलबेला
वन चादर सावन में ढकती तारों की फुलवारी
दूध बहाती पावन धरती पा कार्तिक की बेला
डर से ठिठुर वारि हिम बनता पौष दण्ड का स्वामी
सौरभ का भण्डार लुटाता है ऋतुराज सुहाना
गरम उसासें भरता रहता ज्येष्ठ सदा का प्यासा
भग्न ह्रदय नद ताल बता देते हैं उसका आना
तप्त धरित्री की छाती पर शीतल लेप लगाने
उमड़ -घुमड़ कर तब अषाढ़ के मेघ मचाते शोर
स्नेहमयी माँ के आँचल का है पुनीत हर छोर
खण्ड द्रष्टि ...........................
देवलोक से जलधितीर तक माँ विराट बहुरूपा
रावी व्यास सिन्धु सुर सरिता धन्य नर्मदा धारा
अंग बंग पांचाल चेदि कुरु हैं माला के दानें
परशुनोक से निकला केरल तमिल देश अति प्यारा
तीन समुद्रों के संगम पर टिकी शिला से योगी
देख सका था कंचन जंगा का हिम मुकुट सुहाना
कामरूप से कच्छतीर तक चित्र उभर कर आया
महारूप को पावन माँ के तब उसनें पहचाना
वह समग्र युग श्रष्टि जगाने तोड़ो तुच्छ घरौन्दे
मातृ -भक्ति की ह्रद- समुद्र में लहरें मह- हिलोरे
स्नहमयी माँ के आँचल का है पुनीत हर छोर
खण्ड द्रष्टि से बचकर रहना मेरे तरुण किशोर ।
स्नेहमयी माँ के आँचल का है पुनीत हर छोर
खण्ड द्रष्टि से बचकर रहना मेरे तरुण किशोर
उत्तर के रजत कँगूरों के निःसृत पय से
मुस्करा उठी मरुथल की धरती भूखी
पूरब की पुरवैय्या झोकों से मिलकर
लहलहा उठी जो फसल धान की सूखी
दक्षिण की नील हिलोरों पर सन्देश भेज
भारत युग -युग तक जगत गुरू कहलाया
पश्चिम के द्वारों पर कल ही तो साथी
भारती खड्ग पूरी लय पर लहराया
उत्तर दक्षिण पूरब पश्चिम बिखरी सोनें की माटी
है कहाँ सांवली साँझ कहाँ ऐसा सिन्दूरी भोर
स्नेह मयी माँ के आँचल का है पुनीत हर छोर
खण्ड द्रष्टि ...........................
मोर कपोत सारिका शुक वक पुलक पँख फैलाते
बदल बदल कर ऋतुयें आतीं पहन वेष अलबेला
वन चादर सावन में ढकती तारों की फुलवारी
दूध बहाती पावन धरती पा कार्तिक की बेला
डर से ठिठुर वारि हिम बनता पौष दण्ड का स्वामी
सौरभ का भण्डार लुटाता है ऋतुराज सुहाना
गरम उसासें भरता रहता ज्येष्ठ सदा का प्यासा
भग्न ह्रदय नद ताल बता देते हैं उसका आना
तप्त धरित्री की छाती पर शीतल लेप लगाने
उमड़ -घुमड़ कर तब अषाढ़ के मेघ मचाते शोर
स्नेहमयी माँ के आँचल का है पुनीत हर छोर
खण्ड द्रष्टि ...........................
देवलोक से जलधितीर तक माँ विराट बहुरूपा
रावी व्यास सिन्धु सुर सरिता धन्य नर्मदा धारा
अंग बंग पांचाल चेदि कुरु हैं माला के दानें
परशुनोक से निकला केरल तमिल देश अति प्यारा
तीन समुद्रों के संगम पर टिकी शिला से योगी
देख सका था कंचन जंगा का हिम मुकुट सुहाना
कामरूप से कच्छतीर तक चित्र उभर कर आया
महारूप को पावन माँ के तब उसनें पहचाना
वह समग्र युग श्रष्टि जगाने तोड़ो तुच्छ घरौन्दे
मातृ -भक्ति की ह्रद- समुद्र में लहरें मह- हिलोरे
स्नहमयी माँ के आँचल का है पुनीत हर छोर
खण्ड द्रष्टि से बचकर रहना मेरे तरुण किशोर ।
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