Tuesday, 17 January 2017

मातृ आँचल

मातृ आँचल 

स्नेहमयी माँ के आँचल का है पुनीत हर छोर 
खण्ड द्रष्टि से बचकर रहना मेरे तरुण किशोर 
उत्तर के रजत कँगूरों के निःसृत पय से 
मुस्करा उठी मरुथल की धरती भूखी 
पूरब की पुरवैय्या झोकों से मिलकर 
लहलहा उठी जो फसल धान की सूखी 
दक्षिण की नील हिलोरों पर सन्देश भेज 
भारत युग -युग तक जगत गुरू कहलाया 
पश्चिम के द्वारों पर कल ही तो साथी 
भारती खड्ग पूरी लय पर लहराया 
उत्तर दक्षिण पूरब पश्चिम बिखरी सोनें की माटी 
है कहाँ सांवली साँझ कहाँ ऐसा सिन्दूरी भोर 
स्नेह मयी माँ के आँचल का है पुनीत हर छोर 
खण्ड द्रष्टि ...........................
मोर कपोत सारिका शुक वक पुलक पँख फैलाते 
बदल बदल कर ऋतुयें आतीं पहन वेष अलबेला 
वन चादर सावन में ढकती तारों की फुलवारी 
दूध बहाती पावन धरती पा कार्तिक की बेला 
डर से ठिठुर  वारि हिम बनता पौष दण्ड का स्वामी 
सौरभ का भण्डार लुटाता है ऋतुराज सुहाना 
गरम उसासें भरता रहता ज्येष्ठ सदा का प्यासा 
भग्न ह्रदय नद ताल बता देते हैं उसका आना 
तप्त धरित्री की छाती पर शीतल लेप लगाने 
उमड़ -घुमड़ कर तब अषाढ़ के मेघ मचाते शोर 
स्नेहमयी माँ के आँचल का है पुनीत हर छोर 
खण्ड द्रष्टि ...........................
देवलोक से जलधितीर तक माँ विराट बहुरूपा 
रावी व्यास सिन्धु सुर सरिता धन्य नर्मदा धारा 
अंग बंग पांचाल चेदि कुरु हैं माला के दानें 
परशुनोक से निकला केरल तमिल देश अति प्यारा 
तीन समुद्रों के संगम पर टिकी शिला से योगी 
देख सका था कंचन जंगा का हिम मुकुट सुहाना 
कामरूप से कच्छतीर तक चित्र उभर कर आया
महारूप को पावन माँ के तब उसनें पहचाना 
वह समग्र युग श्रष्टि जगाने तोड़ो तुच्छ घरौन्दे 
मातृ -भक्ति की ह्रद- समुद्र में लहरें मह- हिलोरे
 स्नहमयी माँ के आँचल का है पुनीत हर छोर 
खण्ड द्रष्टि से बचकर रहना मेरे तरुण किशोर ।

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