Sunday, 15 January 2017

अनन्त प्रतीक्षा

लो उठाता हाँथ हूँ मैं
आज देने को समर्थन पौद को
जो विप्लवी है
तुम चढ़ाओगे मुझे फाँसी
चढ़ा दो
तुम सुई की नोक से तन छेद मेरा
बर्फ सिल्ली पर लिटाकर
नाजियों पर नाज कर लो
या
अँधेरे भुंइघरे में
बन्द कर दो मुझे मेरी चिन्तना को
राज कर लो- और कुछ दिन   
फिर सुलगती पेट की यह आग
आँखों  से झरेगी   
वैश्या युग -सभ्यता तब
ताप से जलकर मरेगी ।
मुँह न जनता को दिखा पाते
बिना बन्दूक का परकोट डाले
पर बिकी बन्दूक भी
कल जान जायेगी असलियत
जब स्वयं औलाद उसकी
काम मागेगी
न सारा राज्य ,केवल ग्राम मांगेगी
मगर
सड़ती व्यवस्था का सुयोधन
दर्प की ललकार देगा
सूचिका की नोक भर धरती न देकर
गोलियों का हार देगा
तब
बिकी बन्दूक की नालियाँ मुड़ेगीं
रूप जीवा सभ्यता की
लिजलिजी परते उड़ेंगीं ।
मैं उसी दिन की प्रतीक्षा में
अभी तक जी रहा हूँ ।

                                        






















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