..................................स्पष्ट था कि गाड़ी नदी के पार नहीं जा सकती थी । डोंगी चलाने वाले मल्लाह नें बताया कि पुल पार से आने के लिये दो कोस का चक्कर लगाना होगा । अन्धेरा हो चला था । नदी के कटानों पर बीहड़ झाड़ -झंखाड थे। अनजान रास्ता । बैल जाने को तैयार नहीं । ललुआ मामा नें कहा कि वे गाड़ी के साथ इस पार ही रात बिता लेंगें और बाकी लोग डोंगी से चले जाँयें । केवट नें कहा कि सामान के साथ सभी लोग एक बार में पार नहीं जा सकते । उसे दो बार की उतराई चाहिये थी । न तो वह अयोध्या वाला केवट था और न हम राजसी परिवार के व्यक्ति । इस घटना की याद करते ही मुझे आज भी श्री राम के नदी पार के सम्बन्ध में केवट द्वारा गायी जानें वाली राधेश्याम रामायण की पंक्ति याद आ जाती है । " मल्लाह कहीं मल्लाहों से मल्लाही लेते हैं भैया ।"पर माँ को दो बार की मल्लाही देनी ही पडी -दो आना अर्थात एक आना प्रति फेरा तथा यह भी बहुत चिरौरी विनती के बाद क्योंकि वह तो एक फेरे के तीन टके मांग रहा था । यहाँ यह बताना अप्रांसगिक नहीं होगा कि उन दिनों एक रुपये में सोलह आने होते थे और इकन्नी में चार पैसे । चौसठ पैसे वाला यह रुपया आज की मूल्यवृद्धि के सन्दर्भ में आज के रुपये से कम से कम चौंसठ गुना वजनदार तो था ही । एक पैसा पाकर हमें आधा पाव जलेबी मिल जाती थी । आज वह ज़माना सोच कर सहसा विश्वास नहीं होता कि उस समय पन्द्रह रुपये का वेतन एक सामान्य मध्य वर्गीय जीवन की सुविधायें जुटा सकता था । कमला बहन और मैं शिवली से चले थे इस फैसले के साथ कि हम लोग गाड़ी वापसी में ललुआ मामा के साथ वापिस आकर कक्का के साथ रहते हुये पढ़ाई जारी रखेंगें पर अब कुछ सोच समझकर माँ नें यह फैसला बदल दिया और कहा कि हम दोनों उन्हीं के साथ रहेंगें । माता जी नें ललुवा मामा को पाँच रुपये का मेहनताना दिया और कहा कि कक्का से कह देना कि खेतों की देखभाल करें और खाना बनानें में तकलीफ हो तो पड़ोस में रह रही दूर की रिश्ते की चाची फूलमती से खाना बनवा ले । यह भी कहलवा दिया कि हम पाँचों प्राणी दशहरे और दीवाली के बीच में गाँव का चक्कर लगायेंगें । इसके बाद घटवार बाबा की पूजा की गयी । नदी के दोनों किनारों पर ईंटों के एक छोटे घेर पर एक काले कलूटे अनगढ़ पत्थर के देव बैठे हुये थे । दोनों ओर से आने वाला अपनी -अपनी तरफ से घटवार बाबा पर एक पैसा चढ़ाकर अपना माथा नवाता था । ऐसा करनें पर ही मल्लाह सकुशल पार पहुँचा जा सकेगा , यह मान्यता थी । पहली खेप में सामान रखा गया और कमला तथा मैं पार ले जाये गये । दूसरी खेप में बचा सामान ,छोटे राजा ,गोद के हरि नारायण माँ के साथ दूसरी ओर आ गये । बढी हुयी नदी में नाव पर चलनें का यह मेरा पहला अनुभव था । लहरों पर डगमगाती नांव और बल्लों से खेते हुये मल्लाह की पुष्ट बाँहें हम सबको रोमाँचित करती रहीं । ललुवा मामा दूसरी ओर से हमें पार उतरते देखते रहे । उन्होंने कहाँ और कैसे रात बितायी और कैसे घर वापिस गये ,यह वे जानें पर वे वापस अवश्य पहुँच गये थे क्योंकि कक्का को सन्देश मिल गया था । नदी के दूसरे किनारे से थोड़ी ही दूर झाड़ -झंखाड़ों और पेड़ों से घिरे एक ऊँचें टीले पर दुर्वासा ऋषि का आश्रम था । भारत के न जानें कितनें स्थानों पर दुर्वासा ऋषि के आश्रम होनें की बात कही जाती है , पर लड़कपन में उस बीहड़ व ऊबड़ -खाबड़ स्थान पर उनके आश्रम को देखकर मुझे महसूस हुआ कि शायद यही उनका सच्चा आश्रम होगा क्योंकि आश्रम की भौगोलिक स्थिति मुझे उनके नाम के साथ संगत होती जान पडी अब प्रश्न था कि 500 गज दूर निगोही गाँव के स्कूल तक हमारे आने की खबर कैसे पहुंचे ? सौभाग्यवश केवट ,जो उसी गाँव का था ,उसकी नौ -दस वर्ष की लड़की और आठ -नौ वर्ष का लड़का वहाँ उपस्थित थे और दोनों को गाँव जाना था । वे दोनों प्राइमरी स्कूल के निचली कक्षाओं के विद्यार्थी थे । स्कूल में उस समय एक अध्यापिका और एक अंशकालीन खादिमा थी । लड़की जिसका नाम राजवन्ती था और जो रज्जो कहकर बुलायी जाती थी ,नें कहा कि कमला और मैं उसके साथ स्कूल तक चलें । वहाँ खादिमा चाची होंगीं और खबर पानें पर वे नयी अध्यापिका को लेनें के लिये नदी के किनारे आ जायेंगीं । और कोई चारा न था और यह योजना पूरी तरह सफल रही । स्कूल की अकेली शिक्षिका जो मुख्य अध्यापिका भी थी नें पूरा सहयोग दिया । उन्होंने न केवल खादिमा को भेजा ,बल्कि अपने बड़े भाई को बैलगाड़ी के साथ माताजी तथा सामान को लेनें के लिये नदी किनारे भेज दिया । किशोरी मौसी उसी गाँव की थीं ,पर दुर्भाग्यवश वे भी उच्चकुलीन निसंतान विधवा थीं । वे अपने बड़े भाई के परिवार के साथ रह रहीं थीं । हम लोगों नें वह रात किशोरी मौसी के भाई कृष्णा मामा के घर बितायी । स्कूल में केवल दो कमरे थे और बाहर की ओर छप्पर पड़ा था । आगे काफी मैदान था ,पर अभी तक चहारदीवारी नहीं बनी थी । उन दोनों कमरों और छप्पर तले कक्षा अ ब और एक से लेकर चौथी तक की कक्षाएँ लगती थीं । मेरी माँ की नियुक्ति इसलिये हुयी थी कि अब दस ग्यारह लडकियां कक्षा पाँच में प्रवेश कर रही थीं और काम का बोझ कई अध्यापिकाओं की माँग करता था । पर जिला बोर्ड के पास शिक्षा के लिये पैसा कहाँ ? गाँव वालों के बहुत झख मारने पर जिला बोर्ड के किसी सदस्य की सिफारिश पर एक अतिरिक्त शिक्षिका का पद सृजित हुआ था । और उसी पर माता जी की नियुक्ति हुयी थी । जिला बोर्ड छः छः माह तक वेतन नहीं दे पाता था ,फिर मकान किराया दे पाना एक असंभ्भव कल्पना थी । तो फिर कहाँ रहें ?तनख्वाह के पैसे से ही ,चाहे जब मिले ,कुछ कांट -छांट कर मकान किराया निकाला जा सकता था । भारत के गाँव आज भी गरीबी के लिये दुनियाँ में चर्चित हैं और उस समय तो दरिद्रता तो अधिकाँश ग्राम्य जन -जीवन का एक चिरन्तन श्रृंगार बन गयी थी जिसे धर्म और दर्शन के नाम पर लोग ईश्वर की कृपा मान कर ले रहे थे । पोंगा पण्डितों नें कथाओं और प्रसंगों द्वारा यह साबित कर दिया था कि प्रभु कृपा दरिद्रता से सम्बंधित है और वह अपना समय पूजा -पाठ में लगायें ताकि उनका अगला जीवन संभल जाये । ऐसी हालत में ब्रम्हादीन ब्रह्मभट्ट के घर दो रुपये माह में दो कच्चे कमरों का मकान मिल जाना कोई बड़ी बात न थी ,घर पर ही कुंआ था और यह एक अतिरिक्त सुविधा थी । संयोग से उनके दो पुत्र बड़ा कविराज तथा छोटा ऋषिराज ,कुछ साहित्यिक प्रकृति के थे और मुझे अब तक उनकी तुकबन्दी से अपनें अत्यन्त प्रभावित होनें की बात याद है ? ऐसा लग रहा था कि सभी कुछ ढर्रे पर चल निकला है ,पर विपत्ति जब आती है तो अकेले नहीं आती । गोद का छोटा भाई एक दो दिन बाद ही पतली टट्टी करनें लगा और ज्वर ग्रसित हो गया । ब्रह्मभट्ट जी खुद थोड़ी -बहुत वैद्यक जानते थे । उन्होंने दो तीन दिन तक दूध के साथ पुड़िया बनायी हुयी दवाएं दीं । पर ,हालत बिगड़ती गयी । जो कुछ मुँह में जाता ,निरवंग पानी बनकर गुदा द्वार से निकल जाता । आखिरकार ब्रह्मभट्टजी कृष्ण बिहारी ओझा को ले आये । वे उस गाँव के धन्वन्तरी मानें जाते थे । उन्होंने एक पुड़िया खाने को दी । हालत और गंभीर हो गयी । उनकी और ब्रह्मभट्ट की राय हुयी कि हरि को दुर्वासा आश्रम ले जाया जाये ,जहाँ एक बाबा झाड़ -फूंक का काम करते थे । आश्रम गाँव से दो तीन फर्लांग की दूरी पर तो था ही । माताजी हरि को गोद में लेकर चल पड़ीं । बच्चा बिलख बिलख कर रो रहा था और हाथ -पैर मार रहा था । (क्रमशः )
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