प्राणों की महावर
अर्चना की सुरभि प्राणों की महावर बन गयी जब ,
देह की आराधना का अर्थ ही क्या ?
सांस का सरगम विसर्जन गीत का ही साज है ,
मृत्तिका के घेर में क्या बंध सका आकाश है ,
चाह पंख पसार जब पहुँचीं क्षितिज के छोर तक
मिट गया आभाष कोई दूर है या पास है ।
बंध गयी जो चाह मरू का थूह ,कारावास है
मुक्त मन खग ज्योति मग पर लहरने दो
काल के उस पार अनभ अकाल तक
आस्था के चरण कवि के ठहरने दो
पुरा गाथा में लहरती सृष्टि की उदभव कहानी
प्यार की चिर साधना थी व्यर्थ ही क्या ?
अर्चना की सुरभि .............
देह की हर चाह बस शमशान जाती
राख के वर्तुल बगूले घूमते हैं
शून्यता मानव नियति का अन्त बनती
हो वधिर ,विक्षिप्त मद्यप झूमते हैं
देह के जो पार अमर निदेह कांक्षा
स्वस्ति का शुभ वृत उसी का राग है
रंग रहे चोला चहेते चाह के मद -मस्त जन
किन्तु अमर अनित्य केवल प्राण का ही फाग है
अमिर आमन्त्रण मनुजता दे रही जब प्यार का
खण्ड -धर्मी हीन कर्मी भावना का अर्थ ही क्या ?
अर्चना की सुरभि .....................
आज मंगल ,शुक्र से कल ज्योति पथ के पार से
और कल के पार ताराहीन धवल प्रसार से
हम सभी हैं पुत्र धरती के यही आवाह्न होगा
तब हमें मानव नियति का झिलमिला सा भान होगा
उस महा आभाष की प्रत्यूष बेला आ चुकी है
खण्ड धर्मी देह बन्धित चेतना निःसार है
राष्ट्र की सीमा गगन का छोर पीछे छोडती है
ऊर्ध्व-कामी हर पुलक की कामना ही प्यार है
आज वामन नर डगों में अन्तरिक्ष समों रहा
टिमटिमाती तारिका पद -वन्दना का अर्थ ही क्या
'पिण्ड में ब्रम्हाण्ड है 'यह आर्ष वाणी
सृष्टि के हर तार पर चिर सत्य की झंकार है
आज विघटन की दलीलें सिर पटक कर रो रही हैं
हर जनूनी अन्धता की यह करारी हार है
कल मनुज तारा पथों पर स्वतः चालित -यान दोलित
ज्योति -नगरों में जगायेगा नयी पहचान के स्वर
श्याम ,पाण्डुर ,श्वेत ,लोहित वर्ण ,हिलमिल रहेंगें ,
तपश्चरण प्रधान होगा फिर मिलेंगें नये वर
उठ रहा हो जब त्रिकाली आशुतोषी नाद डिमडिम
क्षणिक जीवी रंजना का अर्थ ही क्या ?
अर्चना की सुरभि प्राणों की महावर बन गयी जब ,
देह की आराधना का अर्थ ही क्या ?
सांस का सरगम विसर्जन गीत का ही साज है ,
मृत्तिका के घेर में क्या बंध सका आकाश है ,
चाह पंख पसार जब पहुँचीं क्षितिज के छोर तक
मिट गया आभाष कोई दूर है या पास है ।
बंध गयी जो चाह मरू का थूह ,कारावास है
मुक्त मन खग ज्योति मग पर लहरने दो
काल के उस पार अनभ अकाल तक
आस्था के चरण कवि के ठहरने दो
पुरा गाथा में लहरती सृष्टि की उदभव कहानी
प्यार की चिर साधना थी व्यर्थ ही क्या ?
अर्चना की सुरभि .............
देह की हर चाह बस शमशान जाती
राख के वर्तुल बगूले घूमते हैं
शून्यता मानव नियति का अन्त बनती
हो वधिर ,विक्षिप्त मद्यप झूमते हैं
देह के जो पार अमर निदेह कांक्षा
स्वस्ति का शुभ वृत उसी का राग है
रंग रहे चोला चहेते चाह के मद -मस्त जन
किन्तु अमर अनित्य केवल प्राण का ही फाग है
अमिर आमन्त्रण मनुजता दे रही जब प्यार का
खण्ड -धर्मी हीन कर्मी भावना का अर्थ ही क्या ?
अर्चना की सुरभि .....................
आज मंगल ,शुक्र से कल ज्योति पथ के पार से
और कल के पार ताराहीन धवल प्रसार से
हम सभी हैं पुत्र धरती के यही आवाह्न होगा
तब हमें मानव नियति का झिलमिला सा भान होगा
उस महा आभाष की प्रत्यूष बेला आ चुकी है
खण्ड धर्मी देह बन्धित चेतना निःसार है
राष्ट्र की सीमा गगन का छोर पीछे छोडती है
ऊर्ध्व-कामी हर पुलक की कामना ही प्यार है
आज वामन नर डगों में अन्तरिक्ष समों रहा
टिमटिमाती तारिका पद -वन्दना का अर्थ ही क्या
'पिण्ड में ब्रम्हाण्ड है 'यह आर्ष वाणी
सृष्टि के हर तार पर चिर सत्य की झंकार है
आज विघटन की दलीलें सिर पटक कर रो रही हैं
हर जनूनी अन्धता की यह करारी हार है
कल मनुज तारा पथों पर स्वतः चालित -यान दोलित
ज्योति -नगरों में जगायेगा नयी पहचान के स्वर
श्याम ,पाण्डुर ,श्वेत ,लोहित वर्ण ,हिलमिल रहेंगें ,
तपश्चरण प्रधान होगा फिर मिलेंगें नये वर
उठ रहा हो जब त्रिकाली आशुतोषी नाद डिमडिम
क्षणिक जीवी रंजना का अर्थ ही क्या ?
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