Monday, 16 January 2017

सायं दर्शन

सायं दर्शन 

अस्तंगत रवि ,धूमिल मग लौटे नभ चारी 
रजत रेख ,हिम श्वेत वेष चलनें की बारी 
सप्त दशक उड़ गये काल के पंख लगाये 
कौन अपरचित किस सुदूर से मुझे बुलाये 
ठहरो हे अनजान ,अभी जग प्यारा लगता 
पार्थिव बोध सभी बोधों से न्यारा लगता 
काम कल्पना अभी न तन की 
त्याग वृत्ति से हारी 
रजत रेख , हिम श्वेत वेष चलनें की वारी 
रूप - रंग की सतरंगी चूनर का जात्य सुहाना 
ठिठक किशोरी के द्वारे पर नव यौवन का आना 
खिलते फूल लहरते आँचल अभी उमंग उकसाते 
प्रिय -वियोग स्मृति में रह रह नयन आद्र हो जाते 
मिलन विरह की याद जगाती अब तक किरन कुंवारी 
रजत रेख ,हिम श्वेत वेष चलनें की वारी 
भव वारिधि में तरिणी चलाना अब तक मन को भाता 
अभी मोक्ष के दिवा -स्वप्न से जुड़ा न अपना नाता 
तरुण कल्पना वर्ष -भार से हुयी न अब तक वृद्धा 
अभी धरित्री की साँसों में पलती मेरी श्रद्धा 
पी जीवन विष भी मेरा शिव बन न सका संहारी .......
रजत रेख , हिम श्वेत वेष चलनें की बारी 
चंचल चपल उर्मियों में मन लहर -लहर लहराता 
जीर्ण वस्त्र हों तो क्या तन का मन से ही तो नाता 
बहु चर्चित जो दिब्य- सनातन तन से अलग कहाँ है 
पगली राधा वहीं मिलेगी छलिया कृष्ण जहाँ है 
सार -भष्म पा दीप्ति रसायन बनी स्वर्ण चिनगारी 
रजत रेख ,हिम श्वेत वेष चलनें की बारी 
हाड मॉस के इस जीवन से प्यार न अब तक छूटा 
टूटी ज्ञान कमान राग का तार न अब तक टूटा 
व्यर्थ नहीं वार्धक्य सांध्य -सुषमा की छटा निराली 
न्योछावर हो जाती इसपर तरुण रक्त की लाली 
मुक्ति नटीबांहों में बांधें घूमें मदन मदारी 
रजत रेख ,हिम श्वेत वेष चलनें की बारी ।




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