Sunday, 15 January 2017

 .......................मेरे पिता के दिवँगत होनें और माताजी की अध्यापकी का आदेश आने के बीच लगभग डेढ़ दो वर्ष का अन्तराल रहा होगा । इस बीच हम बच्चे कुछ बड़े हो गये थे । बड़ी बहन कमला नौ वर्ष ,मैं सात वर्ष और मुझसे छोटा पाँच वर्ष और सबसे छोटा तीन वर्ष के आस -पास रहा होगा । अध्यापकी का आदेश आने में इतना समय इसलिये लगा क्योंकि इस दौरान माताजी को अपर प्राइमरी परीक्षा  पास करनी पडी । लोअर प्राइमरी तो वे पास कर ही चुकी थीं । मेरी बड़ी बहन और मैं गाँव के स्कूल में पढनें लगे थे । शिवली में लड़कों का मिडिल स्कूल था और लड़कियों के लिये कन्या प्राइमरी स्कूल । पहली नियुक्ति घाटमपुर या पुखरायाँ तहसील के निगोही गाँव में हुयी । वहाँ तक जानें के लिये शिवली से लगभग दस कोस का रास्ता तय करना पड़ता था । निगोही सेंगर नदी के किनारे लगभग नदी से दो फर्लांग की दूरी पर बसा हुआ एक छोटा सा गाँव था । जिला शिक्षा बोर्ड कानपुर नें वहीं लड़कियों की शिक्षा के लिये   एक प्राइमरी स्कूल प्रारम्भ किया था । इतना तो मानना ही होगा कि अंग्रेजी शासन काल में और चाहे जितना ही शोषण और भेदभाव किया गया हो पर शिक्षा प्रसारण में काफी प्रगति की गयी थी । उन दिनों पक्की सडकों की तो बात ही क्या ,बैलगाड़ी चलनें लायक ठीक रास्ते भी नहीं थे । झाड़ -झंखाड़ ,नदी -नाले ,बाखर ,ऊसर और बंजर से गुजरती हुयी टेढी -मेढी दो लाइनें बैल गाड़ी का रास्ता बनाती थीं । सेंगुर नदी के सून सान स्थलों पर लूटमार का भी भय था । तय हुआ कि बाबा कालिका प्रसाद जी जिन्हें कक्का कहते थे ,घर पर रहेंगें और मेरी बड़ी बहन और मैं भी पढ़ाई की वजह से घर पर ही रहेंगें । थोड़ी सी खेती जो अधिया -बटाई पर थी उसकी देखभाल भी कक्का द्वारा होती रहेगी । और वे मेरी बड़ी बहन के साथ मिलकर खाना बनानें   की व्यवस्था कर लेंगें । माता जी मेरे छोटे भाई ,जिन्हें घर में राजा कहा जाता था ,को लेकर और गोद के बच्चे के साथ निगोही जायेंगीं । नाना रतन लाल नें दौड़ -धूप कर एक बैलगाड़ी किराये पर कर दी । खाने -पीनें का   सामान लादा गया   । जब माता जी मेरे दोनों भाइयों के साथ उस पर बैठनें जा रही थीं ,तो हम बहन ,भाई मचल उठे कि हम भी साथ जायेंगें । कक्का नें बहुत समझाया ,पर बाल हठ ,हम माननें को तैयार ही नहीं । गाड़ी ले जानें वाले सज्जन पड़ोस के ही एक सम्बन्धी थे । आखिर यह फैसला हुआ कि हम दोनों भी साथ जायेंगें ,पर जब अगले दिन गाड़ी वापिस आयेगी तो उसी में वापिस हो लेंगें । यह सब बातें मैं अपनी स्मृति को टटोल कर लिख रहा हूँ क्योंकि सात -आठ वर्ष की आयु में मुझे कुछ समझ आ चुकी थी । बैलगाड़ी से लगभग सात -आठ घण्टे का रास्ता था । शायद जून का महीना समाप्ति पर था । उन दिनों जून के महीनें में बोर्ड की छुट्टियाँ   होती थीं और जुलाई के प्रारम्भ होते ही स्कूली काम -काज प्रारम्भ हो जाता था । मौसम विशेषज्ञों के अनुसार पन्द्रह जून से मानसून का प्रारम्भ माना जाता था और अक्सर होता भी  ऐसा था   कि जेठ -दशहरा के कुछ दिन बाद ही उमड़ते -घुमड़ते बादल दिखाई पड़ते थे । उस वर्ष भी कई मूसलाधार बरसातें हो चुकी थीं और रास्ता काफी खराब व खतरनाक हो गया था । बड़े आग्रह के बाद ललुआ शुक्ल परिवार के साथ नजदीकी सम्बन्धों की बात करते हुये गाड़ी ले जाने को तैयार हुये । सुबह जल्दी करते -करते भी आठ बज गये । कुछ खा पीकर और चना -चबेना व सत्तू बाँधकर आठ बजे के करीब गाड़ी शिवली से चली । आस -पास की स्त्रियों नें मंगलमय यात्रा की कामना की और माता जी से कहा कि गाँव से बाहर रास्ते में आने वाली पन्था देवी पर माथा अवश्य झुका लें । बचपन भी बड़ा दीवाना होता है । आज इस वार्धक्य में बहुत सावधानी से ड्राइव करनें वाले ड्राइवर को भी हिचकोले लगनें पर मेरी नाराजगी झेलनी पड़ती है ,पर उन दिनों बैलगाड़ी के वे हिचकोले मुझे दिब्य झूलों का आनन्द दे रहे होंगें । जगह -जगह रास्ते में पानी भरा था । दो गाँवों के बीच के खेतों के साथ -साथ काफी कीचड भरे और झाड़ों से भरे मैदान भी थे । भारत की आबादी अभी बंकिम चन्द्र चटर्जी की जानी -मानी पंक्तियों से " माँ तुम किम अबले ,विंश कोटि सुत मातु तुम्हारे ।"से कुछ ही आगे बड़ी थी । आज के सौ करोड़ से भी अधिक आबादी के बीच रहनें वाले उस समय के तीस करोड़ की आबादी के गाँव के बीच खुले विस्तृत मैदानों की कल्पना भी नहीं कर सकते ।   
                               लगभग चार घण्टा चलनें के बाद धूप काफी तेज हो आयी । गोद  का बच्चा कई बार धूप -प्यास से परेशान होकर रोने की आवाज करता था और माताजी थपथपाकर उसे चुप करा देती थीं । आमों की छाँह दार बगीचों में गाड़ी रुकी । हम भाई बहन खाने की मांग करने लगे । बड़ा होनें पर भोजन पाचन के लिये न जाने कितनें विधानों की आवश्यकता पड़ जाती है ,पर बचपन के उन दिनों में पाचन समस्या का स्वप्न भी नहीं देखा जाता । एक पेंड से  कुछ अधपकी अमियाँ तोड़ीं गयीं और जौ तथा  चना के सत्तू पास के कुंएं से खींच कर लाये गए जल में थाली में डालकर घोले गये । बड़ी -बड़ी पिण्डियां बनायी गयीं । हरी मिर्च साथ में थी और सत्तू की नमकीन पिंडियां आम की कच्ची फांकों के साथ दोपहर के भोजन के लिये अत्यन्त स्वदिष्ट खाद्य सामिग्री के रूप में स्वीकृति हुयी । मुझे अब तक ध्यान है कि ललुआ शुकुल नें और पिण्डियों की माँग की तो दोबारा फिर से सत्तू घोले गये । आज जब हम हर खाद्य वस्तु बन्द लिफाफों व डिब्बों में खरीद रहे हैं तो घर में पिसे हुये भुने जौं और चनों के सत्तू की बात करना कुछ अप्रांसगिक लगता है । भले ही आप इसे गँवारू संस्कृति का अंग मान लें ,पर निजी तौर पर मेरा विश्वास है कि जो स्वाद ,शक्ति और स्वच्छता उन सत्तुओं में थी वह मैकडॉनल्ड की किसी भी खाद्य वस्तु में उपलब्ध नहीं है । लल्लू यादव की बहुत सी सनक भरी बातों से असहमत होकर भी मैं इस बात से सहमत हूँ कि गरीब भारतीय के लिये सत्तू एक पोषक और सुलभ खाद्य सामिग्री है । 
                                  ललुआ शुकुल नें बैलों को खोलकर पानी पिलाया और उनके आगे ,गाड़ी के नीचे बाँधकर लाया हुआ भूषा रखा । बैल खा पीकर बैठ गये और पंगुरियानें लगे । ललुआ भी एक छाँहदार पेंड के नीचे लेटकर खर्राटे भरने लगे । गाड़ी के ऊपर लकड़ी खोंसकर एक चद्दर बाँध दी गयी थी । माताजी और नन्हां उसमें बैठे रहे । हम भाई -बहन बगीची में इधर -उधर फुदकते रहे और माँ के लाख मना करनें पर भी दूर दूर तक भागते दौड़ते रहे । उस वर्ष आम की फसल अच्छी नहीं थी , पर पेड़ों के नीचे पके -अधपके देसी आम पड़े थे और हम उन्हें बीनते खाते रहे । मुझे याद है कि जब मैं और कमला बहन गाड़ी के पास आये तो माँ नें हम दोनों का मुँह पानी से धोया ,क्योंकि हम दोनों के मुँह पर चेंप लगा था । चेंप एक चिपचिपा पदार्थ है जो देसी आमों के ऊपरी सिरे से निकलता है और त्वचा को कुछ दिनों के लिये मलिन कर देता है । आम के दिनों में ग्राम्य बालकों के चेहरे और कपड़ों पर उन दिनों चेंप की काफी कुछ निशानियाँ पायी जाती थीं । लगभग तीन -चार बजे हम फिर निगोही के लिए चल पड़े । प्रारम्भ में बैल धीमा चल रहे थे ,पर अभी काफी रास्ता शेष था और दिन समाप्त होनें वाला था ।  माँ नें ललुआ से आग्रह किया और कहा कि मामा ,बैलों को बढ़ाकर ले  चलो , अन्धेरा न हो जाये । गाँव के पास सेंगुर नदी पार करनी है । कहीं ऐसा न हो कि नदी में ज्यादा पानी के चलते गाड़ी पार न हो पाये । फिर नदी के पास झाड़ -झंखाड़ हैं । हमारे लिये यह जगह अन्जान है । ललुआ नें बैलों को अरई लगाई और गले में घंटिया बांधे हुये बैल टन -टन करते हुये भागने लगे पर कुछ देर बाद फिर वही मन्द गति और फिर से सोंटी में बँधी चमड़े की पट्टियों की हवा में घुमायी गयी धमकी । इस प्रकार मन्दी और तेजी का क्रम चलता रहा । भगवती चरण वर्मा की एक कविता काफी प्रसिद्ध रही है । उसकी प्रथम पंक्ति कुछ इस प्रकार है -चूं चरर मरर -चूं चरर मरर जा रही चली भैंसा गाड़ी । बैल गाड़ी भैंसा गाड़ी से कुछ तीब्र वाहन अवश्य है पर निश्चय ही आज के स्पेस युग में उसका सफर बड़े शहरों के लोगों के लिये एक परी कहानी सा ही लगेगा । सात -आठ के बीच हम सेंगुर नदी के किनारे आ पहुंचें । गाड़ी रुक गयी । नदी में पानी उमड़ रहा था । (क्रमशः )

No comments:

Post a Comment