बड़े होनें पर ये सब बातें मैनें उन्ही की ज़ुबानी सुनी । उनका नामकरण पहले हंसती और बाद में हंसवती क्यों कर हुआ ,वह सब भी विस्तार से सुना । बीसवीं शताब्दी के पहले दशक के आस -पास उत्तर भारत के पांच प्रमुख ब्राम्हण समुदायों का उच्चता की द्रष्टि से भूपतियों द्वारा सम्मानित होना एक इतिहास सिद्ध बात है । ये ब्राम्हण सम्प्रदाय हैं सारस्वत ,गौड़ ,कान्यकुब्ज ,मैथिल और उड़िया । कान्यकुब्जों की ही एक शाखा सरयूपारीण जानी जाती है और कान्यकुब्जों के ही पूर्वज बंगाल में ही सम्भवतः सेन राजाओं द्वारा आमन्त्रित होकर बंग श्रेष्ठता के अधिकारी बनें । कांगड़ा और उत्तर पश्चिम के अन्य समीपवर्ती पर्वत क्षेत्रों में भी कान्यकुब्ज समुदाय फ़ैल कर विस्तृत हुआ । इसी कान्यकुब्ज समुदाय में उन्नाव जनपद के नामी गिरामी बीघापुर शुक्लों के परिवार में उनकी माँ का जन्म हुआ था । कालान्तर में ये सुकुल कानपुर जनपद के शिवली ग्राम में समृद्ध भू भागों और बगीचों के स्वामी बनकर बस गये । बड़े होनें पर उनकी माता धोबिया गोपनाथ मिसरों के घर डुंडवा (शिवली के निकट स्थित ) में ब्याही गयीं । यहां हमें स्मरण रखना होगा कि उस समय कुलीन लड़कियों का विवाह वयः सन्धि प्राप्त करते ही कर दिया जाता था । इसी मिश्र परिवार में अत्यन्त दीर्घकाल तक प्रतीक्षा करने के बाद उनका जन्म हुआ । निसंतान माता -पिता नें लम्बे अन्तराल के बाद उनका अवतरण भगवत कृपा के रूप में स्वीकार किया । जब वे दो वर्ष की थीं तो चेचक की महामारी का प्रकोप आस -पास के ग्रामों में सुरसा विस्तार के साथ फ़ैल गया । घर के घर उजड़ गये और मृत शरीरों को उठानें वाला कोई मुश्किल से मिलता था । आज चेचक का समूल उन्मूलन हो जानें के कारण हम इसकी भीषणता का का अन्दाजा नहीं लगा पाते ,पर शीतला देवी के अभिशाप के रूप में जानी जाने वाली इस महामारी नें भारतवर्ष के न जाने कितनें घर उजाड़े हैं और लाखों चेहरों पर अपनें चिन्ह अंकित किये हैं । वे भी शीतला माता के प्रकोप से ग्रसित हुयीं पर माँ की ही कृपा रही होगी जिसके कारण वे अपनें प्रभावशाली चेहरे व मुख पर कुछ चिन्ह लेकर इस प्रकोप से मुक्त हो गयीं । उनके पिता जो उनके कथनानुसार एक लम्बी कद काठी के शक्तिवान पुरुष थे और जिनके चौथे विवाह की वे अकेली कन्या थीं ,शीतला माँ के प्रकोप से बच गये पर एक वर्ष बाद ही अपनी जीवन लीला समाप्त कर चले गये । उनकी पहली तीनों पत्नियाँ काफी -काफी दिनों तक उनके साथ रहकर दिवंगत हो चुकी थीं और अब अपनी चौथी पत्नी तथा दैवीय वरदान के रूप में प्राप्त अपनी एक मात्र कन्या को संसार में स्मृति के रूप में छोड़कर वे लगभग नब्बे वर्ष की आयु में परलोकगमन कर गये । पिता के निधन के बाद उनकी माता उन्हें लेकर शिवली ग्राम में अपनें भाइयों के पास आ गयीं । डोंडवा ग्राम का घर सम्बन्धियों के अधिकार में आ गया और खेत भी वहां न रहनें के कारण परिवार के अन्य सदस्यों की मलकियत बन गये । माता अपनें भाई रतन लाल के साथ शिवली में बस गयीं जहाँ खेलकूँद और बचपन की गलियों से गुजर कर वो 12 वर्ष समाप्त कर 13 वें वर्ष के प्रवेश द्वार पर जा पहुंचीं मामा रतनलाल एक समृद्ध किसान थे और थोड़ा बहुत हिसाब -किताब तथा हिन्दी का अक्षर ज्ञान भी उनके पास था ,पर विज्ञान की बढ़ती प्रगति गाथा से वे बिल्कुल अपरचित थे और अपनें समय के प्रचलित निर्जीव विश्वासों और रूढ़ियों में उनकी गहरी आस्था थी । वे जीवन में इसलिये दुःखी थे क्योंकि भगवान् नें उन्हें दो कन्यायें तो दी थीं ,पर कोई पुत्र नहीं दिया था । ये दोनों कन्यायें भी विवाह के अनेक वर्षों बाद जन्मी थीं । लगभग उसी समय के आस -पास उन्होंने अपनी भांजी का पाणिग्रहण अपनें घर के ही पास एक सुयोग्य पात्र के हांथों करना निश्चित कर लिया था । अक्सर वे मेरे से कहा करती थीं कि वे मेरे पिता के योग्य नहीं थीं ,क्योंकि वे लगभग अशिक्षित और चेचक के दागों से चिन्हित एक ग्राम्य बाला थीं जबकि मेरे पिता उस समय बी ० टी ० पास कर मिडिल स्कूल के अध्यापक हो चुके थे तथा शरीर और मुख सौष्ठव की द्रष्टि से गाँव के सर्वोत्तम व्यक्तियों में मानें जाते थे । वह काल भारतीय नारियों के लिये एक अन्धकार काल ही कहा जायेगा ,क्योंकि उस समय कन्याओं को अपनें पिता की जमीन -जायदाद पर कोई हक़ प्राप्त नहीं था और पुत्रहीन होनें की स्थिति में जमीन -जायदाद के हकदार परिवार के अन्य जन हो जाते थे भले ही वे आचरण की द्रष्टि से दुश्मन कहे जाने योग्य हों । शायद यही कारण था कि उनके मामा रतनलाल पुत्र की अनुपस्थिति में आन्तरिक व्यथा का जीवन जीते रहे और अन्त में हुआ भी यही कि उनके बाग़ और लम्बी -चौड़ी खेती उनकी मृत्यु के बाद उनके दूर के भाई -भतीजों नें क़ानून के बल पर अपनें अधिकार में ले ली । इसकी बात प्रसंग आने पर की जायेगी । अभी तो हम विवाह के अनुष्ठान की प्रक्रिया से गुजरकर सुखद जीवन के उन 12 -13 वर्षों की बात करना चाहेंगें । जो उन्होंने मेरे पिता के साथ साहचर्य में काटे । धोबिया गोपनाथ मिस्रों की बेटी प्रभाकर के अवस्थियों के घर व्याही गयी थी । 18 बिस्वा की मर्यादा लेकर वे 20 बिस्वा के घर में आईं थीं । उन्हें इस बात का सदैव अभिमान रहा कि वे प्रभाकर अवस्थियों के घर की कुलवधू हैं । बड़ा होकर जब कभी मैं उनसे बीघा -बिस्वा या जात -पात की निरर्थकता की बात करता तो वे चुप हो जाती थीं । पर उनके मुंह पर सहमति का भाव नहीं आता था । दरअसल वे जिस काल में वय सन्धि छोड़कर तरुणायी के दौर में आयीं वह काल कान्यकुब्जों के बीच मिथ्या प्रदर्शन और खोखले दंभ्भ का काल था । देश के अन्य भागों में अनेक समुदायों के लोग अंग्रेजी शिक्षा पाकर प्रगतिकी नयी मन्जिलें तय कर रहे थे जबकि कान्यकुब्ज ब्राम्हणों के एक प्रतिशत से भी कम घरों में आधुनिकता को स्फुरित करने वाली वायु मुश्किल से प्रवेश कर पायी होगी । आठ कनौजी नौ चूल्हे वाली कहावत उस समय उडनखटोले पर पैंगें लगा रही थी । कुलीनता का दंभ्भ ,बीस बिस्वा होनें का अभिमान हीनता ग्रंन्थि को छिपाने के लिये एक कामयाब हथियार के रूप में स्तेमाल किया जा रहा था ।
विवाह कर आये हुये घर में उनके ससुर कालिका प्रसाद अवस्थी और उनकी सास भी उपस्थित थीं । तेरह वर्ष की एक लड़की लम्बे घूँघट और पैरों में उलझ जाने वाली धोती पहने हुये गलियों में खेलनें -दौड़नें वाली ग्राम्य कन्या का रूप छोड़कर कुलबधू बन गयी । उन दिनों एकान्त में भी पति से बात करना कुलीनता को साह्य नहीं था फिर सास -ससुर की उपस्थिति से मुक्त उल्लास के प्रदर्शन की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती थी । घर बहुत बड़ा नहीं था ,पर इतना छोटा भी नहीं कि उसमें कोई असुविधा हो । बात यह थी कि कई पीढ़ियों पहले का बहुत बड़ा घर अब बढ़ते हुये सगे और चचेरे भाइयों के बीच बंटकर बड़ा नहीं रह गया था । जिस घर में वे आयीं उसमें बीच में दीवाल डालकर बटवारे की प्रक्रिया सम्पन्न हुयी थी । दूसरी ओर उनके ससुर कालिका प्रसाद जी के छोटे भाई दरबारी लाल का परिवार रहता था । गाँव के लोग कालिका प्रसाद को मालिक और दरबारी लाल को लाट साहिब कह कर पुकारते थे । दरवाजे पर गोल चबूतरे के बीच एक बड़ा नीम का वृक्ष था और आगे काफी खुला क्षेत्र पड़ा हुआ था । इस चबूतरे को कोतवाली के रूप में जाना जाता था क्योंकि संभ्भवतः वहाँ बैठकर आस -पड़ोस के झगडे निपटाये जाते होंगें । मालिक और लाट साहिब के पिता पुत्तू अवस्थी ,अपने समय के जाने -माने वैद्य और पहलवान थे । उनकी धाक उनकी मृत्यु के एक लम्बे अरसे के बाद भी आस पास के घरों में स्वीकारी जाती थी । हाँ तो अब हम जीवन कथा के इस प्रसंग को और विस्तार देनें के पहले उनके नामकरण की मनोवैज्ञानिकता को थोड़ा सा खोज लें । माँ नें मुझे बताया कि उनकी माँ उनके पिता की चौथी पत्नी थीं और पहली तीनों पत्नियों से उन्हें कोई सन्तान प्राप्त नहीं हुयी थी और लम्बी पूजा अर्चना के फलस्वरूप उनका जन्म एक दैवीय वरदान के रूप में लिया गया । किसी गहरी अभिलाषा को जो प्राणों के आर -पार छायी रहती है ,अवधी भाषा में हिंसत कहा जाता है । हिंसत अर्थात सम्पूर्ण मन प्राणों से चाही हुयी कोई कामना पिता ,माता और स्वजनों के लिये उनका जन्म ऐसी ही कामना की पूर्णतः थी ,अतः उन्हें हिंसती कहकर पुकारा गया । मेरे पिता के जीवनकाल में वे हिंसती ही थीं । ,बाद में वे हँसवती कैसे बनीं इस विस्तारण की ओर हम बाद में पढेंगें । घर में नयी बहू के रूप में सामान्य ग्रामीण स्तर के अनुसार सभी सुविधाये उपलब्ध थीं । सरकारी मास्टरी की नौकरी ,घर को चलाने लायक अन्न पैदा करते खेत और फल देने वाले आम -जामुन के वृक्ष यही तो होता है ग्राम्य सम्पन्नता का स्वप्न । यह सब कुछ उनके पास था । एक स्वस्थ्य ,सुशिक्षित प्रबुद्ध पति जो उनको साथ लेकर युग के साथ नयी मंजिलें छूने की साधना में निरत था । (क्रमशः )
विवाह कर आये हुये घर में उनके ससुर कालिका प्रसाद अवस्थी और उनकी सास भी उपस्थित थीं । तेरह वर्ष की एक लड़की लम्बे घूँघट और पैरों में उलझ जाने वाली धोती पहने हुये गलियों में खेलनें -दौड़नें वाली ग्राम्य कन्या का रूप छोड़कर कुलबधू बन गयी । उन दिनों एकान्त में भी पति से बात करना कुलीनता को साह्य नहीं था फिर सास -ससुर की उपस्थिति से मुक्त उल्लास के प्रदर्शन की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती थी । घर बहुत बड़ा नहीं था ,पर इतना छोटा भी नहीं कि उसमें कोई असुविधा हो । बात यह थी कि कई पीढ़ियों पहले का बहुत बड़ा घर अब बढ़ते हुये सगे और चचेरे भाइयों के बीच बंटकर बड़ा नहीं रह गया था । जिस घर में वे आयीं उसमें बीच में दीवाल डालकर बटवारे की प्रक्रिया सम्पन्न हुयी थी । दूसरी ओर उनके ससुर कालिका प्रसाद जी के छोटे भाई दरबारी लाल का परिवार रहता था । गाँव के लोग कालिका प्रसाद को मालिक और दरबारी लाल को लाट साहिब कह कर पुकारते थे । दरवाजे पर गोल चबूतरे के बीच एक बड़ा नीम का वृक्ष था और आगे काफी खुला क्षेत्र पड़ा हुआ था । इस चबूतरे को कोतवाली के रूप में जाना जाता था क्योंकि संभ्भवतः वहाँ बैठकर आस -पड़ोस के झगडे निपटाये जाते होंगें । मालिक और लाट साहिब के पिता पुत्तू अवस्थी ,अपने समय के जाने -माने वैद्य और पहलवान थे । उनकी धाक उनकी मृत्यु के एक लम्बे अरसे के बाद भी आस पास के घरों में स्वीकारी जाती थी । हाँ तो अब हम जीवन कथा के इस प्रसंग को और विस्तार देनें के पहले उनके नामकरण की मनोवैज्ञानिकता को थोड़ा सा खोज लें । माँ नें मुझे बताया कि उनकी माँ उनके पिता की चौथी पत्नी थीं और पहली तीनों पत्नियों से उन्हें कोई सन्तान प्राप्त नहीं हुयी थी और लम्बी पूजा अर्चना के फलस्वरूप उनका जन्म एक दैवीय वरदान के रूप में लिया गया । किसी गहरी अभिलाषा को जो प्राणों के आर -पार छायी रहती है ,अवधी भाषा में हिंसत कहा जाता है । हिंसत अर्थात सम्पूर्ण मन प्राणों से चाही हुयी कोई कामना पिता ,माता और स्वजनों के लिये उनका जन्म ऐसी ही कामना की पूर्णतः थी ,अतः उन्हें हिंसती कहकर पुकारा गया । मेरे पिता के जीवनकाल में वे हिंसती ही थीं । ,बाद में वे हँसवती कैसे बनीं इस विस्तारण की ओर हम बाद में पढेंगें । घर में नयी बहू के रूप में सामान्य ग्रामीण स्तर के अनुसार सभी सुविधाये उपलब्ध थीं । सरकारी मास्टरी की नौकरी ,घर को चलाने लायक अन्न पैदा करते खेत और फल देने वाले आम -जामुन के वृक्ष यही तो होता है ग्राम्य सम्पन्नता का स्वप्न । यह सब कुछ उनके पास था । एक स्वस्थ्य ,सुशिक्षित प्रबुद्ध पति जो उनको साथ लेकर युग के साथ नयी मंजिलें छूने की साधना में निरत था । (क्रमशः )
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