Saturday, 14 January 2017

..................... जिन दिनों की यह बात है उन दिनों ग्राम समृद्धता का अर्थ सीवर लाइन या सेनेटरी पिट से सम्बंधित शौचालयों की व्यवस्था से नहीं जुड़ा था । यह व्यवस्था उत्तर भारत के ग्रामों में तो क्या मुश्किल से किसी शहर में देखने को मिलती होगी । विद्याधर नायपाल ने अपनें बहुचर्चित ग्रन्थ Dark Continentमें भारतीय जीवन पद्धति पर व्यंग्य करते हुए लिखा है कि सारा भारत एक खुला शौचालय है और किसी बन्द स्थान में बैठकर मल विसर्जन की प्रक्रिया भारतवासी को वैसे ही नहीं आती है जैसे किसी जलते हुए बन्द कमरे में घुस जाने की प्रक्रिया । नायपाल नोबेल पुरस्कार  विजेता हैं और आधुनिक जीवन शैली के उनके अपने पैमानें हैं पर आधी शताब्दी पहले के भारत में खुले, एकान्त भू भागों और झाड़ -झाखडो की कमी न थी ,जहाँ ग्रामीण नर -नारियां सुबह शाम मानव शरीर की प्राकृतिक आवश्यकतायें पूरी करते थे । अन्तर यह था कि पुरुष अपेक्षाकृत गाँव से  बाहर के दूर स्थानों पर नित्य क्रिया के लिये जाते थे ,जब कि स्त्रियाँ नजदीक के रास्ते से हटकर फैले हुये ऊसरों ,बंजरों और खेतों में जाती थी । इसी सन्दर्भ में मुझे एक घटना का स्मरण आता है उन्होंने यह बात मुझे भूत -प्रेतों के किसी प्रसंग के सम्बन्ध में बतायी थी । गाँव के पास ही पक्का ताल नामक स्थान है । जहाँ ताल के अतिरिक्त एक शिव मन्दिर तथा इमली ,बेर ,और पीपल के वृक्ष भी थे पास के खेतों में स्त्रियां सुबह -शाम नित्य कर्म के लिये जाया करती थीं । शाम के समय विशेषतः वे दो  चार के समूहों में बाहर निकलती थीं जिसे कनौजी भाषा में शाम 'बहिरे जाना ' कहा जाता है । एक दिन ग्रीष्म ऋतु में शाम नौ बजे के लगभग पेड़ों के पास खड़पड़ की आवाज हुयी और दूर से कोई आकृति हाँथ में कुछ लिये हुये जाती दिखायी पडी । पक्के ताल का आस -पास का स्थान सायंकाल के बाद सूनसान हो जाता था और वहाँ शिवमन्दिर और पेड़ों के साथ जुडी हुयी भूतों ,प्रेतों और चुड़ैलों की अनेक कथायें गाँव में चर्चा का विषय बन गयी थीं । किसी काली ,बाल बिखेरे अंधरे में भयावह लगनें वाली आकृति को दूर से देखकर लगभग तीस चालीस गज की दूरी पर बैठी स्त्रियाँ भय से घबराकर अपना पानी का लोटा बिखेर कर गाँव की ओर तीब्रगति से चल पड़ीं । दिवंगता हंसती नें उन्हें रूकनें के लिये कहा ,पर किसी चुड़ैल का आतंक उन्हें भीतर से कंपकंपा रहा था और वे रुकी नहीं । हिंसती  नें हिम्मत नहीं हारी और पीपल के पेंड की ओर बढ़ने का साहस किया । खटपट की आवाज के साथ नीची झुकी डालियाँ हिल रही थीं -कोई था जो शायद उन्हें डराकर भगाना चाहता था । अज्ञात भय से थोड़ा -बहुत डरते हुये भी उन्होंने आगे बढनें का निश्चय किया और तब पाया कि पीपल के पेंड के तनें के एक कोटर में किसी नें दीपक जलाया है और उन्हें देखकर दीपक जलानें वाली काया नजदीक की झाड़ियों की ओर भागी जा रही है । उन्होंने हिम्मत करके पीछा किया और झाड़ियों के पास पहुँचकरदेखा कि काले रंग की एक नंगीं नारी आकृति सहमी बैठी है । उस आकृति के वस्त्र पास ही पड़े थे वे पहचान गयीं कि वह स्त्री कलुआ धानुक की पत्नी जलेबी थी । उनके वहाँ पहुँचते ही जलेबी नें उनके पैरों पर माथा रख दिया और कहा -जिज्जी ,तुम्हें राम की सौगन्ध किसी से बताना नहीं । छः साल शादी के हो गये ,कोई आल -औलाद नहीं । पण्डित राम आसरे के पास गयी तो उन्होंने कहा कि अमावस की रात में नग्न होकर शिव मन्दिर के पास के पीपल के कोटर में एक दीपक जला देना । पीपल देवता तुझे औलाद देंगें । उन्होंने यह सुनकर जलेबी को आश्वस्त किया वे इस राज को किसी को नहीं बतायेगीं । लौट कर आने पर कुछ दूर खड़ी स्त्रियों नें जानना चाहा कि उन्हें कोई दिखायी पड़ा या नहीं । उन्होंने यह कहकर उन  स्त्रियों को शान्त कर दिया कि एक बिल्ली थी जो पीपल के कोटरों में अण्डों को तलाश रही थी । यह घटना अत्यन्त साधारण है और मैनें इसे उन्हें किसी नायिका के रूप में चित्रित करनें के लिये उद्धत नहीं किया है । यह घटना मात्र यह संकेत देती है कि विवाह के प्रारम्भिक वर्षो में भी उनके भीतर कहीं कुछ था जो उन्हें खतरों से जूझने के लिये प्रेरित करता था । अभी तक सम्भवतः वह अन्धविश्वासों और ग्राम्य जीवन में स्वीकार की जानें वाली भूत -प्रेतों की बातों से सम्पूर्णतः मुक्त नहीं हुयी थीं ,पर किसी घटना को प्रमाण के आधार पर समझनें ,जाननें का उनका द्रष्टिकोण उन्हें औरों से अलग बुद्धिपरक ग्राम संस्कृति की विकास कड़ी से जोड़ता था शायद यही कारण है कि जीवन के 13 -14 वर्ष सौभाग्य भोगकर और ग्राम्य कुलीनता के शिखर पर पहुँच कर भी उनका विश्लेषक जुझारूपन उन्हें नयी चुनौतियों को झेलने के लिये सक्षम बना सका । मुझे याद है कि उन्होंने अपनें गृहस्थ जीवन की खुशहाली का सरल और सन्तोषपूर्ण वर्णन इन शब्दों में किया था कि उनके घर में सदैव दो दो दुधारू गायें रहती थीं और पसेरियों आम ,कटहल और सहजन के अचार भरे पात्र थे । जिनसे मोहल्ले के सभी घरों से प्रेम व्यवहार हुआ करता था । दाम्पत्य जीवन के तेरह वर्षों में उन्होंने पांच सन्तानों को जन्म दिया । उन्नीसवें वर्ष में सबसे बड़ी पुत्री कमला गोद में आयी  और उसके बाद मुझे ईश्वर नें किसी वरदान स्वरूप उनकी कोख में भेजा । तत्पश्चात एक और बालक जो कुछ दिवसों की अल्पायु के बाद ही चल बसा और फिर मेरे छोटे भाई उदय नारायण का जन्म हुआ । मुझे ठीक स्मरण नहीं है पर वे बताती थीं कि उनकी गोद में मेरा एक और छोटा भाई जिसे वे बच्चंना के नाम से पुकारती थीं भी था ,जब मेरे पिता उन्हें छोड़कर गये । उस समय बच्चना सम्भवतः एक वर्ष का था । कब और कैसे वह भी हमसे विलग हुआ ,इसकी स्मृति मुझे नहीं है । पिता की मृत्यु होनें के बाद भी एक बात ध्यान देनें योग्य है कि मेरे बाबा अर्थात उनके ससुर कालिका प्रसाद जी जीवित थे और मुझे स्पष्ट याद है कि वे मेरे हाई स्कूल पास करने के बाद इस संसार से विदा हुये थे । उन्होंने अपनें छोटे भाई दरबारी लाल जी की तरह दीर्घ आयु पायी । दरअसल अब मैं यह जान सका हूँ कि सम्भवतः मेरे पिता मियादी बुखार जिसे मोतीझारा कहा जाता है से पीड़ित हुए थे अपनी असाधारण शारीरिक शक्तियों के कारण प्रारम्भ के दस -बारह दिनों में शरीर को कोई आराम नहीं दिया उन्हें अपनें स्वास्थ्य पर सम्भवतः आवश्यकता से अधिक भरोसा रहा होगा । जब कभी मैं उनका स्मरण करता हूँ तो मुझे सिर्फ एक ही घटना का स्मरण आती  है । बचपन में मैं अत्यन्त मनमौजी और खिलाड़ी था । कई बार वे मुझे अपने साथ बाग़ में ले जाते थे ,क्योंकि जब वे स्कूल पढानें जाते तो मैं सोया करता था और जब वे वापिस आते तो मैं हमउम्र लड़कों की खेल मण्डली में घर से बाहर घूमा करता था । शायद इसी कारण कभी कभी रात में सोते समय वे मुझसे कहते थे कि कल मेरे साथ बाग़ चलना ,क्योंकि उनके साथ बाग़ बगीचों में घूमकर मुझे खेल से अधिक आनन्द मिलता था । लगभग 40 फ़ीट लम्बे एक बड़े बाँस के सिरे पर एक टेढी हँसिया बाँध कर वे बाग जाने की तैय्यारी करते । मैं तो उस बांस को पकड़कर सीधा खड़ा भी नहीं कर सकता था । मुझे आश्चर्य होता था कि वे कैसे इतनें लम्बे और वजनदार बांस को खेल खेल में उठाकर कन्धे पर   रखकर बाग़ जाते और मैं दो तीन झोलियाँ लेकर उनके पीछे पीछे जाता । बाग़ के दो पेड़ बुन्देला और चकइया अत्यन्त मीठे और रसीले आम देते थे । और फलते भी इतने थे कि जैसे पत्ती -पत्ती में आम उगे हों । ये बहुत ऊँचे और विशाल पेंड थे । बांस की लग्गी से वे ऊँची से ऊँची डाल को उसके मध्य स्थान में फाँसकर हिला देते थे और टपाटप गिरते हुये आमों का अम्बार नीचे फ़ैल जाता । मैं बिनते -बिनते थक जाता पर आम ख़त्म न होते । कई बार उनके कुछ साथी वहाँ इकठ्ठे होकर साथ -साथ आम खाते । मुझे याद है कि गाय और बछड़े आम और आम के छिलके खाते -खाते मुँह फेर लेते थे । मेरे लिये एक छोटी झोली अलग होती थी जिसे उठाकर मैं चल सकता था । बाकी के तीन -चार झोले वे अपनी बाँह में टांग लेते । बाँस को कन्धे पर रखते और पौरुष भरे अपनी कदमताल के साथ घर वापस आते । रास्ते में या द्वार पर मिलनें वाले सभी बच्चों को दो चार आम बाँटते । बस उनकी यही एक स्मृति मेरे मन में अंकित है । और अंकित है उनके महाप्रयाण की अन्तिम छवि जब गाँव के आबाल  ,वृद्ध जनित फूट -फूट कर रो रह थे । मैं समझता हूँ कि शायद उचित उपचार न मिलनें के कारण वे असमय हमें अनाथ छोड़ कर चले गये । उस समय तक स्ट्रेप्टोमाइसिन तथा टायफायड की अन्य दवायें भारत में नहीं आ पायी थें । हमारा तो एक साधारण ग्राम्य परिवार था पर मोती लाल की पुत्र वधू कमला नेहरू विश्व की सबसे विकसित चिकित्सा पाकर भी क्षय रोग से उबर नहीं पायी थीं । उस समय तक क्षय रोग का वह उपचार संभ्भव नहीं था जो आज साधारण से साधारण व्यक्ति के लिये भी संभ्भव है और जिसके कारण चेचक व  प्लेग की भांति क्षय रोग भी सम्भवतः अपनी अन्तिम साँसे ले रहा है चलते चलते यहाँ प्लेग का भी जिक्र हुआ है और इस सन्दर्भ में एक घटना मुझे याद आती है जिसे मैं लिखना चाहूँगा क्योंकि जीवन गाथा की उलझी भिन्न -भिन्न प्रसंग शाखाओं में वह कहीं मेरी स्मृति से उतर न जाये । 
                                               प्रारम्भ में मैनें अपनें नाना रतन लाल शुक्ल का जिक्र किया है वे अत्यन्त परिश्रमी और औसत से अधिक शारीरिक सामर्थ्य के पुरुष थे । पर जैसा मैं बता चुका हूँ कि वे वैज्ञानिक प्रगति के प्रति सन्देहशील थे ,यह घटना मेरे सामनें घटित हुयी है । शायद मैं उस समय सातवीं ,आठवीं का विद्यार्थी रहा हूँगा । वर्ष तो मुझे याद नहीं पर प्लेग की विभीषका कानपुर जनपद में हाहाकार मचा रही थी । सम्भवतः अन्य जनपदों में भी मृत्यु के जबड़े बाये संहार प्रक्रिया में यह रोग जुटा हो ,पर मैं अपनें गाँव के विषय में ही स्पष्ट रूप से कह सकूँगा । सारा गाँव खाली हो गया था । बस्ती से काफी दूर बागों के बीच छप्पर डाल कर लोग रह रहे थे । कई घरों में जाँघ में गिल्टी निकलकर मृत्यु हो चुकी थी और निरन्तर चूहे मरने के समाचार आ रहे थे कहीं तो एक लाश श्मशान तक जाती और लौटते ही दूसरी लाश रखी हुयी मिलती । संक्रामक रोग होनें के कारण मृतक शरीरों को उठानें वाला नहीं मिल रहा था । गाँव से बाहर दूर के बागों में ही चूहों से छुटकारा मिलनें की आशा थी और इसलिये सारा गाँव सूना पड़ा था । एक नाना रतन लाल थे जो अपनें घर से निकलनें को तैयार नहीं थे । उनकी एक मात्र बेटी हमारे साथ बाग़ में रह रही थी । पर वे निडर भाव से घर में ही सोते । वे कहते कि  डरे तो शेर चीते से ,मूसों से क्या डरना । हम सब चिन्तित थे पर वे अपनी जिद पर अड़े थे । इसी बीच उस समय की अंग्रेज सरकार नें टीका लगाने के लिये डाक्टरों का एक दल गाँव -गाँव भेजा । जो भी गाँव में रह रहा था ,सभी को  टीका लगना था । नाना रतन लाल नें सुना तो उनकी श्रेष्ठ ब्राम्हण की पवित्रता भावना उन्हें कचोटने लगी । न जाने कौन सा अपवित्र पदार्थ सुई के द्वारा उनकी उच्चवंशीय काया में डाल दिया जाये । सभी को टीका लगेगा -यह सरकारी आदेश था और अँग्रेजी सरकार का आदेश आज के जनतान्त्रिक आदेश प्रक्रिया से अलग किस्म का होता था । उससे बच पाना कठिन था । उसको मानना ही पड़ता था । अब नाना रतन लाल करें तो क्या करें । वे घर छोड़कर बाग़ ,बगीचों की ओर भागे ,पर वहाँ भी लोग उनके होनें का पता बता ही देंगें ,इसलिये वे लगभग दो मील दूर एक लम्बे ताड़ के पेंड पर लंगोट लगाकर चढ़ कर बैठ गये । ऊपर के बड़े -बड़े ताड़ पंखों को शरीर के चारो ओर चिपटा लिया । डाक्टर टोली के आदेश पर न जाने कितनें लोग खोज -खॊज कर थक गये और नाना रतन लाल का कहीं पता नहीं । लोग आश्चर्य करते कि नाना रतन लाल का  कहीं पता नहीं । लोग आश्चर्य करते कि नाना रतन लाल कहाँ छिप गये । क्या दुर्योधन की भांति किसी माया सरोवर में डुबकी तो नहीं लगाये बैठे हैं । आखिर डाक्टर टोली सभी को टीका लगाकर चौथे पहर शहर वापस चली गयी । नाना रतन लाल उतरे ,फिर घर आये । रात को नहाये ,ईश्वर भजन किया और हल्का -फुल्का खाकर सो गये । अगले ही दिन उनकी जांघ में गिल्टी निकल आयी ।  बुबेनिक प्लेग भला किसी को छोड़ता है ?पवित्र किन्तु आधुनिक चेतना से वंचित एक सदाशयी पुरुष की यह करुण कथा भारत के अन्धविश्वासी आल -जाल में फंसे कुलीन समुदाय के लिये एक चेतावनी के रूप में देखी जानी चाहिये । वे मेरे अत्यन्त प्रिय और प्रेरक बुजुर्गों में से थे । मुझे हर्ष है कि उनके द्वारा पोषित मेरी माँ ,सच्चे धर्म और अज्ञान पर आधारित अंधविश्वासों में अन्तर करना जान चुकी थीं । तभी तो उन्होंने निश्चित किया कि घर छोड़कर बाहर निकले बिना परिवार का भरण -पोषण लगभग असंभव सा है । बाबा वृद्ध थे और कुलीनता के आडम्बर में उन्होंने अपनें हाँथ में हल नहीं पकड़ा था । बीस बिस्वा ब्राम्हण और हल ये दोनों उन दिनों की ग्राम्य मान्यता में दो विपरीत ध्रुवों के छोर थे । थोड़ी खेती और वह भी अधिया बटाई पर । उस समय न तो नये किस्म के बीज थे और न ही नयी किस्म की खाद । जमींदार को लगान अलग से देना पड़ता था । लगभग सारा कृषक समाज गले तक कर्ज में डूबा था । प्रेमचन्द्र का गोदान 1935 के आस -पास की रचना है और ये सब  बातें भी लगभग उसी दशक के आस -पास की हैं । दिवंगत सुन्दर लाल  अवस्थी की पत्नी हिंसती  अवस्थी नें निश्चय किया कि कुलीनता और कुल वधू का अर्थ घर की चहारदीवारी में सीमित रहना नहीं है । दिवंगत पति से शक्ति मांगीं कि वे अध्यापिका होनें लायक बन सकें । ककहरा तो जानती ही थीं अब उन्होंने लोअर प्राइमरी पास  करने की ठानी पिता के छोड़े हुये भविष्य निधि के पांच सौ रुपये के चांदी के सिक्के उन्होंने सहेज कर रख दिये कि यह रकम बेटी के दहेज़ में काम आ सके । चेतना का वैज्ञानिक रूपान्तीकरण उन्हें इस स्थिति तक नहीं लाया था जहाँ बीघा -बिस्वा बेमानी हो जाते हैं आखिर बीस बिस्वा  के घर की बेटी बीस बिस्वा में ही ब्याहनी होगी । इसके लिये दहेज़ हेतु सहेजी गयी रकम के अतिरिक्त और कितना कर्ज लेना पड़े ?चार बच्चों का लालन -पालन अध्यापकी और खेतों की छोटी -मोटी उपज से शायद संभ्भव हो जाये । पर दहेज़ के लिये कुछ अतिरिक्त व्यवस्था तो करनी ही होगी । उन दिनों उत्तर भारत विशेषतः उ ० प्र ० की नारियाँ घर से बाहर नहीं निकलीं थी । विजय लक्ष्मी पण्डित और कमला नेहरू अभी कौतूहल चर्चा का विषय बनीं हुयी थीं । प्राइमरी परिक्षा पास करके प्राइमरी अध्यापिका बननें का सुअवसर उनके हाथ लग गया । शायद इसलिये कि उनके दिवंगत पति जिला बोर्ड के एक सम्मानित और चर्चित अध्यापक थे । और यहाँ से शुरू हुआ स्वावलम्बन की दिशा में एक नया अभियान जिसनें उन्हें हिंसती  से हंसवती बना दिया । 
(क्रमशः )

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