वृत्त यह आलोक का तुमको समर्पित
तुम दियो ,मैं दीप्ति का दर्शक
तुम्हारे अनुगतों की पंक्ति का सीमान्त बन कर ही सहज हूँ ।
कोण की निरपेक्षता से मैं सहज ही देख लूँगां
रूप अन्तस का तुम्हारे
जो प्रभा के पुंज से मण्डित सभी को
कौंधता है -किन्तु जो व्यक्तित्व से
निः श्रत न होकर आवरण है
और तुमको -हाँ तुम्ही को
बोझ बनकर रौंदता है ।
शीघ्र ही -विश्वास मुझको -चेतना
तुमको झटक कर त्रास देगी
और आरोपित प्रभा का पुंज विषधर सा
उठा फन यदि गरल का डंक मारे
तो उठाकर द्रष्टि अपनें अनुगतों की
पंक्ति के अन्तिम सिरे पर देख लेना
मैं अहम् की भष्म का शीतल प्रलेपन
दे तुम्हे विष -मुक्ति दूँगा
और फिर से पंक्ति के अन्तिम सिरे पर जा
प्रतीक्षा- रत रहूँगा -कब स्वयं दो डग
उठा तुम पास मेरे आ सकोगी ।
तुम दियो ,मैं दीप्ति का दर्शक
तुम्हारे अनुगतों की पंक्ति का सीमान्त बन कर ही सहज हूँ ।
कोण की निरपेक्षता से मैं सहज ही देख लूँगां
रूप अन्तस का तुम्हारे
जो प्रभा के पुंज से मण्डित सभी को
कौंधता है -किन्तु जो व्यक्तित्व से
निः श्रत न होकर आवरण है
और तुमको -हाँ तुम्ही को
बोझ बनकर रौंदता है ।
शीघ्र ही -विश्वास मुझको -चेतना
तुमको झटक कर त्रास देगी
और आरोपित प्रभा का पुंज विषधर सा
उठा फन यदि गरल का डंक मारे
तो उठाकर द्रष्टि अपनें अनुगतों की
पंक्ति के अन्तिम सिरे पर देख लेना
मैं अहम् की भष्म का शीतल प्रलेपन
दे तुम्हे विष -मुक्ति दूँगा
और फिर से पंक्ति के अन्तिम सिरे पर जा
प्रतीक्षा- रत रहूँगा -कब स्वयं दो डग
उठा तुम पास मेरे आ सकोगी ।
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