धरा अवतरण हंसवाहनी का (जीवन स्मृति )
तथ्य सत्य तभी बनते हैं जब वे आत्म अनुभूति के दायरे से गुजरात हैं । संसार में जन्म और मरण की प्रक्रिया अनवरत ढंग से चलती रहती है और हम निश दिन इसके साक्षी बने रहते हैं । अधिकतर ऐसे अवसर हमारे लिये दार्शनिक प्रश्न ही उठा पाते हैं । किसी अज्ञात शक्ति के प्रति थोड़ा सा नमन भाव और अनिश्चितता की अस्थायी मनोवैज्ञानिक व्याख्या हमें ऐसे क्षणों में उलझा लेती है । पर मृत्यु जब हमारी आत्मा के किसी अभिन्न सगे सम्बन्धी को अपनें घेरे में लेती है तब तथ्य एक सत्य बन जाता है । हम दार्शनिक न बनकर विवश मनुष्य बन जाते हैं और ज्ञान अपस्थान छोड़कर आंसुओं की अर्चना माँगता है । इसी प्रकार परिवार में नये अंकुरण और दैवी योजना हमें विस्मय से अभिभूत कर प्रकृति के सनातन जीवन -धर्मिता के प्रति नमित कर देती है । समय के विषय में एक कल्पना यह है कि वह अभिशापित होनें के कारण निरन्तर गतिमान रहता है और हर्ष -विषाद के प्रति सम्पूर्णतः तटस्थ रहकर अबाधित गति से श्रष्टि को प्रवह मान करता है । हमारे लिये काल की यह अबाधित गति प्रकृति की एक चिरन्तन प्रक्रिया है जो अपनी चिरन्तनता के कारण कई बार हमारा ध्यान तक आकृष्ट नहीं कर पाती । निरन्तरता ही सहजता के रूप में दिनचर्या बनकर हमारे लिये सामान्य क्रिया -कलापों की श्रेणी में आ जाती है । पर कुछ क्षण ऐसे होते हैं जब समय की निरन्तरता व्यक्ति विशेष के लिये रुक सी जाती है और उसे जीवन इतिहास के पन्नों में खो जाना पड़ता है । निरर्थकता के लम्बे आल -जाल में सार्थकता खोजनें का यह सजग प्रयास काल की चिरन्तन गति पर व्यक्ति विशेष के लिये एक विराम चिन्ह लगा देता है ।
लगभग 06 वर्ष का एक बालक ग्रीष्म ऋतु की एक शाम के धुंधलके में अपनें साथियों के साथ खेल कूंद में लगा हुआ था । वह यह तो जानता था कि उसके घर में उसके पिता किसी बीमारी से ग्रस्त हैं और उन्हें देखने के लिये गाँव के वयोवृद्ध वैद्य लालता प्रसाद जी अग्निहोत्री सुबह -शाम घर पर आते रहते हैं पर वह अभी तक मृत्यु की भीषणता के विषय में अनिभिज्ञ था । गाँव के हमउमर बालकों के बीच वह खेल कूंद में लगा रहनें के कारण बीमारी की भीषणता का अन्दाज नहीं कर पा रहा था । सम्भवतः पाँच छः वर्ष की उम्र ऐसी होती है जब मृत्यु की वास्तविकता का एहसास बच्चे के लिये सत्य बनकर नहीं उभरता । खेल -खेल के बीच दौड़ कर आते हुये उसके एक साथी नें खबर दी कि घर में रोना -पीटना प्रारम्भ हो गया है और उसके पिता का निधन हो चुका है । एक अज्ञात भय से ग्रसित होकर जब वह दालान में इकठ्ठा भीड़ में से रास्ता पाकर अन्दर घुसा तो उसनें अपनी माँ को अपनी बड़ी बहन और दो छोटे भाइयों के बीच बैठा हुआ और आर्तनाद करते हुये पाया । वह सहम कर माँ की गोद में छिप जाने के लिये प्रयत्न करनें लगा । माँ के पास बैठी मौसी और बुआ कही जाने वाली स्त्रियों नें उसे गोद में ले लिया । उसने सुना कि वैद्यराज पिताजी को अन्तिम प्रणाम देकर जा रहे हैं । भीड़ बढ़ती ही जा रही थी । गाँव के सभी वयोवृद्ध ,तरुण और आल -बाल वहाँ एकत्र हो चुके थे । वह अपनें पिता के साथ कुछ दिनों से गाँव के स्कूल में जानें लगा था और वह जानता था कि उसके पिता गाँव के मिडिल स्कूल में अध्यापक हैं और लोग उन्हें नमस्कार करते हैं और उनके साथ होनें के कारण उसे बहुत प्यार देते हैं । और उसे यह भी पता था कि उसके पिता अपनें स्वस्थ्य सुगठित शरीर और लम्बे कद के कारण गाँव के प्रमुख पुरुषों में स्थान पा चुके थे । उनकी शिक्षा और उनका चरित्र सभी के लिये प्रशंसा की वस्तु थी । इतना सब जानते हुये भी उसे यह ज्ञान न था कि पिता की मृत्यु के कारण परिवार के जीवन में आ जाने वाला अभाव उसे भविष्य में किन संकटों और संघर्षों में डाल देगा । माँ के पास बैठी स्त्रियां उन्हें सान्त्वना दे रही थीं पर वे मृत पिता के पैरों पर अपना सर रखे अचेत सी हो गयी थीं । उसकी बड़ी बहन और दोनों छोटे भाई भयभीत मृगशावकों की भांति चुप बैठे थे । द्रश्य की करुणामयता सभी का ह्रदय हिला रही थी । 32 -33 वर्ष का एक होनहार नवयुवक जो अपने स्वरूप ,शिक्षा और आचरण के बल पर कानपुर जनपद के शिवली -ग्राम का आदर्श पुरुष बन गया था नियति के क्रूर हांथों से अपनें परिवार से छीन लिया गया । अश्रुओं की धारा और हाहाकार स्वरों के बीच भयभीत बालक फूट -फूट कर रो पड़ा और बुआ ,मौसी की बांहों से छूटकर माँ की गोद में जा बैठा । बच्चों को निकट पाकर माँ का रक्षा भाव जागृत हुआ और उन्होंने बच्चो पर अपने दुलार भरे हाथ से स्पर्श किया । यहीं से उस जीवट की कहानी का प्रारम्भ होता है जो लगभग 65 -70 वर्ष आगे चलकर इतिहास के कई नये अध्याय रच गयी । साहस की इस अदभुत विजय कथा का कुछ ज्ञान आने वाली पीढ़ियों तक पहुँच सके इसलिये 06 वर्ष के उस बालक नें जो आज वार्धक्य के द्वार पर आ पहुंचा है इस जययात्रा को अक्षर वद्ध करने का विनम्र प्रयास किया है । यही उसकी अपनी मां के प्रति श्रद्धांजलि है । आइये प्रारम्भ से ही प्रारम्भ करें । (क्रमशः )
तथ्य सत्य तभी बनते हैं जब वे आत्म अनुभूति के दायरे से गुजरात हैं । संसार में जन्म और मरण की प्रक्रिया अनवरत ढंग से चलती रहती है और हम निश दिन इसके साक्षी बने रहते हैं । अधिकतर ऐसे अवसर हमारे लिये दार्शनिक प्रश्न ही उठा पाते हैं । किसी अज्ञात शक्ति के प्रति थोड़ा सा नमन भाव और अनिश्चितता की अस्थायी मनोवैज्ञानिक व्याख्या हमें ऐसे क्षणों में उलझा लेती है । पर मृत्यु जब हमारी आत्मा के किसी अभिन्न सगे सम्बन्धी को अपनें घेरे में लेती है तब तथ्य एक सत्य बन जाता है । हम दार्शनिक न बनकर विवश मनुष्य बन जाते हैं और ज्ञान अपस्थान छोड़कर आंसुओं की अर्चना माँगता है । इसी प्रकार परिवार में नये अंकुरण और दैवी योजना हमें विस्मय से अभिभूत कर प्रकृति के सनातन जीवन -धर्मिता के प्रति नमित कर देती है । समय के विषय में एक कल्पना यह है कि वह अभिशापित होनें के कारण निरन्तर गतिमान रहता है और हर्ष -विषाद के प्रति सम्पूर्णतः तटस्थ रहकर अबाधित गति से श्रष्टि को प्रवह मान करता है । हमारे लिये काल की यह अबाधित गति प्रकृति की एक चिरन्तन प्रक्रिया है जो अपनी चिरन्तनता के कारण कई बार हमारा ध्यान तक आकृष्ट नहीं कर पाती । निरन्तरता ही सहजता के रूप में दिनचर्या बनकर हमारे लिये सामान्य क्रिया -कलापों की श्रेणी में आ जाती है । पर कुछ क्षण ऐसे होते हैं जब समय की निरन्तरता व्यक्ति विशेष के लिये रुक सी जाती है और उसे जीवन इतिहास के पन्नों में खो जाना पड़ता है । निरर्थकता के लम्बे आल -जाल में सार्थकता खोजनें का यह सजग प्रयास काल की चिरन्तन गति पर व्यक्ति विशेष के लिये एक विराम चिन्ह लगा देता है ।
लगभग 06 वर्ष का एक बालक ग्रीष्म ऋतु की एक शाम के धुंधलके में अपनें साथियों के साथ खेल कूंद में लगा हुआ था । वह यह तो जानता था कि उसके घर में उसके पिता किसी बीमारी से ग्रस्त हैं और उन्हें देखने के लिये गाँव के वयोवृद्ध वैद्य लालता प्रसाद जी अग्निहोत्री सुबह -शाम घर पर आते रहते हैं पर वह अभी तक मृत्यु की भीषणता के विषय में अनिभिज्ञ था । गाँव के हमउमर बालकों के बीच वह खेल कूंद में लगा रहनें के कारण बीमारी की भीषणता का अन्दाज नहीं कर पा रहा था । सम्भवतः पाँच छः वर्ष की उम्र ऐसी होती है जब मृत्यु की वास्तविकता का एहसास बच्चे के लिये सत्य बनकर नहीं उभरता । खेल -खेल के बीच दौड़ कर आते हुये उसके एक साथी नें खबर दी कि घर में रोना -पीटना प्रारम्भ हो गया है और उसके पिता का निधन हो चुका है । एक अज्ञात भय से ग्रसित होकर जब वह दालान में इकठ्ठा भीड़ में से रास्ता पाकर अन्दर घुसा तो उसनें अपनी माँ को अपनी बड़ी बहन और दो छोटे भाइयों के बीच बैठा हुआ और आर्तनाद करते हुये पाया । वह सहम कर माँ की गोद में छिप जाने के लिये प्रयत्न करनें लगा । माँ के पास बैठी मौसी और बुआ कही जाने वाली स्त्रियों नें उसे गोद में ले लिया । उसने सुना कि वैद्यराज पिताजी को अन्तिम प्रणाम देकर जा रहे हैं । भीड़ बढ़ती ही जा रही थी । गाँव के सभी वयोवृद्ध ,तरुण और आल -बाल वहाँ एकत्र हो चुके थे । वह अपनें पिता के साथ कुछ दिनों से गाँव के स्कूल में जानें लगा था और वह जानता था कि उसके पिता गाँव के मिडिल स्कूल में अध्यापक हैं और लोग उन्हें नमस्कार करते हैं और उनके साथ होनें के कारण उसे बहुत प्यार देते हैं । और उसे यह भी पता था कि उसके पिता अपनें स्वस्थ्य सुगठित शरीर और लम्बे कद के कारण गाँव के प्रमुख पुरुषों में स्थान पा चुके थे । उनकी शिक्षा और उनका चरित्र सभी के लिये प्रशंसा की वस्तु थी । इतना सब जानते हुये भी उसे यह ज्ञान न था कि पिता की मृत्यु के कारण परिवार के जीवन में आ जाने वाला अभाव उसे भविष्य में किन संकटों और संघर्षों में डाल देगा । माँ के पास बैठी स्त्रियां उन्हें सान्त्वना दे रही थीं पर वे मृत पिता के पैरों पर अपना सर रखे अचेत सी हो गयी थीं । उसकी बड़ी बहन और दोनों छोटे भाई भयभीत मृगशावकों की भांति चुप बैठे थे । द्रश्य की करुणामयता सभी का ह्रदय हिला रही थी । 32 -33 वर्ष का एक होनहार नवयुवक जो अपने स्वरूप ,शिक्षा और आचरण के बल पर कानपुर जनपद के शिवली -ग्राम का आदर्श पुरुष बन गया था नियति के क्रूर हांथों से अपनें परिवार से छीन लिया गया । अश्रुओं की धारा और हाहाकार स्वरों के बीच भयभीत बालक फूट -फूट कर रो पड़ा और बुआ ,मौसी की बांहों से छूटकर माँ की गोद में जा बैठा । बच्चों को निकट पाकर माँ का रक्षा भाव जागृत हुआ और उन्होंने बच्चो पर अपने दुलार भरे हाथ से स्पर्श किया । यहीं से उस जीवट की कहानी का प्रारम्भ होता है जो लगभग 65 -70 वर्ष आगे चलकर इतिहास के कई नये अध्याय रच गयी । साहस की इस अदभुत विजय कथा का कुछ ज्ञान आने वाली पीढ़ियों तक पहुँच सके इसलिये 06 वर्ष के उस बालक नें जो आज वार्धक्य के द्वार पर आ पहुंचा है इस जययात्रा को अक्षर वद्ध करने का विनम्र प्रयास किया है । यही उसकी अपनी मां के प्रति श्रद्धांजलि है । आइये प्रारम्भ से ही प्रारम्भ करें । (क्रमशः )
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