Thursday, 19 January 2017

.................................कुर्सी ग्राम कुर्सी की तरह ही चार पायों में विभाजित था । हम सब जिस पाये में रहते थे उसे किस्नन नेवादा कहा जाता था जो कृष्ण दत्त नेवादा का ग्रामीण भाषान्तरण था । स्कूल बड़ा गाँव पाये में था । किस्नन नेवादा और बड़ा गाँव के बीच लगभग दो तीन फर्लांग का अन्तर था । रास्ता एक मैदान से होकर जाता था । मैदान के बीच एक पगडण्डी थी और इधर उधर के पार्श्व भाग में सपाट कंकरीले प्रस्तार थे । दायीं ओर के प्रस्तरण में कुछ पक्की ऊँची इमारतें जीर्ण शीर्ण हालत में पडी थीं । उनके कंगूरे और बुर्जियां टूटी थीं तथा निचले भाग में झाड़ -झंखाड़ उग आये थे । ऐसा माना जाता था कि कृष्ण दत्त नेवादा के जमींदार रघुनन्दन का परिवार कभी वहाँ रहता था ,पर उन्होंने पड़ोस की किसी वृद्धा का छोटा सा खेत और झोपड़ी अपनें महल के लिये जबरदस्ती  छीन ली थी । उसी के शाप के फलस्वरूप उनका परिवार विनष्ट हो गया था और पानी देनें वाला भी कोई नहीं बचा था । नेवादा वालों नें यह नित्य चर्चा का विषय बना लिया था कि उन गिरते पड़ते खण्डहरों में अमावस की रात को जमींदार के विनष्ट परिवार की आत्मायें आती थीं और विचित्र प्रकार की डरावनी आवाजों से अमावसी अर्धरात्रि को वह निर्जन स्थान गूंजता रहता था । अमावस की रात को जो होता हो उसकी बात नेवादा के लोग ही जानें ,पर हम बच्चे दिन के समय विशेषतः स्कूल अवकाश के समय उन्ही टूटी फूटी इमारतों के आस पास और भीतर कूंदते फांदते और शोरगुल मचाते रहते थे । कमला अब  शायद पांचवीं में पहुँच चुकी थीं और मैं कक्षा चार में । छोटा राजा पहली  कक्षा में रहा होगा । मैं ,बहन और छोटे भाई के मुकाबले देखने सुननें में शायद कुछ हल्की श्रेणी का रहा हूँगा । पर अपनी कक्षा में मैं लगभग सबसे अच्छे विद्यार्थियों में शामिल किया जाता था । इसलिये स्कूल के सेवानिवृत्त मुख्य अध्यापक राम दास श्रीवास्तव जिन्हें मुंशीजी कहा जाता था ,मेरे में रूचि रखने लगे । उनका बड़ा लड़का सुराजी हो गया था । वह गान्धी टोपी और खद्दर के कुर्ता -पायजामा में सत्याग्रह आन्दोलन का सिपाही बन गया था । सम्भवतः उन दिनों जिला बोर्ड में पेन्शन नहीं होती थी और मुंशी जी पारवारिक खर्चा पूरा करनें के लिये प्राइमरी स्कूल के कुछ बच्चों को घर पर ट्यूशन पढ़ाते थे । मुन्शी जी के यहाँ पड़ोस के बच्चों के साथ मैं एकाध बार गया और मुन्शी जी नें मेरे प्रति एक सहृदय गार्जियन का रूप ले लिया । बिना किसी पैसे के उन्होंने अपनें पास आये हुये विद्यार्थियों में मुझे शामिल किया । यदि मैं किसी दिन न जा पाता तो वे घर पर किसी को भेज कर बुलवाते । बहुत पुरानी बात होनें पर भी मेरे मन पर उनकी अमिट छाप है । वे गणित के प्रभावी अध्यापक थे और उन्हीं की शिक्षा के फलस्वरूप मेरी तर्क बुद्धि विकास की ओर अग्रसर हो सकी । मिडिल व हाई स्कूल में गणित में तमीज आने के कारण भी उनकी प्रारम्भिक रहनुमाई ही थी । हाँ तो इसी टूटी फूटी इमारत के विस्तार में नेवादा के लडके -लड़कियों की भीड़ जुटती । अभी हम उस उम्र में थे जब लडके -लड़कियों  का भेद हमारे मन  में अलगाव की भावना पैदा नहीं कर पाया था । आज के दूर दर्शन और याहू संस्कृति की सेक्स चेतना उस समय के भारत के ग्राम्य समाज में प्रवेश नहीं कर पायी थी । लडकियां रस्सी लेकर उछलती कूदतीं या जमीन पर लकीरें खींचकर कूंद फांद करती और हम बच्चे कभी गोली खेलते और कभी कबड्डी । मुझे ख्याल है कि भीतर गाँव में एक मनिहारिन लाख की बहुत सुन्दर चिरंटी गोली बनाती थी जो एक पैसे में मिलती थी । मुझे जब कभी एक पैसा मिलता ,मैं वह गोली ले आता था । हम बच्चों में उस समय गूहापारी या लेन्डापारी का खेल बहुत प्रचलित था । मुझे याद है कि मैं दूर से गोली को गोली से मारकर अपनें साथियों को लेन्डापारी में कई शिकस्तें दे देता था । कमला और राजा माता जी के साथ ही स्कूल से वापिस आते ,पर मैं कभी छुट्टी में जल्दी आ जाता । मैं स्कूल न जाने वाले अन्य बच्चों के साथ उन इमारतों में खिलवाड़ में जुट जाता । इन्हीं बच्चों में एक अपेक्षाकृत बड़ा लड़का था -हमारे पड़ोसी दाढी बाबा का पोता बम भोला । 
                                 वह लगभग तेरह -चौदह वर्ष का था ,पर कद काठी में दस ग्यारह वर्ष का लगता था । उसमें सम्भवतः लिंगीय भेदभाव का ज्ञान उमड़ चुका था और कई बातों में वह हम छोटे बालकों को सनसनी खेज करिश्में करके विस्मय में डाल देता था । वह रात्रि के समय भीतर गाँव या बढ़ईपारा या कुर्मीटोला में होनें वाली नौटंकी में जाता रहता था और वहां के देखे गये द्रश्य हम सबके सामने अभिनीत कर हमें विस्मित करता ।उसके पिता छोटी सी खेती करते । दाढी बाबा काफी बुजुर्ग थे । घर में तीन छोटी बहनें थीं और मकान की छतें भी टपकती थीं ,पर वह इन सबसे निश्चिन्त रहकर नौटंकी में किये गये जोकर या हंसोड़ का रोल करना अपनी आदत बना बैठा था । हांथों को ऊपर नीचे उठाकर वह अक्सर एक विचित्र मुख मुद्रा बना कर कहता ,जैसे वह पुरुष न होकर वनमानुष हो "बामिबान बान बिन हुआ करे ,दम बनी रहे घर चुआ करे "। उसके चरित्र की कुछ कहानियाँ अजीबो- गरीब रूप लेकर पड़ोस में पहुंचने लगी थीं और चौथी पांचवीं कक्षा  में पढने वाली लड़कियों को उनके माता पिता जमीदार के खण्डहरों में जाने से मना करने लगे । एक दिन एक अजीब घटना घटी । उस जुलाई की एक शाम को मैं स्कूल बन्द होते ही अपना बस्ता माँ के पास छोड़कर दौड़कर जमीदार के खण्डहरों में आ गया । जैसा कि मैं कह चुका हूँ कि ये खण्डहर आम रास्ते से दूर थे और यहां नेवादा तथा भीतर गाँव के बच्चे खेलते रहते थे । बम भोला उन बच्चों के बीच मौजूद था और उन्हें पिछली रात को पास के गाँव में हुयी नौटंकी में जाने का किस्सा सुना रहा था मैं भी उस झुण्ड में शामिल हुआ । बमभोला किस्से कहानियाँ सुनाने में काफी उस्ताद था । कद काठी में बच्चों जैसा होनें और उम्र में किशोर हो जाने के कारण वह कई बार अधिकार की भाषा भी बोलता था । उसनें बताया कि कल रात की नौटंकी बड़ी मजेदार थी । उसमें सुल्ताना डाँकू ने मंगू बनिया को पकड़कर उससे छिपा हुआ धन देनें को कहा । मंगू नें पहले मना किया ,पर जब उसे पकड़कर आग में जलाया गया तो उसनें अपनें गड़े हुये धन की बात बतायी । बमभोला नें अपनें हांथों को जोकरों की तरह मटकाते हुये सुल्ताना डाकू की लाइनें बोलीं ,"लाला जी को लगी होगी सर्दी बहुत ,सेंक करके जिसम इनका करिये गरम ।"फिर लाला जी बोले ," नीम के नीचे गड़े हुये हैं घर में मेरे तीस हजार ।" आदि आदि । फिर उसनें बताया कि उसके बाद गजरा बाई का नाच हुआ । गजराबाई की नक़ल कर उसनें नाचने का अभिनय किया और गाना गाया -"लौंडा दैया हुईगा गले का हार ।" हम सब बच्चे खिलखिलाकर हँसते रहे । फिर उसनें कहा कि उसे दूर कब्रखानें के पास रहने वाले पीर साहब नें एक जादू मन्त्र सिखाया है । इस मन्त्र के कारण वह भूत और चुड़ैलों को पकड़कर हवा से बदलकर जानवरों का रूप दे सकता है । ( क्रमशः )

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