Wednesday, 18 January 2017

...................................कमला और मैं भी साथ हो लिये । साथ में मुख्य अध्यापिका के बड़े भाई सहारे के लिये थे । वे बहुत मिलनसार और परोपकारी अधेड़ उम्र के सज्जन थे । रास्ते में हरि गोद में चुप  हो गया । हमनें सोचा कि शायद दवा का फायदा हुआ हो ,पर यह हमारा भ्रम ही था । आश्रम पहुंचने पर बाबा बुलाकी नाथ नें बच्चे को अपने सामनें लिटवाकर चाकू से जमीन पर कुछ लकीरें खींचनी शुरू कीं । हरि अचेत अवस्था में था । बाबा नें गोरखी भाषा में कुछ शब्द बुदबुदाये । हरि नें आँखें खोलीं ,छटपटाया ,माँ की ओर देखा और सदा के लिये आँखें बन्द कर लीं । माँ के हाहाकार के बीच मुख्य अध्यापिका के बड़े भाई नें बाबा बुलाकी नाथ के आश्रम से फावड़ा उठाया और पचास गज दूर घनें पेड़ों के मध्य एक पीपल के नीचे हरि को भू समाधि दे दी । हम दोनों मृत्यु की विभीषका से कुछ परिचित हो गए थे पर उसका सम्पूर्ण अर्थ अभी बोधगम्य नहीं हुआ था । मैं नहीं जानता कि हरि अभी तक अपनी समाधि में सोया हुआ है या पीपल के पेंड में वायु शरीर में बैठा रहता है । हो सकता है  उसनें कहीं अन्य जन्म ले लिया हो और यह सोचना कितना अच्छा लगता है कि शायद कृपा निधान प्रभु नें आवागमन के बन्धन से ही मुक्त कर दिया हो । आज बुढापे की देहरी पर खड़ा होकर मैं ऐसा कुछ सोचता हूँ कि यदि हरि को ठीक उपचार मिला होता तो वह असमय काल की गोद में न सोता । उसे माँ की गोद शुरू से प्यारी थी । अगर निगोही का कोई व्यक्ति चीनी व  नमक के उचित  घोल की उपचार प्रक्रिया भी जानता होता तो शायद वह तरल टट्टियों से उबर कर धीरे -धीरे स्वस्थ हो जाता । पर यह सब मेरे दिमाग की चिन्तन लहरियाँ हैं । शायद यही सच हो जैसा कि अभी तक भारत के अधिकाँश ग्रामीण मानते हैं कि मृत्यु जब आनी होती है ,तब आती ही है और उपचार तभी सार्थक होता है जब विधाता के नियम में बीमार की जीवन रेखा शेष होती है । हम बच्चे अभी दुःख की पूर्ण भीषणता महसूस करने के लायक उम्र नहीं पा सके थे ,पर माँ के लिये तो उनके पति की मृत्यु के बाद यह एक ह्रदय विदारक त्रासदी थी । सभी प्रवचन और आश्वासन बिलखती हुयी किसी माँ को सहारा नहीं दे पाते । केवल काल की गति ही धीरे -धीरे उसके दुःख के घाव पर मरहम लगाती है । Time is a great healer आखिर जीवन तो जीना ही होता है और सामान्यतयाः जीवन की यात्रा बहुत से संवत्सरों से होकर गुजरती है ? इसलिये दर्द को भुलाकर ही जिया जा सकता है । हाँ यदा -कदा किसी प्रसंग में जब टीस उठती है तो जीवन की निरर्थकता अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह बन कर खड़ी हो जाती है । कुछ दिन बाद फिर वैसे ही चलनें लगा ,खाना -पीना ,हम तीनों बच्चों की पढ़ायी । मुझसे छोटा राजा भी अब पाटी पर एक दो लिखना सीखनें लगा था । बच्चों के आपसी झगड़ों और उनकी आवश्यकताओं की पूर्ति में माँ के मन को दुःख भूलने का एक दूसरा मार्ग मिला । ब्रम्हभट्ट जी काफी वृद्ध हो गये थे और उन्हें आसन्न मृत्य का भय सतानें लगा था । वे अक्सर शाम को हम लोगों के साथ बैठकर तुलसी के कवित्त और भजन सुनाया करते थे । लड़कपन से ही मेरी स्मृति कुछ तेज थी और उनका यह प्रिय कवित्त मुझे अपनें वार्धक्य में और भी प्रिय व  सार्थक लगनें लगा है -
                                           "रहे बलि विक्रम वेणु दधीच 
                                             रहे नहीं पारथ भारत ठाना 
                                             नाहि रहे दुरजोधन से 
                                             जिन चौंसठ कोस लो छत्र को ताना 
                                             रहे बलराम न वेयु रहे जिनकी 
                                             कखरी दशकंध समाना 
                                             धरा को प्रताप यहै तुलसी 
                                             जो फरा सो झरा ,जो ज़रा सो बुताना ।"
                     निगोही के स्कूल में ब्राम्हणी होनें के नाते माता जी का काफी सम्मान होनें लगा था क्योंकि मुख्य अध्यापिका ब्रम्हभट्ट के कुल की थीं जो भारतीय वर्ण व्यवस्था में ब्राम्हणों से कुछ नीचे का कुल स्तर माना जाता है । आजादी अभी नहीं आयी थी ,यद्यपि उसके लिये गान्धी जी के नेतृत्व में एक प्रबल अभियान आरम्भ हो गया था । ब्रम्हभट्ट जी के दोनों लडके खद्दर के कपडे पहनकर कांग्रेसी बन गये थे । बड़ा हाई स्कूल पास था और छोटा मिडिल क्लास । वे दोनों अपनी तहसील के अच्छे युवा कार्यकर्ता बन गये थे और कई बार घर में उनकी बात चीत से मुझे आने वाले एक नये युग की स्वतन्त्र वायु का रोमांचक स्पर्श महसूस होनें लगा था । इस बीच अपनी सारी स्थिरता के बावजूद माताजी  अपनें ट्रान्सफर की कोशिश में लगी थीं क्योंकि निगोही से शिवली का रास्ता काफी लम्बा तथा व्यवधान डालनें वाले झाड़ -झंखाडो व नदी नालों से भरा था । यह उनकी पहली नियुक्ति थी । उनके दिवंगत पति के व्यक्तित्व को ध्यान में रखते हुये जल्दी से जल्दी जहाँ हो सका उनकी नियुक्ति कर दी गयी थी । शिवली में उनके आने का प्रश्न ही नहीं उठता था क्योकि मुख्य अध्यापिका होने लायक उनका शैक्षिक अनुभव अभी सुदृढ़ नहीं हो पाया था और उप मुख्य अध्यापिका पद पर अभी राम कली मौसी पढ़ा रही थीं । वे बाल विधवा थीं और शिवली में अपनी बहन के परिवार के साथ रह रही थीं । वे बल्हरा में व्याही थीं और जिस बाजपेयी परिवार में वे व्याही थीं ,वह परिवार गिरजाशंकर बाजपेयी से दूर से सम्बन्धित था । गिरजा शंकर बाजपेयी अपनी शान -बान और ऊंचाई के लिये भारतीय प्रशासनिक सेवा में एक महान स्तम्भ के रूप में स्थापित थे । अतः उनसे दूर से भी सम्बन्धित अध्यापिका को स्थानातरित करने का प्रश्न ही नहीं उठता था । शिवली से चार कोस दूर कुर्सी नामक एक स्थान है ,जो चार भागों में बंटकर प्रत्येक भाग को अलग -अलग नाम चिन्हों से अभिव्यक्त करता है । यहीं कृष्णन नेवादा में मेरे परबाबा की इन्द्राणी नाम की कोई बहन एक शुक्ल परिवार में व्याही गयी थीं । उनका भरा पूरा परिवार उस समय वहाँ सम्पन्न घरानों में माना जाता था । इन्द्राणी जी दिवंगत हो चुकी थीं ,पर उस परिवार से शिवली वालों के सम्बन्ध चल रहे थे । माताजी नें प्रयास किया कि उनका तबादला कुर्सी में हो जाये तो रिश्तेदारी में रहकर वे कुछ निश्चिन्त हो जायेंगी । साथ ही शिवली से कुर्सी का रास्ता बैलगाड़ी द्वारा तीन चार घण्टों में तय किया जा सकेगा । रास्ते में शिवली वाली पाण्डु नदी तो थी पर भरी बरसात को छोड़कर उसमें गांठों तक ही पानी रहता था ,इसलिये बैलगाड़ी भी निकाली जा सकती थी । अभी तक पाण्डु नदी पर पुल नहीं था और न ही कोई सड़कें थीं । कानपुर जाने के लिये चार कोस पैदल चलकर शिवराजपुर जाकर छोटी लाइन की ट्रेन पकड़नी पड़ती थी । पर यह सब मेरे मिडिल पास करनें के बाद की बातें हैं गाँव के ही एक बाबू रामनारायण पाठक जिला बोर्ड में काम करते थे । ट्रान्सफर वाली कुर्सी सम्भवतः उन्ही के पास थी । माता जी उन्हें मामा कहकर पुकारती थीं । मामा नें कृपा की और पिता की प्रशस्ति में एक नोट लिखते हुये मेरी माँ के कुर्सी तबादले की संस्तुति की । तबादला हो गया और अगली जुलाई के प्रारम्भ में निगोही छोड़कर कुर्सी में जीवन यापन की योजना बनीं । कुर्सी का रुकना काफी लम्बे काल तक चला और वहीं से कमला बहन और मैनें कक्षा पाँच पास की । छोटा भाई अभी कक्षा दो में ही था इसलिये वह माँ के पास रुक सकता था । कुर्सी में केवल प्राइमरी स्कूल था पर मिडिल स्कूल नहीं था । बड़ी बहन कमला और मुझे शिवली में रहने के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं था । शिवली का मिडिल स्कूल बहुत दिनों से था और जिले में काफी ख्याति प्राप्त था । ट्रान्सफर होनें के आस -पास ही लड़कियों का स्कूल जो प्राइमरी था ,मिडिल स्कूल की मान्यता पा गया था । उन दिनों मैं छोटा था अतः मामा रामनारायण पाठक की अनुकम्पा के बोझ से काफी दबा था और जब कभी वे मेरी मिडिल स्कूल की शिक्षा के दौरान कानपुर से साल में एकाध बार गाँव में चक्कर लगाते तो मैं सुबह-शाम उनके पैर छूने अवश्य जाता था । मुझे याद आता है कि जब मैं हाई स्कूल पास कर चुका था तो माँ नें मुझे बताया था कि रामनारायण नें उनसे बीस रुपये की रिश्वत ली थी और तभी ट्रान्सफर की संस्तुति की थी । साथ ही उन्होंने यह भी कहा था कि यह बात अपनें लड़के से  कभी न बताना । माँ नें यह भी बताया कि राम नारायण पाठक कोई भी काम बिना रिश्वत के नहीं करते और मानते है कि रिश्वत लेना जिला बोर्ड के बाबुओं का धर्म है । माँ के बताने के बाद मेरे मन में रामनारायण पाठक के प्रति गहरे निरादर का भाव उमड़ आया । मुझे याद है कि हाई स्कूलकी  परीक्षा के बाद गाँव के बाहर मैं बम्बा के किनारे से आ रहा था तो एक पुळ से होकर मेरी तरफ की पटरी पर रामनारायण मेरे सामनें से गुजरे सदा की तरह उन्हें उम्मीद थी कि मैं उनके पैरों में हाँथ लगाऊँगा और पैर छुआनें के कारण ही वे पुल पार कर मेरी पटरी की तरफ आये थे । पर मैं उनकी तरफ अवज्ञा भरी आँखों से देखता हुआ सीधे निकल गया । मुझे लगा कि उनका चेहरा जैसे ज्योति विहीन हो गया हो । मैं समझता हूँ कि 15 -16 वर्ष की उम्र में किया गया मेरा वह व्यवहार मर्यादा के प्रतिकूल था पर अन्तर से कोई मुझे विश्वास दिलाता है कि ऐसे लोगों से इस प्रकार का व्यवहार ही करना चाहिये । इसके बाद रामनारायण पाठक मेरे लिये इतिहास की वस्तु बन गये । सम्भवतः वे उन्ही दिनों सेवा निवृत्त हो गये थे । कुर्सी के प्रारम्भ के एक दो वर्षों की बातें मेरी स्मृति पटल पर उभर कर आती हैं जिन्हें मैं अंकित करना चाहूंगा । निगोही जैसे छोटे से गाँव के लोगों नें माँ को भावभीनी विदाई दी थी और मुझे भी एक छोटा माला पहनाया गया था । सार्वजनिक अभिनन्दन की दिशा में यह मेरा पहला अनुभव था और इस अनुभव नें मुझे हमेशा प्रेरणा दी कि मैं हमेशा उस माला के योग्य बना रहूँ । (क्रमशः )

No comments:

Post a Comment