..............................राजा -रानी खण्डहर के निचले हिस्से में हम सब बच्चे खेलते थे ,पर कहीं -कहीं टूटी -फूटी सीढ़ियों से चढकर एकाध कमरे थे जो मकड़ी के जाले ,चमगादड़ों ,छिपकलियों और विषखांपरों से भरे थे । हम सब वहाँ जानें से डरते थे पर बमभोला कभी -कभी कोनें के कमरे में चला जाता था । काफी देर बाद जब वह आता तो बताता कि उसनें मन्त्र सिद्ध किया है । उस गोधूलि को भी उसने हमें बताया कि उसने मन्त्र के द्वारा एक भूत को जानवर बना कर कमरे में पत्थरों के नीचे दबा दिया है । उसने कहा कि हम सब उसके साथ भूत को देखने टूटी सीढ़ियों पर चढ़कर बिना दरवाजे वाले कमरे की ओर चलें । हम सब शंकालु थे ,पर बचपन की उम्र रहस्यों का भेद जाननें के लिये उतावली रहती है और हम अनमने पाँव से संभ्भल -संभ्भल कर सीढियां चढ़नें लगे । दरवाजे के पास पहुँचते ही अन्दर से एक चमगादड़ फड़फड़ाया और ईंटों के घेरे से एक बिल्ली का बच्चा म्याऊँ करता हुआ उछल भागा । हम सब डरकर सीढ़ियों से उतरकर अपने -अपनें घरों की ओर भागे । बमभोला कहता रहा ,ठहरो -ठहरो ,मेरे पास जादू मन्तर है ,पर हम कहाँ रुकने वाले थे । दौड़ते -दौड़ते मैंने पीछे मुड़कर देखा कि सत्तो का बेटा गुजरिया जो पाँच छः वर्ष का था ,पिछड़ गया है और बमभोला सीढ़ियों से उतर कर आ रहा है । मैं दौड़कर घर पहुँच गया । माता जी ,कमला और राजा पहले ही घर आ चुके थे माँ नें मुझे डांटा कि मैं इधर -उधर खेलकूंद में समय न बर्बाद किया करूँ । मुंशी जी के यहाँ पढ़ाई पर जानें का टाइम हो रहा था । उन्होंने मुझे कटोरी में राब देकर गेंहू की दो रोटियाँ खाने को दीं । हम सबको राब के साथ रोटी खाना बहुत अच्छा लगता था । कितनी बढ़िया दानेदार राब थी वो । आधुनिक कनफेक्शनरी के नाम पर जानी जाने वाली समस्त चीजों को चखकर मैं पूरी ईमानदारी से कहना चाहूंगा कि उस राब जैसा स्वाद मुझे कहीं नहीं मिल पाया । माँ नें बताया कि फूफाजी सिठमरा से आने वाले हैं । यह खबर उन्हें स्कूल में मिली थी । स्कूल में पढने वाली एक लड़की की बुआ सिठमरा में ब्याही थीं । वे अपने मायके कुर्सी आयीं थीं और उन्हीं के द्वारा फूफा गुरु प्रसाद नें यह सन्देशा भेजा था कि वे इतवार को परिवार से मिलनें कुर्सी आयेंगें । यहाँ यह बताना प्रासंगिक होगा कि मेरे पिताजी की एक बड़ी बहन थीं ,जिनका नाम दुर्गा देवी था । उन्हें बचपन में मैनें एकाध बार घर में देखा था । वे हम सबके लिये ढेर सारे खिलौनें लाती थीं । उनके पति ,हमारे फूफा ,गुरु प्रसाद कानपुर की किसी मिल में काम करते थे । कोई साधारण काम ही करते होंगें ,क्योंकि वे अधिक पढ़े -लिखे नहीं थे । पिताजी की मृत्यु के पहले ही बुआ जी की मृत्यु हो चुकी थी । और वह भी एक कन्या -प्रसव के समय । फूफा की कुछ जमीन सिठमरा में थी और उनका एक भाई वहीं रहता था । वे कभी -कभी कानपुर से सिठमरा आते थे । उनके आने की बात सुनकर मैं बड़ा खुश हुआ और राब -रोटी खाकर मुन्शी जी के यहां पढने चला गया । करीब आठ ,साढ़े आठ बजे हमारे घर के पड़ोस में दाढी बाबा के घर पर कुछ शोर गुल सुनायी पड़ा । मेरी माता जी भी सम्भवतः वहाँ गयी हुयी थीं । मैं लालटेन की रोशनी में गणित के सवाल कर रहा था । उस समय मुझे बुलाने के लिये पड़ोस के लड़के रामू को भेजा गया । मुझे आश्चर्य था कि मुझे क्यों बुलाया जा रहा है । वहाँ जानें पर मैनें देखा कि गुलरिया लेटा पड़ा है और उसके कच्छे में खून के दाग हैं । बमभोले का कहीं पता नहीं है और वह न जाने पड़ोस के किस गाँव में भाग गया है । सभी बच्चों से पूछा जा रहा था कि गुलरिया के साथ कौन था ,पर किसी बच्चे में हिम्मत नहीं थी कि वे बमभोले के खिलाफ कुछ कहते । सभी उसके जादू मन्त्र से डरते । लोगों के बीच मुन्शी जी भी थे । उन्होंने मुझे बुलाकर कहा कि विष्णु सच -सच बताओ ,क्या हुआ था । मैनें जो कुछ देखा था ,सब बता दिया और कहा कि गुलरिया पीछे छूट गया था और बमभोला सीढ़ियों पर खड़ा था । पर उसके आगे क्या हुआ यह मैं नहीं जानता । बमभोले नें गुलरिया को भूत प्रेतों की बात से इतना डरा दिया था कि वह मुँह नहीं खोल रहा था । दाढी बाबा नें मुन्शी जी के पैरों पर माथा रखकर कहा कि बमभोला जब भी घर आयेगा ,उसे वे मुन्शीजी के हवाले कर देंगें । पर घर की इज्जत के लिये वे पुलिस को न बुलावें । आखिकार बबुई वैद्य के इलाज से गुलरिया ठीक हो गया ,पर बमभोला मुझे फिर कभी गाँव में देखने को नहीं मिला । लोग कहते थे कि वह अपनें मामा के पास कैंझरी में रह रहा है और वहीं किसी सर्कस कम्पनी में भर्ती करा दिया गया है । ईश्वर जाने जो भी बात रही हो ।
अगले दिन सुबह आठ बजे फूफा गुरु प्रसाद आ गये । खाने में कुछ अतरिक्त वस्तुयें भी बनायी गयी थीं । चौके में पीढा डालकर उन्हें बिठाया गया और माताजी नें खाना परोसा । वे सिर पर धोती का छोर नीचे की ओर खींचे हुये थीं । गर्मी होनें के कारण उन्होंने हाँथ से पँखा झलना शुरू किया । मैं अभीतक सवर्ण हिन्दू समाज की सामाजिक मर्यादाओं का ज्ञान नहीं कर पाया था । मुझको यह बात समझ में नहीं आयी कि फूफा जी के लिये इन अतिरिक्त सुविधाओं की व्यवस्था क्यों की गयी है । आज बुढापे में प्रवेश करते समय मैं हिन्दू समाज की इस आन्तरिक संरचना से परिचित हो गया हूँ कि किसी घर की स्त्री वरण करने वाला पुरुष भारतीय परम्परा में एक अत्यन्त विशिष्ट अतिथि के रूप में लिया जाता है । फूफा और सलहज का नाता वैसे भी रस भरा नाता माना जाता है और शायद इसीलिये खाते -खाते बीच में कुछ हास्य भरी चुटकियाँ लेते जाते थे । मेरे बाबा बूढ़े हो चुके थे और माताजी को ऐसे किसी नजदीकी रिश्तेदार की आवश्यकता थी ,जो आगे चलकर उनके बच्चों के लिए मदद गार साबित हो सके । कमला मेरे से बड़ी थीं और कुलीन कान्यकुब्ज ब्राम्हण समाज में उन दिनों लड़की के वयः सन्धि प्राप्त होते ही वर की तलाश आरम्भ हो जाती थी । फूफा इस सम्बन्ध में मदद कर सकते थे । मैं भी दो -तीन साल बाद अंग्रेजी स्कूल में भेजे जाने के लिये तैयार किया जा रहा था और ऐसी हालत में कानपुर में ठिकाना होना चाहिये था । फूफा जी के साथ सम्बन्ध प्रगाढ़ता का शायद यही कारण रहा होगा जिसके कारण माँ उन्हें अतिरिक्त आदर सम्मान दे रही थीं । आगे चलकर इन फूफा जी नें दूसरी शादी कर ली थी और तब हमारे सम्बन्ध मधुर नहीं रहे थे ,पर वह बात यथास्थल की जायेगी । कुर्सी में माँ का अध्यापकी जीवन अपनी नियमित दिनचर्या के साथ चलता रहा और वे परिवार की एक शिक्षित सदस्या के रूप में काफी सम्मान पाने लगीं ,पर अभी तक वे प्राइमरी पास ही थीं और उन्हें अपनी तरक्की के लिये लोअर मिडिल क्लास पास करना आवश्यक था । शिक्षिकाओं के लिये विशेष प्रावधान किया गया था कि वे संस्था के बाहर रहकर भी शिक्षिका का कार्य करते हुये भी परीक्षा में शामिल हो सकती हैं । हिन्दी भाषा और धर्म शास्त्रों का माता जी का ज्ञान उनके काम आया । गणित और सामाजिक विज्ञान के प्रश्न उन्होंने तैय्यार किये और वे लोअर मिडिल की परिक्षा उत्तीर्ण हो गयीं । अब प्रश्न उठा कि उन्हें अध्यापन कला की दक्षता हासिल करने के लिये कोई कोर्स करना चाहिये । उ ० प्र ० सरकार नें उन शिक्षिकाओं के लिये जो नार्मल या सीटी का कोर्स नहीं किये थीं तीन महीने का एक ए ० टी ० सी ० या एडिशनल ट्रेनिंग कोर्स सुनिश्चित किया । यह प्रशिक्षण इलाहाबाद में अप्रैल ,मई व जून में सुनिश्चित होना तय हुआ । अब मैं पांचवीं की परीक्षा में बैठने जा रहा था । कमला पिछले वर्ष पांचवीं पास कर चुकी थीं और लोअर मिडिल की तैय्यारी में लगी थीं । कुर्सी में मिडिल स्कूल नहीं था ,इसलिये वे घर पर ही तैय्यारी कर रही थीं । बारहवें वर्ष में प्रवेश करते ही उनमें शारीरिक परिवर्तन के कुछ लक्षण आभाषित होनें लगे थे । मुन्शीजी को मेरे से बड़ी आशायें थीं । वे गाँव के लब्ध प्रतिष्ठित व्यक्ति थे और उनका लड़का 1942 के आन्दोलन में स्वतन्त्रता सेनानी बनकर कारावास में रहकर वापिस आ चुका था । खद्दर का कुर्ता पाजामा और टोपी में उसका व्यक्तित्व बड़ा सुशोभन लगता था और कुर्सी तथा आस -पास के लोग उसकी रह नुमाई में विश्वास रखते थे । जब मेरा प्राइमरी का रिजल्ट आया तो मैं आस -पास के दस कोसी स्कूलों में शायद सबसे ऊंचाई पर रहा हूँगा क्योंकि मुन्शी जी के सुपुत्र द्वारा सम्मानित किये जाने वाले बालकों में मुझे सबसे पहले बुलाया गया था और मुन्शी जी नें मेरी पीठ थपथपाई थी । पांचवीं पास करके मुझे मिडिल स्कूल में जाना था । मिडिल स्कूल शिवली में था ,कुर्सी में नहीं । माता जी नें तय किया कि मैं और कमला गाँव में कक्का के पास जाकर रहें मैं और कमला वहीं से प्राइवेट लोअर मिडिल क्लास का फ़ार्म भरें ,और मैं शिवली के मशहूर मिडिल स्कूल में छठी कक्षा में भर्ती होकर अपना अध्ययन जारी रखूँ । दस ग्यारह वर्ष का हो जाने के कारण मेरी समझ जीवन संघर्ष के वास्तविक रूप को देखनें की ओर झुक रही थी । माँ से अलग रहना मुझे रुचिकर न लगा । साथ ही मुझे मुन्शी जी की रहनुमाई से भी वंचित होना पड़ा ,पर चारा ही क्या था । आखिरकार अब मैं मिडिल स्कूल का विद्यार्थी था और उन दिनों मिडिल की शिक्षा पूरी करनें के बाद ट्रैनिंग करके मास्टरी मिल जाती थी । माँ नें सोचा होगा कि यदि लड़का आगे न पढ़ पाया तो वे मास्टर तो बनवा ही देंगीं । मास्टर बनना तो मेरे रक्त में था ही ,पर कब कहाँ और किस रूप में इसकी परिणित होगी यह भविष्य के गर्भ में ही था ।
शिवली के मिडिल स्कूल में मेरे प्रवेश के कुछ ही माह बाद मेरी एक मित्र मण्डली का परिगठन हो गया । उम्र की द्रष्टि से अभी मैं तेरह के आस -पास हूँगा ,पर पहली तिमाही में ही आन्तरिक परीक्षा के आधार पर मैं कक्षा में सर्वप्रथम रहा और लगभग हर विषय के प्राध्यापक नें मुझे सराहा । उनकी प्रशंसा से मैं संकोच में भर उठा और जब स्कूल के प्रधानाध्यापक शिव शंकर अग्निहोत्री नें मुझे अध्यापक कक्ष में बुलाकर अपने पिता के नाम को रोशन करने की बात कही ,तो मैं अपनें आँसू न रोक पाया और मैनें उनके चरणों में सिर रख दिया । उन्होंने मेरी पीठ थपथपाई और पितृ स्नेह का वात्सल्य भरा हाँथ फिराया । कक्षा के कुछ अन्य अच्छे विद्यार्थी मेरी सरल अहंकार हींन मनोभावना से प्रभावित हुये और वे मेरे नजदीकी मित्र बन गये । वंश लाल तिवारी ,श्री कृष्ण त्रिवेदी ,अवध बिहारी अग्निहोत्री ,रमा कान्त दीक्षित ,और मुन्नी लाल शुक्ल इनमें प्रमुख थे । आगे चलकर इन सभी नें गाँव के पैमानें से नापने पर अच्छी खासी उपलब्धियाँ हासिल की थी । वंश लाल न केवल अच्छे प्रवक्ता बनें बल्कि अपने समय के प्रमुख जन कलाकारों में स्थापित हुये । उनका जनक या शीरध्वज का धनुष यज्ञ का किया हुआ रोल उ ० प्र ० के कई जनपदों में चर्चित हुआ । अवध बिहारी तहसीलदार बनें । अन्य लोग भी अपने विषय के अधिकारी अध्यापक बनें और अपनें -अपनें जनपदों में प्रतिष्ठित व्यक्तित्व माने गये । पर ये सब बाद की बातें हैं । अभी तो कक्षा छः की शुरुआत थी । उन दिनों मिडिल स्कूल में कक्षा छः ,सात व आठ हुआ करते थे । दीगर भाषा के रूप में उर्दू पढ़ाई जाती थी । अंग्रेजी की शुरुआत उस समय तक मिडिल स्कूल में नहीं हुयी थी । शायद इसीलिये इन्हें वर्नाकुलर मिडिल स्कूल कहा जाता था । शहरों के हाई स्कूलों में उन दिनों पांचवीं- छठी से अंग्रेजी शुरू हो जाती थी ,पर देहातों के मिडिल स्कूलों में अंग्रेजी की जगह अधिकतर उर्दू का ही अध्ययन होता था । मिडिल पास करने के बाद देहात के मिडलची बच्चे शहर के स्कूलों में स्पेशल क्लास में भर्ती किये जाते थे और इस स्पेशल क्लास में अंग्रेजी में उत्तीर्ण होनें के बाद ही उन्हें आठवीं में उत्तीर्ण माना जाता था । शिवली के मिडिल स्कूल के प्रधानाध्यापक शिवशंकर, जब मैं कक्षा छः में था ,तभी सेवा निवृत्त हो गये । वे अपनें क्षेत्र में अपनी योग्यता और चरित्र के लिये प्रसिद्ध थे । वे अविवाहित थे और स्कूल के प्रांगण में बनें मुख्य अध्यापक के निवास में रहते थे । उनका मार्गदर्शन हमें मात्र कुछ महीनों का ही मिला ,पर उनकी स्मृति मेरे मन में अभी तक शेष है । मेरे पिताजी उनके जूनियर रह चुके थे और कुछ महीनों में ही उन्होंने मुझे अपना अनुचर बना लिया था । उनके बाद सती प्रसाद जी स्कूल के मुख्य अध्यापक बनें । सती प्रसाद जी शिव शंकर लाल के छोटे चचेरे भाई थे । उनका कद छोटा पर व्यक्तित्व बड़ा सौम्य था । वे एक दबंग मुख्य अध्यापक माने जाते थे और सभी विद्यार्थी उनके अपनें दफ्तर से बाहर निकलते ही शोर -गुल्ल बन्द कर देते थे और पढ़ाई में लग जाते थे । यहाँ मैं यह कहना चाहूँगा कि सन 1945 के आस पास उ ० प्र ० के गाँवों में मिडिल स्कूल का मुख्य अध्यापक एक अत्यन्त सम्माननीय व्यक्ति माना जाता था । मुझे याद है कि वे अपनें जनेऊ में दो तीन चाभियाँ बांधे हुये थे और शाम को जब अपनें घर से बाहर खेत या बगीचों की ओर जाते ,तो उनके चलनें से उन चाभियों में घन घन की आवाज होती थी । रास्तों में या घर के बाहर खुले क्षेत्रों में खेलते हुये बच्चे चाभियों की खनखनाहट सुनते ही भागकर कोनों में या दीवारों के पीछे छुप जाते थे । उस समय तक शिवली का प्राइमरी स्कूल मिडिल स्कूल के साथ ही था और मिडिल स्कूल के मुख्य अध्यापक का रोब रुआब प्राइमरी बच्चों पर भी कायम था । माताजी बरसात के बाद गाँव आयीं और खेतों में होनें वाले ज्वार ,मक्का या दालों की खरीफ की फसल का हिसाब -किताब कुछ दिन तक रहकर कर गयीं । मेरी बहन कमला के लिये लोअर मिडिल में बैठने की किताबें भी वे ले आयीं जिन्हें पढ़कर माता जी नें लोअर मिडिल किया था । जहाँ तक मैं समझता हूँ कि उस समय भी लड़कियाँ फ़ार्म भरकर संस्थागत न होने पर भी इम्तहान में बैठ सकती थीं । कमला के कोर्स में मैथलीशरण गुप्त का एक खण्ड काव्य जयद्रथ वध लगा था । मुझे अच्छी तरह याद है कि जयद्रथ वध की पंक्तियाँ मुझे अपनें सम्मोहन में बाँध लेती थीं । इस खण्ड काव्य के प्रथम पृष्ठ पर ही राष्ट्र कवि मैथलीशरण गुप्त नें रायबरेली जनपद के दौलतपुर ग्राम में जन्में अपनें गुरु आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के लिये ये पंक्तियाँ लिखी थी -
"पाई तुम्ही से वस्तु जो कैसे तुम्हें अर्पण करूँ, पर क्या परीक्षा रूप में पुस्तक न यह आगे धरूँ ?"खण्ड काव्य की प्रारभ्भिक चार पंक्तियाँ भी मुझे बहुत भायीं -
" अधिकार खोकर बैठ रहना यह महा दुष्कर्म है ,
न्यायार्थ अपनें बन्धु को भी दण्ड देना धर्म है ।
इस तत्व पर ही पाण्डवों का कौरवों से रण हुआ जो भव्य भारतवर्ष के कल्पान्त का कारण हुआ ।
अभी पाँच मई 2003 के आस -पास स्व ० हँसवती देवी के तेरहवीं अनुष्ठान के अवसर पर एकत्रित सगे -सम्बन्धियों के बीच बहन कमला नें प्रसंगवश यह कहा था कि मुझे तो लाला नें पढ़ा दिया था ,वरना मैं लोअर मिडिल की परीक्षा पास न कर पाती । ऐसा कहना एक बड़ी बहन का अपने छोटे भाई के प्रति अत्यधिक लगाव और प्यार के कारण ही हो सकता है । हाँ इतना अवश्य है कि हिन्दी के सम्बन्ध में उनकी कुछ एक जिज्ञासाओं का समाधान करनें का मैं प्रयास करता था । दरअसल कक्षा छः और सात में शिवली मिडिल स्कूल के उन दिनों के हिन्दी अध्यापक प ० उदय नारायण अपनें विषय के अधिकारी विद्वान थे । वे पास के हे गाँव -भैंसऊ से थे और उनका पढ़ाने का ढंग इतना रोचक था कि सारी कक्षा मंत्रमुग्ध सी हो जाती थी । वे बीच -बीच में पुराणों,महाकाव्यों और जनश्रुतियों के रोचक उदाहरण देकर साहित्य रसास्वादन की विद्यार्थी -प्रवृतियों को बढ़ावा देते रहते थे कभी -कभी वे विषय के अतिरिक्त भी काव्य रचना और साहित्य रचना की बातें कर उठते थे । शायद ऐसा रहा होगा कि उनका सजग साहित्यकार उनके अध्यापन के सांसारिक दायित्व के कारण अधिक विकास न पा सका हो और इसलिये वे कक्षा में पढ़ाते -पढ़ाते अपनी सृजनात्मक प्रतिभा के कुछ नमूनें पेश करते रहते थे । उनका एक दोहा मुझे आज तक याद है जो उन्होंने किसी संग्रह से उठाकर हमें भाषा के अभिद्यार्थ के सन्दर्भ से सम्बन्धित कर एक से अनेक अर्थी बन जानें के सन्दर्भ में सुनाया था । एक पण्डित जी वैद्यकी भी करते थे और पत्रा भी देखते थे अर्थात ज्योतिष की प्रक्रिया में भी पारंगत थे वे इतनें चर्चित हो गये थे कि अंग्रेजी कवि गोल्डस्मिथ के स्कूल मास्टर की भाँति वे बहुत माने जाते थे । उनके पास दवाओं और भविष्य की जानकारी के लिये जिज्ञासुओं की भीड़ लगी रहती थी । एक बार एक स्त्री का पति परदेश गया था वह स्त्री पंक्ति में काफी देर से खड़ी थी ,यह पूछने कि उसका रूठा हुआ परदेसी पति कब आयेगा । दूसरी तरफ दूसरी पंक्ति के प्रारम्भ में एक माँ छः सात वर्ष के बच्चे के साथ खड़ी थी ,जिसे लम्बे अरसे से दस्त व बुखार से गुजरना पड़ रहा था । दोनों स्त्रियों नें उतावली के साथ अपनी -अपनी समस्या का निदान माँगा । पण्डित जी नें एक दोहा दोनों को दे दिया जो इस प्रकार है -
ककिर पाथर तार ,जामन फलसा आँवला
सेब कदम कंचनार ,पीपल रत्ती तून तज ।
अब विज्ञजन ही इस दोहे के दोनों अर्थ निकालनें का प्रयास करें । मैं चाहूंगा कि वे थोड़ी देर के लिये अपनें मष्तिष्क पर दबाव डालकर मात्रायें इधर -उधर कर और द्विअर्थक शब्द के अर्थ अभिप्रेत से दोनों स्त्रियों की समस्याओं का असरदार निदान सिद्ध करनें का प्रयास करें । प ० उदय नारायण की शाब्दिक मर्मभेदिता का थोड़ा बहुत प्रसाद मुझे अपने जीवन में मिल सका ,इसके लिये मैं उनका ऋणी हूँ । कमला अब कुछ बड़ी होनी लगी थीं और लड़की को सयानी होते देखकर अम्मा के चेहरे पर चिन्ता की रेखायें घनी होनें लगी थीं । बीस बिस्वा प्रभाकर के अवस्थियों की लड़की बीस बिस्वा कान्यकुब्जों के घर में ही व्याही जा सकती थी । वर तलाश का दौर आरम्भ हो चुका था जो कई वर्षों तक चला । कहीं खोर के पाण्डेय ,कहीं बाला के शुक्ल ,कहीं श्रीकान्त के दीक्षित ,कहीं चट्टू के तिवारी -जहाँ कहीं किसी सोलह सत्रह वर्ष के लड़के की खबर मिलती ,माताजी की टटोल निर्णय की दिशाएँ तलाश करने लगतीं । (क्रमशः )
अगले दिन सुबह आठ बजे फूफा गुरु प्रसाद आ गये । खाने में कुछ अतरिक्त वस्तुयें भी बनायी गयी थीं । चौके में पीढा डालकर उन्हें बिठाया गया और माताजी नें खाना परोसा । वे सिर पर धोती का छोर नीचे की ओर खींचे हुये थीं । गर्मी होनें के कारण उन्होंने हाँथ से पँखा झलना शुरू किया । मैं अभीतक सवर्ण हिन्दू समाज की सामाजिक मर्यादाओं का ज्ञान नहीं कर पाया था । मुझको यह बात समझ में नहीं आयी कि फूफा जी के लिये इन अतिरिक्त सुविधाओं की व्यवस्था क्यों की गयी है । आज बुढापे में प्रवेश करते समय मैं हिन्दू समाज की इस आन्तरिक संरचना से परिचित हो गया हूँ कि किसी घर की स्त्री वरण करने वाला पुरुष भारतीय परम्परा में एक अत्यन्त विशिष्ट अतिथि के रूप में लिया जाता है । फूफा और सलहज का नाता वैसे भी रस भरा नाता माना जाता है और शायद इसीलिये खाते -खाते बीच में कुछ हास्य भरी चुटकियाँ लेते जाते थे । मेरे बाबा बूढ़े हो चुके थे और माताजी को ऐसे किसी नजदीकी रिश्तेदार की आवश्यकता थी ,जो आगे चलकर उनके बच्चों के लिए मदद गार साबित हो सके । कमला मेरे से बड़ी थीं और कुलीन कान्यकुब्ज ब्राम्हण समाज में उन दिनों लड़की के वयः सन्धि प्राप्त होते ही वर की तलाश आरम्भ हो जाती थी । फूफा इस सम्बन्ध में मदद कर सकते थे । मैं भी दो -तीन साल बाद अंग्रेजी स्कूल में भेजे जाने के लिये तैयार किया जा रहा था और ऐसी हालत में कानपुर में ठिकाना होना चाहिये था । फूफा जी के साथ सम्बन्ध प्रगाढ़ता का शायद यही कारण रहा होगा जिसके कारण माँ उन्हें अतिरिक्त आदर सम्मान दे रही थीं । आगे चलकर इन फूफा जी नें दूसरी शादी कर ली थी और तब हमारे सम्बन्ध मधुर नहीं रहे थे ,पर वह बात यथास्थल की जायेगी । कुर्सी में माँ का अध्यापकी जीवन अपनी नियमित दिनचर्या के साथ चलता रहा और वे परिवार की एक शिक्षित सदस्या के रूप में काफी सम्मान पाने लगीं ,पर अभी तक वे प्राइमरी पास ही थीं और उन्हें अपनी तरक्की के लिये लोअर मिडिल क्लास पास करना आवश्यक था । शिक्षिकाओं के लिये विशेष प्रावधान किया गया था कि वे संस्था के बाहर रहकर भी शिक्षिका का कार्य करते हुये भी परीक्षा में शामिल हो सकती हैं । हिन्दी भाषा और धर्म शास्त्रों का माता जी का ज्ञान उनके काम आया । गणित और सामाजिक विज्ञान के प्रश्न उन्होंने तैय्यार किये और वे लोअर मिडिल की परिक्षा उत्तीर्ण हो गयीं । अब प्रश्न उठा कि उन्हें अध्यापन कला की दक्षता हासिल करने के लिये कोई कोर्स करना चाहिये । उ ० प्र ० सरकार नें उन शिक्षिकाओं के लिये जो नार्मल या सीटी का कोर्स नहीं किये थीं तीन महीने का एक ए ० टी ० सी ० या एडिशनल ट्रेनिंग कोर्स सुनिश्चित किया । यह प्रशिक्षण इलाहाबाद में अप्रैल ,मई व जून में सुनिश्चित होना तय हुआ । अब मैं पांचवीं की परीक्षा में बैठने जा रहा था । कमला पिछले वर्ष पांचवीं पास कर चुकी थीं और लोअर मिडिल की तैय्यारी में लगी थीं । कुर्सी में मिडिल स्कूल नहीं था ,इसलिये वे घर पर ही तैय्यारी कर रही थीं । बारहवें वर्ष में प्रवेश करते ही उनमें शारीरिक परिवर्तन के कुछ लक्षण आभाषित होनें लगे थे । मुन्शीजी को मेरे से बड़ी आशायें थीं । वे गाँव के लब्ध प्रतिष्ठित व्यक्ति थे और उनका लड़का 1942 के आन्दोलन में स्वतन्त्रता सेनानी बनकर कारावास में रहकर वापिस आ चुका था । खद्दर का कुर्ता पाजामा और टोपी में उसका व्यक्तित्व बड़ा सुशोभन लगता था और कुर्सी तथा आस -पास के लोग उसकी रह नुमाई में विश्वास रखते थे । जब मेरा प्राइमरी का रिजल्ट आया तो मैं आस -पास के दस कोसी स्कूलों में शायद सबसे ऊंचाई पर रहा हूँगा क्योंकि मुन्शी जी के सुपुत्र द्वारा सम्मानित किये जाने वाले बालकों में मुझे सबसे पहले बुलाया गया था और मुन्शी जी नें मेरी पीठ थपथपाई थी । पांचवीं पास करके मुझे मिडिल स्कूल में जाना था । मिडिल स्कूल शिवली में था ,कुर्सी में नहीं । माता जी नें तय किया कि मैं और कमला गाँव में कक्का के पास जाकर रहें मैं और कमला वहीं से प्राइवेट लोअर मिडिल क्लास का फ़ार्म भरें ,और मैं शिवली के मशहूर मिडिल स्कूल में छठी कक्षा में भर्ती होकर अपना अध्ययन जारी रखूँ । दस ग्यारह वर्ष का हो जाने के कारण मेरी समझ जीवन संघर्ष के वास्तविक रूप को देखनें की ओर झुक रही थी । माँ से अलग रहना मुझे रुचिकर न लगा । साथ ही मुझे मुन्शी जी की रहनुमाई से भी वंचित होना पड़ा ,पर चारा ही क्या था । आखिरकार अब मैं मिडिल स्कूल का विद्यार्थी था और उन दिनों मिडिल की शिक्षा पूरी करनें के बाद ट्रैनिंग करके मास्टरी मिल जाती थी । माँ नें सोचा होगा कि यदि लड़का आगे न पढ़ पाया तो वे मास्टर तो बनवा ही देंगीं । मास्टर बनना तो मेरे रक्त में था ही ,पर कब कहाँ और किस रूप में इसकी परिणित होगी यह भविष्य के गर्भ में ही था ।
शिवली के मिडिल स्कूल में मेरे प्रवेश के कुछ ही माह बाद मेरी एक मित्र मण्डली का परिगठन हो गया । उम्र की द्रष्टि से अभी मैं तेरह के आस -पास हूँगा ,पर पहली तिमाही में ही आन्तरिक परीक्षा के आधार पर मैं कक्षा में सर्वप्रथम रहा और लगभग हर विषय के प्राध्यापक नें मुझे सराहा । उनकी प्रशंसा से मैं संकोच में भर उठा और जब स्कूल के प्रधानाध्यापक शिव शंकर अग्निहोत्री नें मुझे अध्यापक कक्ष में बुलाकर अपने पिता के नाम को रोशन करने की बात कही ,तो मैं अपनें आँसू न रोक पाया और मैनें उनके चरणों में सिर रख दिया । उन्होंने मेरी पीठ थपथपाई और पितृ स्नेह का वात्सल्य भरा हाँथ फिराया । कक्षा के कुछ अन्य अच्छे विद्यार्थी मेरी सरल अहंकार हींन मनोभावना से प्रभावित हुये और वे मेरे नजदीकी मित्र बन गये । वंश लाल तिवारी ,श्री कृष्ण त्रिवेदी ,अवध बिहारी अग्निहोत्री ,रमा कान्त दीक्षित ,और मुन्नी लाल शुक्ल इनमें प्रमुख थे । आगे चलकर इन सभी नें गाँव के पैमानें से नापने पर अच्छी खासी उपलब्धियाँ हासिल की थी । वंश लाल न केवल अच्छे प्रवक्ता बनें बल्कि अपने समय के प्रमुख जन कलाकारों में स्थापित हुये । उनका जनक या शीरध्वज का धनुष यज्ञ का किया हुआ रोल उ ० प्र ० के कई जनपदों में चर्चित हुआ । अवध बिहारी तहसीलदार बनें । अन्य लोग भी अपने विषय के अधिकारी अध्यापक बनें और अपनें -अपनें जनपदों में प्रतिष्ठित व्यक्तित्व माने गये । पर ये सब बाद की बातें हैं । अभी तो कक्षा छः की शुरुआत थी । उन दिनों मिडिल स्कूल में कक्षा छः ,सात व आठ हुआ करते थे । दीगर भाषा के रूप में उर्दू पढ़ाई जाती थी । अंग्रेजी की शुरुआत उस समय तक मिडिल स्कूल में नहीं हुयी थी । शायद इसीलिये इन्हें वर्नाकुलर मिडिल स्कूल कहा जाता था । शहरों के हाई स्कूलों में उन दिनों पांचवीं- छठी से अंग्रेजी शुरू हो जाती थी ,पर देहातों के मिडिल स्कूलों में अंग्रेजी की जगह अधिकतर उर्दू का ही अध्ययन होता था । मिडिल पास करने के बाद देहात के मिडलची बच्चे शहर के स्कूलों में स्पेशल क्लास में भर्ती किये जाते थे और इस स्पेशल क्लास में अंग्रेजी में उत्तीर्ण होनें के बाद ही उन्हें आठवीं में उत्तीर्ण माना जाता था । शिवली के मिडिल स्कूल के प्रधानाध्यापक शिवशंकर, जब मैं कक्षा छः में था ,तभी सेवा निवृत्त हो गये । वे अपनें क्षेत्र में अपनी योग्यता और चरित्र के लिये प्रसिद्ध थे । वे अविवाहित थे और स्कूल के प्रांगण में बनें मुख्य अध्यापक के निवास में रहते थे । उनका मार्गदर्शन हमें मात्र कुछ महीनों का ही मिला ,पर उनकी स्मृति मेरे मन में अभी तक शेष है । मेरे पिताजी उनके जूनियर रह चुके थे और कुछ महीनों में ही उन्होंने मुझे अपना अनुचर बना लिया था । उनके बाद सती प्रसाद जी स्कूल के मुख्य अध्यापक बनें । सती प्रसाद जी शिव शंकर लाल के छोटे चचेरे भाई थे । उनका कद छोटा पर व्यक्तित्व बड़ा सौम्य था । वे एक दबंग मुख्य अध्यापक माने जाते थे और सभी विद्यार्थी उनके अपनें दफ्तर से बाहर निकलते ही शोर -गुल्ल बन्द कर देते थे और पढ़ाई में लग जाते थे । यहाँ मैं यह कहना चाहूँगा कि सन 1945 के आस पास उ ० प्र ० के गाँवों में मिडिल स्कूल का मुख्य अध्यापक एक अत्यन्त सम्माननीय व्यक्ति माना जाता था । मुझे याद है कि वे अपनें जनेऊ में दो तीन चाभियाँ बांधे हुये थे और शाम को जब अपनें घर से बाहर खेत या बगीचों की ओर जाते ,तो उनके चलनें से उन चाभियों में घन घन की आवाज होती थी । रास्तों में या घर के बाहर खुले क्षेत्रों में खेलते हुये बच्चे चाभियों की खनखनाहट सुनते ही भागकर कोनों में या दीवारों के पीछे छुप जाते थे । उस समय तक शिवली का प्राइमरी स्कूल मिडिल स्कूल के साथ ही था और मिडिल स्कूल के मुख्य अध्यापक का रोब रुआब प्राइमरी बच्चों पर भी कायम था । माताजी बरसात के बाद गाँव आयीं और खेतों में होनें वाले ज्वार ,मक्का या दालों की खरीफ की फसल का हिसाब -किताब कुछ दिन तक रहकर कर गयीं । मेरी बहन कमला के लिये लोअर मिडिल में बैठने की किताबें भी वे ले आयीं जिन्हें पढ़कर माता जी नें लोअर मिडिल किया था । जहाँ तक मैं समझता हूँ कि उस समय भी लड़कियाँ फ़ार्म भरकर संस्थागत न होने पर भी इम्तहान में बैठ सकती थीं । कमला के कोर्स में मैथलीशरण गुप्त का एक खण्ड काव्य जयद्रथ वध लगा था । मुझे अच्छी तरह याद है कि जयद्रथ वध की पंक्तियाँ मुझे अपनें सम्मोहन में बाँध लेती थीं । इस खण्ड काव्य के प्रथम पृष्ठ पर ही राष्ट्र कवि मैथलीशरण गुप्त नें रायबरेली जनपद के दौलतपुर ग्राम में जन्में अपनें गुरु आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के लिये ये पंक्तियाँ लिखी थी -
"पाई तुम्ही से वस्तु जो कैसे तुम्हें अर्पण करूँ, पर क्या परीक्षा रूप में पुस्तक न यह आगे धरूँ ?"खण्ड काव्य की प्रारभ्भिक चार पंक्तियाँ भी मुझे बहुत भायीं -
" अधिकार खोकर बैठ रहना यह महा दुष्कर्म है ,
न्यायार्थ अपनें बन्धु को भी दण्ड देना धर्म है ।
इस तत्व पर ही पाण्डवों का कौरवों से रण हुआ जो भव्य भारतवर्ष के कल्पान्त का कारण हुआ ।
अभी पाँच मई 2003 के आस -पास स्व ० हँसवती देवी के तेरहवीं अनुष्ठान के अवसर पर एकत्रित सगे -सम्बन्धियों के बीच बहन कमला नें प्रसंगवश यह कहा था कि मुझे तो लाला नें पढ़ा दिया था ,वरना मैं लोअर मिडिल की परीक्षा पास न कर पाती । ऐसा कहना एक बड़ी बहन का अपने छोटे भाई के प्रति अत्यधिक लगाव और प्यार के कारण ही हो सकता है । हाँ इतना अवश्य है कि हिन्दी के सम्बन्ध में उनकी कुछ एक जिज्ञासाओं का समाधान करनें का मैं प्रयास करता था । दरअसल कक्षा छः और सात में शिवली मिडिल स्कूल के उन दिनों के हिन्दी अध्यापक प ० उदय नारायण अपनें विषय के अधिकारी विद्वान थे । वे पास के हे गाँव -भैंसऊ से थे और उनका पढ़ाने का ढंग इतना रोचक था कि सारी कक्षा मंत्रमुग्ध सी हो जाती थी । वे बीच -बीच में पुराणों,महाकाव्यों और जनश्रुतियों के रोचक उदाहरण देकर साहित्य रसास्वादन की विद्यार्थी -प्रवृतियों को बढ़ावा देते रहते थे कभी -कभी वे विषय के अतिरिक्त भी काव्य रचना और साहित्य रचना की बातें कर उठते थे । शायद ऐसा रहा होगा कि उनका सजग साहित्यकार उनके अध्यापन के सांसारिक दायित्व के कारण अधिक विकास न पा सका हो और इसलिये वे कक्षा में पढ़ाते -पढ़ाते अपनी सृजनात्मक प्रतिभा के कुछ नमूनें पेश करते रहते थे । उनका एक दोहा मुझे आज तक याद है जो उन्होंने किसी संग्रह से उठाकर हमें भाषा के अभिद्यार्थ के सन्दर्भ से सम्बन्धित कर एक से अनेक अर्थी बन जानें के सन्दर्भ में सुनाया था । एक पण्डित जी वैद्यकी भी करते थे और पत्रा भी देखते थे अर्थात ज्योतिष की प्रक्रिया में भी पारंगत थे वे इतनें चर्चित हो गये थे कि अंग्रेजी कवि गोल्डस्मिथ के स्कूल मास्टर की भाँति वे बहुत माने जाते थे । उनके पास दवाओं और भविष्य की जानकारी के लिये जिज्ञासुओं की भीड़ लगी रहती थी । एक बार एक स्त्री का पति परदेश गया था वह स्त्री पंक्ति में काफी देर से खड़ी थी ,यह पूछने कि उसका रूठा हुआ परदेसी पति कब आयेगा । दूसरी तरफ दूसरी पंक्ति के प्रारम्भ में एक माँ छः सात वर्ष के बच्चे के साथ खड़ी थी ,जिसे लम्बे अरसे से दस्त व बुखार से गुजरना पड़ रहा था । दोनों स्त्रियों नें उतावली के साथ अपनी -अपनी समस्या का निदान माँगा । पण्डित जी नें एक दोहा दोनों को दे दिया जो इस प्रकार है -
ककिर पाथर तार ,जामन फलसा आँवला
सेब कदम कंचनार ,पीपल रत्ती तून तज ।
अब विज्ञजन ही इस दोहे के दोनों अर्थ निकालनें का प्रयास करें । मैं चाहूंगा कि वे थोड़ी देर के लिये अपनें मष्तिष्क पर दबाव डालकर मात्रायें इधर -उधर कर और द्विअर्थक शब्द के अर्थ अभिप्रेत से दोनों स्त्रियों की समस्याओं का असरदार निदान सिद्ध करनें का प्रयास करें । प ० उदय नारायण की शाब्दिक मर्मभेदिता का थोड़ा बहुत प्रसाद मुझे अपने जीवन में मिल सका ,इसके लिये मैं उनका ऋणी हूँ । कमला अब कुछ बड़ी होनी लगी थीं और लड़की को सयानी होते देखकर अम्मा के चेहरे पर चिन्ता की रेखायें घनी होनें लगी थीं । बीस बिस्वा प्रभाकर के अवस्थियों की लड़की बीस बिस्वा कान्यकुब्जों के घर में ही व्याही जा सकती थी । वर तलाश का दौर आरम्भ हो चुका था जो कई वर्षों तक चला । कहीं खोर के पाण्डेय ,कहीं बाला के शुक्ल ,कहीं श्रीकान्त के दीक्षित ,कहीं चट्टू के तिवारी -जहाँ कहीं किसी सोलह सत्रह वर्ष के लड़के की खबर मिलती ,माताजी की टटोल निर्णय की दिशाएँ तलाश करने लगतीं । (क्रमशः )
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