Sunday, 19 June 2016

...................... हम बीते कल को बोझ न बनावें पर बीते कल में   बहुत कुछ ऐसा है जो आज के लिये सहेजा जा सकता है । भारत के आर्थिक सूत्रधार भारत की सांस्कृतिक परम्परा से समाज में व्याप्त आर्थिक विषमता दूर करने के लिये बहुत सी बातें सीख सकते हैं । मेरा मानना है  कि भारत की अधिकतर सामाजिक विसंगतियों और आर्थिक अभावों का मूल कारण औसत भारतीय के जीवन में कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी का अभाव है । किसी भी देश की तरुणाई पथ प्रदर्शन के लिये नेतृत्व की ओर देखती है या सन्त महात्माओं की ओर । कल के भारत में इस द्रष्टि के लिये बहुत कुछ था पर आज के भारत में बहुत कम । हमें इस दिशा में लफ्फाजी छोड़कर ठोस आदर्श उपस्थित करने की आवश्यकता है । गांधी जी के इस द्रष्टिकोण को फिर से अपनाने की आवश्यकता है कि पूँजी का संचयन व्यापक सामाजिक हित के लिये किया जाना चाहिये । कि पूंजीके ऊपर सर्प की भांति बैठे रहना एक भयावह प्रवत्तिहै उसे जनहित के लिये लगाना चाहिये । दुर्भाग्य है कि आज अधिकाँश लोग सरकारी पैसे की चोरी को चोरी ही नहीं मानते हैं । बिजली की चोरी ,टैक्स की चोरी ,सरकारी मैटीरियल  की चोरी ,हमारे जीवन का सहज अंग बन गयी है । ऊपर से लेकर नीचे तक निर्माण विभाग के निश्चित प्रतिशत लिफाफों में बन्द होकर कुर्सी पर बैठे लोगों के पास पहुँच जाते हैं यह सब कैसे बन्द होगा ?भ्रष्टाचार रूपी सुरसा का मुँह बढ़ता ही जा रहा है । कई बार तो ऐसा लगने लगता है कि सत्य का थोड़ा बहुत अंश तो माओवादी और नक्सलवादियों के साथ भी है । कहीं ऐसा तो नहीं कि चांद पर पाये गये खनिजों और शुक्र पर पाये गये शक्ति भण्डारों के लिये चुपके -चुपके नरसंहार की तैयारियाँ चल रही हों । कहीं ऐसा तो नहीं कि सहलिंगी सेक्स को स्वीकृति देकर और स्वछन्द आचरण को कानूनी जामा पहनाकर हम उन विषाणुओं को बुला रहे हों जो मानव जाति को ही एक दो पीढ़ियों में समाप्त कर दे । कहीं ऐसा तो नहीं कि नग्न पूँजी खेल के समर्थक एक ऐसी राजनैतिक व्यवस्था को जन्म दे रहे हों जहाँ हर समर्थ अपने कमजोर भाई -बन्धुओं के घर बार और बीबियाँ लूट लेगा । अपनी तेज चाल में हमें ठहरकर इसपर सोचना होगा अन्धाधुन्ध रफ़्तार से मोटर साइकिल में बैठे हुये तीन चार गैर जिम्मेवाराना नवयुवक यह नहीं जानते कि मृत्यु उन्हें अपनी  ओर बुला रही है । कहीं मानव जाति यह मानने पर विवश तो नहीं हो रही है कि मानव जीवन का कोई उद्देश्य ही नहीं है ।  कि मानव जीवन का आविर्भाव एक निरर्थक घटना है , कि भोग की शक्ति क्षीण होने के बाद जीना एक पाप है , कि वृद्ध जनों को पशु -पक्षियों की भांति समाज से खदेडकर मरने पर विवश कर दिया जाये । हमें भूलना नहीं चाहिये कि प्रकृति ने पेट की एक सीमा बनायी है । निरन्तर अधिक खाते रहने से हम मृत्यु को ही बुलावा देते हैं । यदि अपने पास आवश्यकता से कुछ अधिक हो तो उसे जरूरतमन्द को देने का सुख ईश्वर आराधना का सा सुख देता है । हमें अपने अर्थशास्त्रियों से एक ऐसी राह दिखाने का अनुरोध है जो खुली रहकर निरन्तर हवादार रास्ते बनाती जाये न कि एक ऐसी राह जो किसी अँधेरे में जाकर किसी शमशान में जाकर गुम हो जाती हो । मेरी पुकार शीर्ष पर बैठे लोगों तक न भी पहुँचे तो भी मुझे कोई दुःख नहीं है । मेरे ज्ञान ने मुझे जिस सत्य तक पहुंचाया है उसे मैं निरन्तर दोहराता रहूगाँ भले ही मेरा विश्वास आधारहीन हो पर मैं जानता हूँ कि भूल भटक कर मानव जाति भारत के जीवन दर्शन को अपनाकर ही सच्चा जीवन सुख प्राप्त कर सकेगी । भारतीय जीवन दर्शन की तीन प्रमुख बाते हैं - छद्महीन शत -प्रतिशत वित्तीय ईमानदारी ,पति -पत्नी सम्बन्ध की अटूट पवित्रता और नैतिक मूल्यों से सन्चालित बौद्धिक या शारीरिक श्रम से अर्जित धन से परिवार का भरण -पोषण तथा शिक्षा -दीक्षा । आइये हम मूल्यों के इस त्रिभुज को फिर से अपने आस -पड़ोस खड़ा कर दें ।' माटी ' इस प्रयास में आपके साथ निरन्तर सहयोगी के रूप में काम करेगी । 

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