...................... अपने विद्यार्थी दिनों की कुछ कहानियाँ मेरे मष्तिष्क में घूम जाती हैं । लियो टालस्टाय की कालजयी कहानी " How Much Land Does A Man Need ." में मनुष्य के अनियन्त्रित लालच की करुण कथा चित्रित की गयी है । सूर्योदय से सूर्यास्त तक आप जितनी जमीन अपनी दौड़ के दायरे में ले आवें वह आपकी हो जायेगी । कहानी का प्रमुख पात्र दौड़ते -दौड़ते बेदम होकर डूबते हुये सूरज की ओर देखता है और फिर थोड़ी और जमीन घेर लेने की प्राणलेवी लिप्सा में आख़िरी छलांगें लगाता है । इधर सूर्यास्त होता है उधर सीमा पर पहुँचते ही दानवी लिप्सा के कारण कहानी के प्रमुख पात्र का प्राणान्त । अब आप ही सोचिये उसे कितनी भूमि की आवश्यकता थी । मृत्यु के बाद तो शायद दो गज जमीन ही काफी है पर मृत्यु के पहले की अपार लिप्सा न जाने कितने सिकन्दर ,नेपोलियन ,चंगेज खाँ ,हलाकू ,हिटलर और मुसोलनी आदि को खा चुकी है । जो बात व्यक्ति के सन्दर्भ में सही है वही देश या राष्ट्र के सम्बन्ध में भी सही है । दुनिया के चौधरी बनने का ढोंग अपने वैज्ञानिक रग पट्ठों की ताकत दिखाकर बहुत दिनों तक नहीं चलाया जा सकता । काल के अनन्त प्रवाह में न जाने कितने सुनहरे बुलबुले फूटकर विलीन हो जाते हैं । इसी सन्दर्भ में मुझे एक दूसरी कहानी का स्मरण हो आता है । यह कहानी है मोपांसा की " The Diamond Neck Lace ." इस कहानी में मैटिल्डा नामकी सुन्दरी तरुणी ख़्वाब देखती है कि वह राजमहलों में रहे ,खानसामा उसके लिये खाना लगायें ,शोफर उसके लिये वेश कीमती गाड़ियों का दरवाजा खोलें ,और उसके पास पहनने के लिये रत्नों से सजे अमूल्य आभूषण हों । सामान्य घर की यह तरुणी एक सामान्य घर में व्याही जाती है । उसका लिपिक पति अपनी सुन्दरी पत्नी के ख़्वाबों से मानसिक विक्षोभ की स्थिति में रहता है । किसी प्रकार उसे अपने विभाग के मंत्री के घर होने वाली एक पार्टी का निमन्त्रण मिल जाता है । वह अपनी पत्नी को इस उच्च वर्ग की पार्टी में ले चलने की बात कहता है तो मैटिल्डा अपने पास आभूषण न होने का रोना रोती है । पति उसे राय देता है क्यों न वह अपनी धनी सहेली से एक रात के लिये हीरे का हार माँग ले । मैटिल्डा ऐसा ही करती है । उस रात उसके सौन्दर्य की धूम मची रहती है । पार्टी में बड़े -बड़े लोग पार्टी में उसके साथ नाचने के लिये उत्सुक रहते हैं । बेचारा पति एक कोने में दुबका बैठा रहता है । पार्टी के बाद वापस आते समय वह पाती है कि उसका हार गले में नहीं है । हार पाने की सारी तलाश व्यर्थ रहती है । अब क्या किया जाये ? उधार तो चुकाना ही है । इस अत्यन्त रोचक कहानी का अन्त हमें झूठे ख्वाबों से दूर रहने की समर्थ द्रष्टि देता है । बेचारी मैटिल्डा अपनी सारी जवानी छोटी -मोटी बचत कर पैसे जुटाने में लगी रहती है ताकि उधार चुकाया जा सके । वह असमय वृद्ध हो जाती है । मोपांसा फ्रांस के एक बहुत समर्थ कहानीकार हैं और विश्व के तीन श्रेष्ठ कहानीकारों में माने जाते हैं । उन्होंने इस कहानी को एक नाटकीय मोड़ देकर इसके अन्त को रोचक बना दिया है पर कहानी की कलात्मकता पर मुझे कुछ नहीं कहना है । मुझे तो यही कहना है कि धनी होने का दिखावा ,छलनाओं के पीछे दौड़ना और ख्वाबों की साया में सोना किसी भी देश की तरुण पीढ़ी के लिये आत्मघात से कम नहीं है ।
अंग्रेजों के लम्बे शासन काल में भारत ने विज्ञान और तकनीक के लिये कुछ नयी द्रष्टियां अर्जित की हैं । इस बात का श्रेय हमें योरोप के लोगों को देना ही होगा पर भारत ने जो खोया है वह इस लाभ से सहस्त्रों गुना भारी है । भारत ने खोया है आत्म विश्वास । भारत ने खोयी है वह अन्वेषक द्रष्टि जो अतीत के तल से गड़ी स्वदेशी चिन्तन की स्वर्ण मुद्रायें खोज लाती है । आजादी के बाद हमनें अपनी मिट्टी को रासायनिक खादों से भर दिया और अब जब राष्ट्र की रक्त प्रणाली कृमिकीटों से भर गयी तो फिर हम देशी खाद की ओर मुड रहे हैं । स्वतन्त्रता प्रारम्भ के कुछ वर्षों के बाद खुली पूँजी के पैरोकारों ने खुली लूट की स्वतन्त्रता पा ली और अब हम फिर अर्थव्यवस्था पर सामाजिक नियन्त्रण की बात कह रहे हैं । नारी स्वतंत्रताके नाम पर हमनें भारत में आत्मा के अमर बन्धन विवाह सम्बन्ध को शरीर के खिलवाड़ से जोड़ दिया और अब जब तलाकों और अवैध सन्तानों की भरमार हो रही है तो फिर हमें मजबूर होकर विवाह सम्बन्ध की पवित्रता की बात माननी पड रही है । मूत्रालयों ,शौच घरों ,रिक्शावाड़ों और तांगा स्टैण्ड पर अंग्रेजी की गालियाँ पहुँच जाने के बाद अब हम फिर अपनी भाषा का शिष्टाचार सराहने लगे । दरअसल हर अति अन्त में मुड़कर अपने प्रारम्भिक मूल्यों की तलाश करती है । ऐसा ही कुछ आज के भारत के सन्दर्भ में हो रहा है । (क्रमशः )
अंग्रेजों के लम्बे शासन काल में भारत ने विज्ञान और तकनीक के लिये कुछ नयी द्रष्टियां अर्जित की हैं । इस बात का श्रेय हमें योरोप के लोगों को देना ही होगा पर भारत ने जो खोया है वह इस लाभ से सहस्त्रों गुना भारी है । भारत ने खोया है आत्म विश्वास । भारत ने खोयी है वह अन्वेषक द्रष्टि जो अतीत के तल से गड़ी स्वदेशी चिन्तन की स्वर्ण मुद्रायें खोज लाती है । आजादी के बाद हमनें अपनी मिट्टी को रासायनिक खादों से भर दिया और अब जब राष्ट्र की रक्त प्रणाली कृमिकीटों से भर गयी तो फिर हम देशी खाद की ओर मुड रहे हैं । स्वतन्त्रता प्रारम्भ के कुछ वर्षों के बाद खुली पूँजी के पैरोकारों ने खुली लूट की स्वतन्त्रता पा ली और अब हम फिर अर्थव्यवस्था पर सामाजिक नियन्त्रण की बात कह रहे हैं । नारी स्वतंत्रताके नाम पर हमनें भारत में आत्मा के अमर बन्धन विवाह सम्बन्ध को शरीर के खिलवाड़ से जोड़ दिया और अब जब तलाकों और अवैध सन्तानों की भरमार हो रही है तो फिर हमें मजबूर होकर विवाह सम्बन्ध की पवित्रता की बात माननी पड रही है । मूत्रालयों ,शौच घरों ,रिक्शावाड़ों और तांगा स्टैण्ड पर अंग्रेजी की गालियाँ पहुँच जाने के बाद अब हम फिर अपनी भाषा का शिष्टाचार सराहने लगे । दरअसल हर अति अन्त में मुड़कर अपने प्रारम्भिक मूल्यों की तलाश करती है । ऐसा ही कुछ आज के भारत के सन्दर्भ में हो रहा है । (क्रमशः )
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