एक साँझ ढल गयी किसी का दुःख न बाँटा ।
दीप्ति काल टल गया व्याप्त नीरव सन्नाटा ॥
एक कदम उठ गया मौत की मंजिल पाने ।
एक लहर उठ चली काल की प्यास बुझाने ॥
एक पृष्ठ बह् गया प्रलय की जलधारा में ।
एक गीत घिर गया गद्य की घनकारामें ॥
त्याग पुष्प झड़ गया शेष ममता का काँटा ।
एक साँझ ढल गयी किसी का दुःख न बाँटा ॥
जीवन सरिता नित प्रति बहती ही रहती है ।
स्वत्व -समर्पण की गाथा कहती रहती है ॥
पर आकंठ समर्पण -सुरसरि वही नहाते ।
आत्माहुति दे जीवन न्योछावर कर जाते ॥
भास्कर का क्या अर्थ न यदि घन दुःख- तम छाँटा ।
एक साँझ ढल गयी किसी का दुःख न बाँटा ॥
ज़रा मरण का चक्र सनातन ही चलता है ।
प्राण -दीप पर सदा मृत्यु -मुख में पलताहै ॥
कुछ पैरों में थिरकन लाओ , अधरों पर मुस्कानें ।
कुछ आँखों से आसूँ तोड़ो स्वर में भर दो गानें ॥
युग वरेण्य नर -पुंगव जिसनें जन मन अंतर पाटा ।
एक सांझ ढल गयी किसी का दुःख न बाँटा ॥
प्रति पल प्रति क्षण बाहु युग्म में भर -भर तमस हटाओ ।
मृत्युंजय बन हँसों मृत्यु पर जीवन सुरभि लुटाओ ॥
हर प्रभात होली बन जाये हर संध्या दीवाली ।
हर धमनी में मुखर हो उठे स्वस्थ रक्त की लाली ॥
सोंधी महक लिये 'माटी ' की फैले बेल विराटा ।
एक साँझ ढल गयी किसी का दुःख न बाँटा ॥
दीप्ति -काल टल गया व्याप्त नीरव सन्नाटा ॥
दीप्ति काल टल गया व्याप्त नीरव सन्नाटा ॥
एक कदम उठ गया मौत की मंजिल पाने ।
एक लहर उठ चली काल की प्यास बुझाने ॥
एक पृष्ठ बह् गया प्रलय की जलधारा में ।
एक गीत घिर गया गद्य की घनकारामें ॥
त्याग पुष्प झड़ गया शेष ममता का काँटा ।
एक साँझ ढल गयी किसी का दुःख न बाँटा ॥
जीवन सरिता नित प्रति बहती ही रहती है ।
स्वत्व -समर्पण की गाथा कहती रहती है ॥
पर आकंठ समर्पण -सुरसरि वही नहाते ।
आत्माहुति दे जीवन न्योछावर कर जाते ॥
भास्कर का क्या अर्थ न यदि घन दुःख- तम छाँटा ।
एक साँझ ढल गयी किसी का दुःख न बाँटा ॥
ज़रा मरण का चक्र सनातन ही चलता है ।
प्राण -दीप पर सदा मृत्यु -मुख में पलताहै ॥
कुछ पैरों में थिरकन लाओ , अधरों पर मुस्कानें ।
कुछ आँखों से आसूँ तोड़ो स्वर में भर दो गानें ॥
युग वरेण्य नर -पुंगव जिसनें जन मन अंतर पाटा ।
एक सांझ ढल गयी किसी का दुःख न बाँटा ॥
प्रति पल प्रति क्षण बाहु युग्म में भर -भर तमस हटाओ ।
मृत्युंजय बन हँसों मृत्यु पर जीवन सुरभि लुटाओ ॥
हर प्रभात होली बन जाये हर संध्या दीवाली ।
हर धमनी में मुखर हो उठे स्वस्थ रक्त की लाली ॥
सोंधी महक लिये 'माटी ' की फैले बेल विराटा ।
एक साँझ ढल गयी किसी का दुःख न बाँटा ॥
दीप्ति -काल टल गया व्याप्त नीरव सन्नाटा ॥
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